यायावरी yayavaree: Tirthan Valley: A Hidden Paradise in Himachal

गुरुवार, 25 मई 2017

Tirthan Valley: A Hidden Paradise in Himachal

सफ़र एक सपनों की दुनिया का

तीर्थन वैली

उतरते अप्रैल के साथ जैसे ही दिल्‍ली का मौसम बदमिज़ाज होना शुरू होता है, मन सुकून की तलाश मे पहाड़ों की ओर देखने लगता है. अब तो आलम ये है कि जिस साल गर्मियों में पहाड़ों से मुलाक़ात न हो, समझो वो पूरा बरस ही बेचैनियों में गुज़रेगा. इस बार भी हाल कुछ ऐसा ही था. दिल्‍ली का पारा 40 पार पहुंच चुका था तभी अचानक एक यात्रा के बहाने पहाड़ों ने अपने पास बुला लिया. ये बुलावा तीर्थन वैली, हिमाचल से आया था. आपमें से कुछ दोस्‍तों ने यात्रा के दौरान पोस्‍ट किए गए कुछ फेसबुक पोस्‍ट पढ़ कर इस यात्रा के बारे में विस्‍तार से जानना चाहा था. सो आप सबके लिए पूरा किस्‍सा तफ़्सील के साथ पेश है.ैली कों

इंटरनेट की इसी मायावी दुनिया में एक छोटा सा कौना है यात्रा लेखकों और ब्‍लॉग लिखने वालों का. लोग खूब दुनिया घूमते हैं और अपने किस्‍से साझा करते हैं. देश के एक से एक घुमक्‍कड़ यहां मौजूद हैं. है न खूबसूरत बात? ये सिलसिला कोई दो साल पहले शुरू हुआ जब दो आला दर्जे की घुमक्‍कड़ों Alka Kaushik और Puneetinder Kaur ने बाकी बिखरे पड़े घुमक्‍कड़ों को एक मंच पर लाने का फैसला किया और TravelCorrespondants and Bloggers Group की शुरुआत की. तब से लेकर आज तक घुमक्‍कड़ जुड़ते चले जा रहे हैं और ये परिवार फलता-फूलता जा रहा है. रचनात्‍मक ऊर्जा से भरे इतने लोगों का एक मंच पर निरंतर सक्रीय रहना दूसरी खूबसूरत बात है. बस इसी खूबसूरत बात को सेलिब्रेट करने का विचार कुछ लोगों के मन में आया और तय हुआ कि इस खुशी को इस मायावी दुनिया से बाहर निकल कर असल दुनिया में साझा किया जाए.



दिल्‍ली से शुरू हुई इस यात्रा का पहला पड़ाव मुरथल था. वही मुरथल जिसके पराठों के मुरीद पूरे देश में हैं और अब आलम ये है कि मुरथल के नाम पर यहां से आगरा हाइवे पर उत्‍तर प्रदेश की सीमा तक तकरीबन दर्जन भर मुरथल ढ़ाबे खुल चुके हैं....हमारे देश में एक चीज पॉपुलर हो जाए तो लोग उसकी ऐसी-तैसी करने में देर नहीं लगाते. खैर, मैं जब कुरूक्षेत्र यूनिवर्सिटी में था तभी ये बात पक्‍की हो चुकी थी कि पराठों के शौकीनों के लिए मुरथल ही मक्‍का और मदीना है. आप मुरथल से गुज़रें और मुरथल के पराठें न खाएं तो यहां से गुज़र जाना गुनाह है. तो हम ये गुनाह कैसे कर सकते थे. इसलिए इस सफ़र के शुरू होते ही यहां सिर झुकाते हुए जाना तय हो चुका था. 

