एशिया का क्लीनेस्ट विलेज: मायलेन्नोंग
ये जुलाई का बरसातों का मौसम था और बरसात की शुरूआती झडि़यों के बाद उत्तर से पूरब तक धरती का तन और मन दोनों पूरी तरह भीग चुके थे। यही वह समय था जब पहले से हरी-भरी पूर्वोत्तर की दुनिया और भी ज्यादा मनमोहक लगने लगी थी। मैं कुछ मित्रों के साथ गुवाहाटी, शिलांग
और चेरापूंजी की यात्रा पर था। दो तीन दिन गुवाहाटी और शिलांग में गुजारने के बाद उस रोज हम शिलांग से निकले तो थे चेरापूंजी के लिए मगर
सड़क पर बादलों और बारिश ने ऐसा घेरा कि कुछ नहीं दिखा और जहां लैटलिंगकोट नाम की जगह (शिलांग से लगभग 27 किलोमीटर) से चेरापूंजी के लिए
कट लेना था वहां गलती से बाईं ओर कट ले लिया मायलेन्नोंग का। इस राह पर तकरीबन 10 किलोमीटर
आगे आकर गूगल मैप ने बताया कि हम चेरापूंजी की बजाए मायलेन्नोंग की राह पर आगे
बढ़ रहे हैं। अब जब गलत राह पकड़ ही ली...तो यही सही। वैसे मेघालय यात्रा का जब
प्रोग्राम बन रहा था तो मायलेन्नोंग (Mawlennong) को व्यस्त कार्यक्रम में शामिल करना लगभग
असंभव दिख रहा था और मैं भी मन ही मन मान चुका था कि इस बार मायलेन्नोंग जाना
नहीं हो पाएगा। पर शायद डेस्टिनी को वहीं भेजना मंजूर था। क्योंकि आप किस वक़्त
कहां होंगे ये शायद पहले से तय है। या फिर वो कहते हैं न कि 'आप किसी चीज को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उसे आपसे मिलवाने में जुट जाती है'। अब एक घुमक्कड़़ को और क्या चाहिए, मन की मुराद पूरी हो गई। मायलेन्नोंग को आज Asia’s
Cleanest Village के नाम
से जाना जाता है और इसे "गॉड्स ओन विलेज" भी कहा जाता है।
बांग्लादेश बॉर्डर पर ये गज़ब का गांव है।
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मायलेन्नोंग की ओर आखिरी डगर |
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हसीन रास्ते जो मंजिलों से भी ज्यादा खूबसूरत हैं |
शिलांग से
मायलेन्नोंग का 80 किलोमीटर का पूरा रास्ता बादलों की अठखेलियों के
बीच ठुमकता मचलता सा चला जाता है। उस रोज भी घनघोर काले बादल अचानक सड़क पर गाड़ी के
आगे कूद कर सामने से ही धप्पा बोल रहे थे। गहरी धुंध, बरसात और
काले बादलों के बीच से हम लगभग रेंगते हुए आगे बढ़ रहे थे। गाड़ी में चल रहा गीत जैसे ठीक इसी वक़्त के लिए लिखा गया था:
अब तक इस रास्ते पर आगे बढ़ते
हुए एक वक्त लगने लगा कि हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं वो डगर कहीं जाती भी है या नहीं। दूर-दूर तक सुनसान रास्ते और जंगल। मायलेन्नोंग से तकरीबन 17 किलोमीटर
पहले आखिर एक खूबसूरत से साइनबोर्ड पर नज़र पड़ती है जो बताता है कि ‘गॉड्स ओन
गार्डन’ मायलेन्नोंग
वहां से दाईं ओर 17 किलोमीटर दूर है।
आखिर ये सफर भी पूरा करके हम मायलेन्नोंग पहुंचते हैं। बांग्लांदेश बॉर्डर से सटा
एक छोटा सा बेहद खूबसूरत गांव। गांव में खासी समुदाय के लगभग 95 परिवार
हैं, और ज्यादा
से ज्यादा 500 लोग।
खासी समुदाय की परंपराओं के मुताबिक दुनिया का ये कोना पूरी तरह महिलाओं का किंगडम
है। मतलब कि मातृसत्तात्मक व्यवस्था।
बादल झुके झुके से हैं
रस्ते रुके रुके से हैं
क्या तेरी मर्ज़ी है मेघा
घर हमको जाने न देगा
आगे है बरसात, पीछे है तूफ़ान
मौसम बेईमान, कहाँ चले हम तुम
चक दुम दुम...