एक वक्‍़त था मुरथल में गुलशन ढ़ाबा का जादू सिर चढ़ कर बोलता था. फिर बाद सालों में यहां अमरीक-सुखदेव ने ग्राहकों की नब्‍ज़ पकड़ी और खूब तरक्‍की की. अब हालत ये है कि अमरीक-सुखदेव के ठाठ-बाट तो पांच-सितारा को मात दे रहे हैं मगर लोग कहने लगे हैं कि अब स्‍वाद के मामले में वो बात नहीं रही. खैर, इस बार हमने पहलवान ढ़ाबे को ट्राई करना बेहतर समझा और पहलवान ने निराश नहीं किया. उन सफेद मक्‍खन तैरते परांठों का जायका लेने के बाद ये कारवां एक बार फिर मंजिल की जानिब चल पड़ा. हमारे ट्रैवलर के बगल से गुज़रती गाडियां इस बात का अहसास दिला रही थीं कि हमारी रफ़्तार बेाथी ल़न लोमीटर के inder Kaur हुत ज्‍यादा नहीं है. आगे सफ़र लंबा था मगर मुझे लगा कि पानीपत तक भीड़-भड़क्‍का कम होगा तो शायद हम फर्राटा भर सकेंगे. खैर, रात होने लगी, कुछ साथियों ने खुद को नींद के हवाले किया और बाकी देश-दुनिया के मुद्दों पर समुद्र-मंथन में व्‍यस्‍त हो गए. नए लोगों से मिलना और उन्‍हें उनके विचारों से समझना किसी भी यात्रा का सबसे खूबसूरत पक्ष है. कुछ खुद का नज़रिया तराश पाते हैं और कुछ दूसरों से साझा कर पाते हैं.

सफ़र जारी रहा मगर नींद आंखों से कोसों दूर थी. गाड़ी में अगली सीटों पर बैठने का एक ख़ामियाजा होता है...ड्राइवर आपकी आंखों से बातें करता है. अगर आपकी आंख लगी तो फिर ड्राइवर को कब झपकी लग जाए इसका भरोसा नहीं. बस इस अहसास ने जगाए रखा. जब सुबह 6 बजे के करीब हम स्‍वारघाट पहुंचे तो पता चला कि मंजिल अभी बहुत दूर है....अब तक साफ हो चुका था कि हमारी रफ़्तार काफी कम थी.

सफ़र में थकान हो रही थी मगर, अब हमें पहाड़ों का सहारा था. उन्‍हें निहारते हुए हम आगे बढ़ते रहे. घूमते-घुमाते ओट टनल (ओट टनल से ही कुल्‍लू और मनाली के लिए रास्‍ता जाता है) के बाहर से गुज़र कर बंजार-साईरोपा-नागिनी-गुशैणी होते हुए हम उस गुमनाम सी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे जिसका अता-पता जीपीएस भी साफ़-साफ़ नहीं बता पा रहा था और इंटरनेट पर भी ज्‍यादा जानकारी नहीं थी.

मेरे दाईं ओर तीर्थन बह रही थी...इसका मतलब था कि अब हम तीर्थन घाटी में थे. बताए गए पते के मुताबिक हमें तीर्थन नदी को दो बार पुलों से पार करना था. तीर्थन नदी ही इस घाटी की पहचान है....दो ओर ऊंची पहाडियों के बीच बसी ये घाटी आगे बढ़ते हुए पलांचन घाटी को रास्‍ता देती है. 

पलांचन घाटी भी अपना नाम पलांचन नदी से लेती है जो तीर्थन नदी की ही एक ट्रिब्‍यूटरी है और आगे चलकर तीर्थन ब्यास नदी से जा मिलती है. हम जितना आगे बढ़ रहे थे हवा उतनी ही हल्‍की और मीठी होने लगी और पहाड़ उतने ही गहरे हरे रंग में रंगे नज़र आने लगे. सड़क की ऊंचाई से ही पलांचन का शोर साफ़ सुनाई दे रहा था. चारों ओर कुदरत की बेशुमार दौलत बिखरी पड़ी थी. 12-13 घंटे के सफ़र ने 18 घंटे से अधिक का समय लिया. लेकिन उस खूबसूरत मंजिल पर पहुंच कर ये सब अब बेमानी हो चुका था. इंटरनेट और मोबाइल का सिग्‍नल यहां से तकरीबन आठ किलोमीटर पीछे छूट चुका था पर अब इसकी परवाह किसे थी?

The Tirthan Anglers' retreat

सड़क से तकरीबन 200 मीटर नीचे घाटी में पलांचन नदी के किनारे बने द तीर्थन एंगलर्स रिट्रीट को देखते ही सफ़र की थकान उड़नछू हो गई. रिसॉर्ट तक उतरने के लिए घुमावदार रास्‍तों से ट्रैक करते हुए उतरना पड़ता है. जो अपने आप में रोमांचक है बशर्ते साथ में कोई बुजुर्ग या छोटे बच्‍चे न हों. हां, सामान को नीचे पहुंचाने के लिए सड़क से रिसॉर्ट तक पुली की व्‍यवस्था है.
 
यहां हमारे पड़ाव के लिए तय वक्‍़त में से आधा दिन तो सफ़र में ही खप चुका था सो कहीं कुछ देखने जाने का प्रोग्राम पहले ही खटाई में पड़ चुका था. मगर रिसॉर्ट और इसके आस-पास का नज़ारा इस कदर दिलकश था कि कहीं न भी जाया जाए तो तीन-चार दिन इसी जगह पर रह कर कुदरत से दोस्‍ती की जा सकती है. 

अब तक बारिश की झड़ी लग चुकी थी. पलांचन का दिल भर आया था और जैसे कहीं जाने की जल्‍दी में पूरे वेग से बही जा रही थी. उधर बारिश का पानी जब हज़ारों पेड़ों से रिस कर जमीन पर गिरता है तो लगता है जैसे सारे पेड़ नदी के गीत में कोरस दे रहे हों. एक मन किया कि बस यहीं बैठ कर प्रकृति के इस संगीत को देर तक सुना जाए. 




मगर घुमक्‍कड़ों से एक जगह टिका कहां जाता है. पैरों में चक्‍कर

होता है शायद. सो शाम को जब बाकी साथी रिसॉर्ट में चाय की चुस्कियां के साथ गपशप में लगे थे तब हम तीन घुमक्‍क्‍ड - दो घुमक्‍क्‍ड़ और मैं, बारिश के बीच छतरियां लेकर नज़दीकी गांवों की सैर पर निकल पड़े. 

कहीं भी जाओ...जब तक पैदल उतर कर कदमों से जगह को न नापो तो समझो कहीं गए ही नहीं. सो इस रिमझिम के बीच आगे बढ़ते हुए प्रकृति के अद्भुत नज़ारे एक-एक कर सामने तस्‍वीरों की तरह खुलते चले गए. मेरे साथ दो घुमक्‍कड़-मनीष और गार्गी थे. मनीष एयर ट्रैफिक कंट्रोलर हैं तो उनकी जीवन संगिनी गार्गी इंजीनियरिंग की लेक्‍चरर. मनीष शानदार फोटोग्राफ़र हैं तो गार्गी ब्‍लॉग लिखती हैं. ये हम लोगों की पहली मुलाक़ात थी मगर थोड़ी ही देर में लगने लगा कि जैसे हम लोग बरसों से आपस में परिचित हैं. 



सड़क पर कुछ बच्‍चे क्रिकेट खेलते नज़र आए. गांव में बमुश्किल आठ-दस घर होंगे और इन घरों के बीच है एक छोटा सा पोस्‍ट ऑफिस. बंजार तहसील का ये ब्रांच पोस्‍ट ऑफिस दिन में सिर्फ 2 से 5 बजे तक...बस्‍स. लोगों ने बताया कि एक महिला कर्मचारी यहां आती हैं और सब ठीक-ठाक चल रहा है. ये पोस्‍ट ऑफिस आस-पास के कई छोटे-छोटे गांवों के लिए बाहरी दुनिया से संपर्क का अच्‍छा माध्‍यम बना हुआ है क्‍योंकि इंटरनेट की पहुंच यहां से लगभग 10 किलोमीटर पीछे छूट चुकी है. 

जब तब बीएसएनएल का सिग्‍नल यहां चला आता है लेकिन हर वक्‍़त नहीं. और फिर पहाडों के सीधे-सादे लोगों को फेसबुक और वाट्सएप्‍प का मोह और जरूरत भी कहां है. लोग चिट्ठियां लिखते हैं और चिट्ठियों के जवाब का इंतज़ार करते हैं. यहां जि़दंगी की ज़रूरतें ही न के बराबर हैं. इस गांव तक आते-आते मुझे अपने डाक विभाग पर फ़ख्र महसूस होने लगा जो आम आदमी की जि़ंदगी में छोटी-छोटी खुशियां भर रहा है.