मायलेन्नोंग में एक चाय की दुकान...मगर दुकान की कमान महिला के हाथ में है |
दुनिया की
आधी आबादी पितृ सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के चक्रव्यूह को भेदने में दिन-रात
खटते हुए जिस बेहतर स्थिति के यूटोपिया की कल्पना करती है वैसा मातृ सत्तात्मक समाज
शिलांग के आस-पास के इलाकों और विशेषकर मायलेन्नोंग में खासी जनजातीय समाज की
वास्तविकता है। यहां औरत जात की हुकूमत है। मेघालय की मैट्रीलीनियल सोसायटी
दुनिया की इक्का–दुक्का शेष बची मातृसत्तात्मक व्यवस्थाओं में से एक है और
समाजविज्ञानियों और सैलानियों के लिए आश्चर्य का विषय है। यहां महिला ही परिवार की
मुखिया मानी जाती है। हां, बच्चों के मामा परिवार के फैसलों में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं। स्थानीय लोगों के मुताबिक, शादी के बाद दुल्हन पराये घर नहीं जाती बल्कि
दूल्हा घर लाती है। कोई दहेज नहीं, कोई दुल्हन की प्रताड़ना नहीं। यहां तक कि बेटी
शादी के बाद भी अपनी मां के सरनेम को ही अपने सरनेम के तौर पर प्रयोग करती है और
परिवार की संपत्ति सबसे छोटी बेटी के नाम ट्रांसफर होती है। Khasi Custom of Lineage Act of 1997 के अनुसार यदि परिवार में कोई बेटी न हो तो भी
संपत्ति परिवार के पुत्रों के नाम नहीं होगी। इसके लिए किसी अन्य परिवार से लड़की
को गोद लिया जाएगा और वह उस संपत्ति की मालकिन बनेगी। इसलिए कोई आश्चर्य की बात
नहीं कि इस इलाके में आमतौर पर पुरूषों के पास कोई संपत्ति नहीं है। दिलचस्प बात ये है कि इस व्यवस्था के चलते पुरूषों को काम-काज के लिए बैंक से लोन नहीं मिल पाते क्योंकि उनके पास गिरवी
रखने के लिए कोई संपत्ति ही नहीं है। शायद इसी वजह से यहां का पुरुष समाज अब इस
सदियों पुरानी परंपरा से असंतुष्ट नज़र आता है। मगर परंपराएं टूटना इतना आसान
नहीं होता। यही वजह है कि तमाम प्रतिरोधों और विद्रोही स्वरों के बावजूद ये
परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है। शायद इसीलिए यहां बेटी को वंश चलाने वाला माना
जाता है और बेटी के जन्म पर खुशियां मनाई जाती हैं और 'खोवाई' नाम से एक
आयोजन होता है जिसमें मिलने-जुलने और जान-पहचान वालों को खाने पर बुलाया जाता है।
मैट्रिलिनियल सोसाइटी का ये दस्तूर अमीर-गरीब सभी तबकों में समान रूप से देखा जा
सकता है। काम-काज के अधिकांश क्षेत्रों में आपको महिलाएं ही नज़र आएंगी। मातृसत्तात्मक
व्यवस्था का ये इकलौता केन्द्र आज दुनिया भर के लिए आश्चर्यमिश्रित हर्ष का विषय
है और पूरी दुनिया को संदेश दे रहा है कि दुनिया कुछ इस तरह भी चलाई जा सकती है।
कचरे के लिए बांंस के कूड़ेदान |
फिलहाल यहां मुद्दा क्लीनेस्ट विलेज का है। तो हुआ यूं कि 2003 में एक
ट्रैवल मैग्जीन ने इस गांव को ‘क्लीनेस्ट विलेज ऑफ एशिया’ घोषित