यहां से कुछ दूर और आगे बढ़े तो एक माइलस्‍टोन बठाहड गांव 2 किलोमीटर दूर बता रहा था. मन तो था कि बठाहड तक भी हो आएं लेकिन अब दिन ढ़लने लगा था और रौशनी कम होने लगी. बारिश ने एक बार फिर अपना राग छेड़ दिया था. अब हम आस-पास की तस्‍वीरें लेते हुए अपने ठिकाने की ओर लौट लिए.




रिसॉर्ट में रात के खाने की तैयारी हो रही थी और उधर अगले दिन के मिशन की योजना भी तैयार हो रही थी. अब तक हमारी मंडली में दो और घुमक्‍कड़ शुभम मानसिंगका और जितादित्‍य भी शामिल हो चुके थे. ये दोनों अव्‍वल दर्जे के घूमंतू हैं. ये ज्ञानी महानुभाव पहले ही इस इलाके को काफ़ी हद तक खंगाल चुके थे सो इनकी सलाह पर ही मैंने अगले दिन विलेज-वॉक और जालोरी पास के विकल्‍पों में से जालोरी को चुना. मन तो विलेज-वॉक के लिए भी लालची हो रहा था मगर उस एक दिन में एक ही काम किया जा सकता था. सो तय हुआ कि जालोरी होकर आया जाए. यूं भी इस यात्रा पर आने से बहुत पहले अल्‍का जालोरी का जि़क्र कर चुकी थीं...सो ये तभी से मन में था.

अगले दिन सुबह नींद खुली तो कमरे की खिड़की से सामने जो देखा उस पर विश्‍वास ही नहीं हुआ. सामने की बादल उड़ते साफ़ नज़र आ रहे थे...वक्‍़त यही कोई 6.30 के आस-पास रहा होगा. मैं कैमरा उठा कर फटाक से बाहर निकला. बाहर का नज़ारा अद्भुत था. वाकई ग़ज़ब जगह थी ये जहां हर दो-चार घण्‍टे में मौसम अपने रंग बदल रहा था. अभी सभी सोए हुए थे तो चारों तरफ़ अजीब सी सुकून भरी खामोशी. हां, इस वक्‍़त साथ देने के लिए कोई वहां था तो छोटे-छोटे पक्षी जो सुबह होते ही दाना-पानी की तलाश में निकले थे और इस एकांत को भंग करती पलाचन. 

कुछ ही मिनटों में मुझे अहसास होने लगा कि हमारी शहरों की जिंदगी में जितनी भी भाग-दौड़ और आपा-धापी है वो काफी हद तक ग़ैर-ज़रूरी है. एक सुकून भरी जिंदगी के मोहताज हो चुके हैं हम लोग. जिंदगी को बेहद पेचीदा बना चुके हैं हम. प्रकृति के आगोश में आकर हम खुद को अपने और नज़दीक पाते हैं. शायद इसीलिए ये पहाड़ और वादियां हमें इतनी प्रिय हैं क्‍योंकि ये हमें हमारे वजूद के खोए हुए हिस्‍से का पता देते हैं.

जो लोग सिर्फ शिमला और मनाली काे ही हिमाचल समझते हैं उन्‍हें एक बार यहां जरूर आना चाहिए. असली हिमाचल यहां है.

इस जादू भरी दुनिया के पन्‍ने तो अभी बस खुलने ही शुरू हुए थे और यहां कुछ और करिश्‍मे अभी देखने बाकी थे. बारिश रुक नहीं रही थी मगर जालौरी पास के लिए निकलने से हमें नहीं रोक पाई. एक बार फिर हमने छतरियां संभालीं और गाडियों पर सवार होकर जालोरी पास की ओर निकल पड़े. तीर्थन एंगलर्स रिट्रीट से जालोरी का सफ़र तकरीबन 45 मिनट का है. इस रास्‍ते पर कुदरत के हसीन नज़ारों को ज़ेहन और कैमरों में जज़्ब करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ ही रहे थे कि अचानक ड्राइवर ने हमारा ध्‍यान दूर ऊपर पहाडियों की ओर खींचा. 

जो देखा उस पर यकीन नहीं हो रहा था. ये अप्रैल की आखिरी तारीख थी और हमारी आंखों के सामने पहाडि़यों पर बर्फ़ गिर रही थी. ड्राइवर के मुताबिक हम लोग बहुत भाग्‍यशाली थे जो साल के इन दिनों में वहां स्‍नो-फॉल देख रहे थे. हमारे देखते-देखते हमारे आस-पास की दुनिया रंग बदलने लगी. हर चीज जैसे एक सफेद चादर ओढ़ने लगी हो. ऊपर पहाडियों ने तो पहले ही खुद को नर्म सफ़ेद शॉल में लपेट लिया था. बस अब मंजिल तक पहुंचने की बेकरारी और बढ़ गई. 