किया। बस तभी दुनिया की नज़र इस गांव पर पड़ी और आज ये गांव मेघालय के टूरिस्ट मैप
पर खास स्थान ले चुका है। हालांकि अभी भी इसके बारे में दूर-दराज के टूरिस्ट को
ज्यादा जानकारी नहीं है। हां नई और खास जगहों की तलाश में भटकती आत्माएं
ऐसी जगहों पर पहुंच ही जाती हैं। खैर, गांव वाकई साफ-सुथरा है। हर घर के बाहर बांस से
बने डस्टबीन लगे हैं जिनके कचरे को हर रोज इकट्ठा करके एक बड़े गड्ढे में डाला
जाता है जहां बाद में उसके खाद बनने पर उसे काम में लिया जाता है। इस गांव तक भी मनरेगा
जैसी योजनाएं पहुंची हैं। यहां के ड्रेनेज सिस्टम का काम मनरेगा के अंतर्गत ही
किया गया है। गांव में लोगों ने यहां आने वाले पर्यटकों के लिए छोटे-छोटे टी-स्टॉल
और रेस्तरां खोल कर आजीविका के कुछ और साधन पैदा कर लिए हैं। गांव देखते देखते
ज़रा सा अंदर ही बढ़ा होउंगा कि अचानक मोबाइल पर एक मैसेज आ टपका “Welcome to
Bangladesh ! Tariff in Bangladesh on any network: Call to Bangladesh: Rs
70/min, to India/any other country: Rs140/min, incoming: Rs 70/min, SMS
outgoing: Rs15, Data: Rs5/10 Kb” ये मैसेज देखते ही होश उड़ चुके थे...ज़ाहिर था कि
मोबाइल नेटवर्क के हिसाब से मैं बांग्लादेश में था। मैंने ज़रा गौर किया तो कुछेक
फर्लांग पर ही बांग्लादेश के खुले मैदान नज़र आ रहे थे। सबसे पहले तो मोबाइल का
सेल्युलर डाटा ऑफ किया और वहीं से बांग्लादेश को अलविदा कह कर उल्टे पांव लौट लिया।
बांग्लादेश की सीमा से सटा गांव का इलाका |
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लिविंग रूट ब्रिज |
यहां से थोड़ी दूर पर ही प्रकृति का एक और बेजोड़ अजूबा ‘लिंविंग
रूट ब्रिज’ के रूप में देखने को मिलेगा। रबर के पेड़ की
जड़ों से सालों-साल तक गुथ कर बना ये लिविंग रूट ब्रिज बहते धारे के ऊपर से दूसरी
ओर पहुंचने के लिए बायोइंजीनियरिंग का एक खूबसूरत करिश्मा है। कुछ लोगों
का मानना है कि इस रूट ब्रिज की उम्र तकरीबन एक हजार वर्ष है। गांव में ही कुछ और
आकर्षण के केन्द्र हैं जिनमें सबसे खास है ‘ट्री होम’। ये बांस
से पेड़ के ऊपर 80 से 90 फुट की ऊंचाई पर बनाया गया छोटा सा घर है जिसमें गांव के
जीवन का आनंद लेने के इच्छुक पर्यटक रात को भी ठहर सकते हैं। गांव के लोग बड़े
प्रेम और आतिथ्य भाव के साथ पर्यटकों का स्वागत करते हैं। इसी तरह के कुछ और
बांस के ‘स्काई वे’ (पेड़ पर
चढ़ने के लिए बांस से बनी सीढि़यां) यहां पर्यटकों को प्रकृति के अद्भुत नज़ारों
का लुत्फ देते हैं जहां से न केवल गांव की अनुपम छटा दिखती है बल्कि गांव के उस
पार बांग्लादेश के लंबे चौड़े मैदान साफ दिखाई देते हैं।
छोटे. मगर खूबसूरत घर. हर घर का अलग शौचालय |
इस गांव में निर्मल गांव अभियान के तहत हर घर के लिए अलग
शौचालय है। हर चार कदम पर आईडीएफसी बैंक के सौजन्य से सोलर स्ट्रीट लाइटिंग सिस्टम