जल्‍दी–जल्‍दी बाकी रास्‍ता तय कर हम जालोरी-पास पर पहुंचे. अब तक तो पूरा लैंडस्‍केप ही बदल चुका था. ऐसा लग रहा था जैसे सृष्टि का रचयिता स्‍वयं आज हम सब पर मेहरबान था और पूरे स्‍नेह से अपने घर में हमारा स्‍वागत कर रहा था. इस मौसम में चारों तरफ़ बर्फ में ढ़की कायनात की हम कल्‍पना भी नहीं कर सकते थे और अब ये हक़ीकत बन कर हमारे सामने थे. 

हम लगभग 10,800 फीट की ऊंचाई पर थे और जोत पर बने तीन-चार ढ़ाबों और माता के मंदिर की छतें बर्फ़ से ढ़क चुकी थीं. जालोरी पास को स्‍थानीय लोग जलोड़ी जोत कहते हैं. ये पास शिमला जिले (रामनगर की ओर) को कुल्‍लू घाटी से जोड़ता है.






अब तक थोड़ी भूख भी लग चुकी थी सो जोत पर बने ढ़ाबों की कतार में से दूसरे ढ़ाबे में मैगी और चाय का आदेश देकर हम वहीं तफ़री करने लगे. ये ढ़ाबे हमारे हाइवे के आस-पास बने ढ़ाबों जैसे नहीं हैं. यूं समझिए कि सभ्‍यता से दूर किसी ने जैसे-तैसे भूखे मुसाफि़रों का पेट भरने के लिए जतन किया हुआ है. सब कुछ बहुत पुराना. बिजली यहां तक नहीं पहुंची है और साल में सिर्फ दो-तीन महीने ही खुलते हैं ये ढ़ाबे. 

अभी मैगी और चाय तैयार हो ही रही थी कि अचानक ढ़ाबे में पीछे पहाडि़यों की ओर एक दरवाजा खुला. सामने का दृश्‍य देख कर आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था. ये एक सपनों सी सुंदर दुनिया थी. दूर तलक सफ़ेद बर्फ़ की चादर, कहीं दूर शायद अभी भी बर्फ़ गिर रही थी, पेड़ों की शाखों और पत्तियों पर बर्फ़ रुई जैसे टुकड़े अटके हुए थे. 

ये बिल्‍कुल ऐसा था जैसे लूसी पेवेन्‍सी ने वार्डरोब का दरवाजा खोल दिया हो और नार्निया की एक जादुई दुनिया में प्रवेश कर गई हो. मेरी आंखों के सामने जो था वो एक तरह का नार्निया ही था. अब तक मैगी हाथों में आ चुकी थी. ये मैगी भी बड़े कमाल की चीज है....पहाड़ों पर इसका स्‍वाद अलग ही लगता है, जैसे इसमें खुद कोई जादुई ताकत हो. हम लोग काफ़ी देर वहां रुके. मन तो जैसे इंद्रजाल में कैद हो चुका था. धूप के चमकने के साथ जैसे-जैसे बर्फ़ ने पिघलना शुरू किया हमारा सम्‍मोहन कम हुआ.


इसके बाद तकरीबन पांच किलोमीटर का सफ़र तय कर हम जा पहुंचे खनाग रेस्‍ट हाउस. इस जगह की अपनी दिलचस्‍प दास्‍तां है. खनाग के इस रेस्‍ट हाउस में सामने लगा पत्‍थर लेडी पेनेलपी की याद दिलाता है. लेडी पेनेलपी भारत में ब्रिटिश सेना के पहले फील्‍ड मार्शल फिलिप की पुत्री थीं. पेनेलपी चेटवुड को हिमाचल के इस हिस्‍से से धीरे-धीरे मुहब्‍बत हो गई और उन्‍होंने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्‍सा इस इलाके में गुजारा. उन्‍हें यात्राओं पर लिखने का शौक था और अपनी यात्राओं के किस्‍सों को Kullu: The end of Habitable World नाम से एक किताब में दर्ज किया. और एक दिन लेडी पेनेलपी ने यही खनाग में ही अपनी ज़िंदगी की आख़िरी सांस ली. मैं किसी ट्रैवलर की याद में बना शायद पहला स्मारक देख रहा था. 