लगा है। जानकर आश्चर्य होगा मगर सच है कि गांव का लिट्रेसी रेट 100 परसेंट
है। गांव में 3 स्कूल
हैं और बच्चों को अभी से गांव को सुंदर बनाए रखने के सबक स्कूल में सिखाए जा रहे
हैं। गांव के लोग हर रोज सुबह मिलकर पूरे गांव के सफाई करते हैं और गांव के बच्चे
भी बड़ों की देखा-देखी साफ-सफाई के काम में उनका हाथ बंटाते हैं। गांव में
कूड़ा-कर्कट फैलाने पर ‘द लॉ ऑफ विलेज’ के अनुसार
फाइन लगाया जाता है। कुल मिलाकर एक मुकम्मल आदर्श ग्राम। ये जगह तमाम बड़े-बड़े
स्वच्छता अभियानों के नाटकों से दूर स्वच्छता की एक जीती जागती मिसाल है और साबित
करती है कि यदि स्थानीय प्रशासन जिम्मेदार हो और नागरिक स्वच्छता में अपना
योगदान दें तो कोई भी जगह सुंदर बन सकती है। कहना ही होगा कि मायलेन्नोंग दुनिया
की उन चंद खूबसूरत जगहों में से एक है जिन्हें एक बार अवश्य देखा जाना चाहिए।
अगली पोस्ट में हम चेरापूंजी की ओर चलेंगे तब तक कुछ और तस्वीरें इस खूबसूरत गांव से...
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लिविंग रूट ब्रिज |
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हर तरफ सिर्फ एक ही रंग |
काश मैं भी बच्चा बन जाऊं और इसी गांव में खूब खेलूं |
मुझे भी एक घर चाहिए यहां |
मनरेगा का जादू |
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लगभग पूरा भारत देखने के बाद ,मेरा यह हिस्सा पूरा अछूता है ।बहुत दिल है इस भाग को भी देखने का ,आपके लेख को पढ़ कर तो और भी इच्छा बलवती हो गयी । पर अब जगह से ज्यादा उस मातृसत्ता शक्ति को देखने का मन है ,अभी तक सिर्फ पढ़ा है इस तरह के समाज के बारे में देखना चाहती हूं क्या वाकई वहां पुरुष का अधिकार क्षेत्र स्त्री से कम है ।सुंदरता सफाई तो आपके लगाए फ़ोटो से साफ दिख रही है।कुदरत के रंग भी वहां अदभुत है ।आपके लिखे ने वहां पहुंचा ही दिया लगभग ।
जवाब देंहटाएंदेश का ये हिस्सा यूं भी हम सबकी सामूहिक चेतना से लगभग गुम सा ही है. इसकी वजह भी हैं. मीडिया, किताबों आदि में ज्यादा जिक्र भी नहीं होता है. हां, अब तस्वीर बदल रही है. इंटरनेट की दुनिया के फलने-फूलने बाद अब पूर्वोत्तर परिचित सा लगने लगा है. आप अवश्य जाएं यहां. जहां तक मेघालय की बात है तो मैंने खुद अपनी आंखों से तमाम काम-काजों में महिलाओं को कमान संभालते हुए देखा है. अच्छा लगता है. टिप्पणी के लिए आभार!
हटाएंजुलाई में मेघालय घूमने का आनंद है वो बारिश के जुलाई के मौसम में और शायद ही कही आये...बारिशों के नगर की आपकी किस्मत से घुमक्कड़ी बहुत प्यारी लगी...
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने. मेघालय तो है ही बादलों का घर. और जब ये बादल पानी से खेल रहे हों तो इनके इस घर को देखना सुखद अनुभव है.
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