खनाग से वापिस तीर्थन के सफ़र लौट पड़े तो एक बार फिर जालोड़ी जोत होकर गुज़रे. मगर अब तक यहां का नज़ारा पूरी तरह बदल चुका था. बर्फ़ का नामोनिशान नहीं था. मानो किसी ने पूरी बर्फ़ जान-बूझकर साफ़ कर दी हो या फिर जैसे यहां कुछ हुआ ही न हो. ये भी कुदरत का एक रंग था. वापसी में रास्‍ते में एक गांव से गुज़रते हुए देवता की सवारी नज़र पड़ी. बंजार का मेला नज़दीक ही था. 

यहां एक परंपरा है कि ऐसे मेलों में आस-पास के गांवों के देवता इकट्ठे होते हैं. पहाड़ी लोक जीवन में ऐसी परंपराओं का बड़ा गहरा स्‍थान है. लोगों की इनमें और इनसे जुड़ी तमाम अन्‍य रस्‍मों और रिवाजों में पूरी आस्‍था है. शायद ऐसी परंपराएं ही समय के तेजी से बदलने के बावजूद आज भी यहां के जनजीवन को एक ताने-बाने में संजोए हुए हैं. पहाड़ के लोग आज भी स्‍वभाव में सरल हैं. भाग्‍यशाली हैं जो वे प्रकृ‍ति की गोद में बसे हैं. उनके जीवन में कठिनाइयां तो हैं मगर छल-कपट और गला-काट प्रतिस्‍पर्धा से उनकी जिंदगी कोसों दूर है.

मैं तीर्थन से लौट तो आया हूं मगर तीर्थन मेरे भीतर से अभी तक नहीं लौटा है. और शायद कभी लौट भी न पाए. वो जादुई दुनिया मुझे हमेशा अपनी ओर आकर्षित करती रहेगी. इस यात्रा के दौरान जो कई नए दोस्‍त भी बने...उम्‍मीद है उनसे मुलाक़ातों का सिलसिला आगे भी रहेगा. इस यात्रा के लिए सदैव TCBG का आभारी रहूंगा. साथ ही शुक्रिया रिसॉर्ट के मालिक दिलशेर मान का उनकी बेहतरीन मेहमाननवाज़ी का...दिलशेर दिल के भी शेर हैं :) 

यदि आप भी कुछ वक्‍़त के लिए सब-कुछ भूल कर खुद को ढूंढ़ना चाहते हैं तो तीर्थन वैली आपका इंतज़ार कर रही है. यदि आप तीर्थन एंगलर्स रिट्रीट का आनंद लेना चाहें तो टैरिफ़ या उपलब्‍धता के लिए सीधे दिलशेर मान से 08988496590 पर संपर्क कर सकते हैं. 

नेाट- जिन तस्‍वीरों पर दो घुमक्‍कड़ का वाटरमार्क दिख रहा है वे फ़ोटोग्राफ़र मित्र मनीष ने उतारी हैं...उनका बहुत शुक्रिया. शेष तस्वीरेें यायावरी की अपनी हैं. 

कुछ किस्‍से अभी और भी हैं...पर फिलहाल कुछ और तस्‍वीरों के जरिए आप घूम आइए तीर्थन वैली ! 

इस यात्रा का भाग दो: तीर्थन वैली: सफ़र एक सपनों की दुनिया का  










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8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही उम्दा वर्णन, समां बाँधती यह यात्रा वृतांत वाकई अतीत में ले जाती है और उस तमाम खुशनुमा पलों से रुबरु कराती है।

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    1. बहुत शुक्रिया ...आप दो घुमक्कड़ों के साथ और भी बेहतरीन रहा ये सफ़र :)

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  2. बेहतरीन वर्णन। मन प्रसन्न कर दिया आपने।

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    उत्तर
    1. आप प्रसन्‍न हुए तो समझ सकता हूं कि लिखना सफल हुआ :)

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  3. Planning to go there next week...is this place good for kids under 12
    Plz revert

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