यायावरी yayavaree: Shikwa Haveli: A Story of Restoration, Reconstruction and Rebirth

बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

Shikwa Haveli: A Story of Restoration, Reconstruction and Rebirth

शिक़वा हवेली

अभी ज्‍यादा वक्‍़त नहीं गुज़रा जब हवेलियां हमारे गांवों और शहरों में जीती-जागती और सांसें लेती हुई पाई जाती थीं. मग़र वक्‍़त के साथ कदमताल बैठाने में पिछड़ रही हवेलियों के कि़स्‍से धीरे-धीरे हमारी रोज़मर्रा की जि़ंदगी से गायब होने लगे हैं और हवेलियों का जि़क्र अब हैरिटेज के बहाने ही होता है. जि़क्र पुरानी दिल्‍ली की हवेलियों का हो या हरियाणा-राजस्‍थान की हवेलियों का, ये हवेलियां बीते वक्‍़त के दिलचस्‍प किस्‍से अपने सीने में छुपाए बैठी हैं. 

और बात अगर किसी 700 साल पुरानी हवेली के रेस्‍टोरेशन की हो तो ये अपने आप में एक अजूबे से कम नहीं. दिल्‍ली की सरहद को लांघते ही चंद पलों में पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के बागपत इलाके में काठा गांव की खूबसूरत शिकवा हवेली रेस्‍टोरेशन और पुननिर्माण की अद्भुत कहानी कह रही है. इस हवेली को स्‍थानीय लोग काजियों की हवेली या मेहराबों वाली हवेली या हवा महल के नाम से भी जानते हैं. चंद रोज़ पहले मुझे कुछ पत्रकार और ब्‍लॉगर मित्रों के साथ इस हवेली की मेहमाननवाज़ी देखने का मौक़ा मिला.



सहारनपुर-यमुनोत्री मार्ग पर काठा के एक ऊंचे टीले पर बसी इस हवेली की कहानी को समझने के लिए हमें इतिहास के पन्‍नों में तक़रीबन 700 साल पीछे की ओर लौटना होगा. किस्‍सा 1398 का है जब काबुल से चली तैमूर लंग की भारी-भरकम फ़ौज़ उत्‍तर भारत को रौंदती चली आ रही थी. सोनीपत और पानीपत के रास्‍ते दिल्‍ली को बड़ी बेदर्दी से लूटा गया और जब इतने से पेट नहीं भरा तो तैमूर लंग ने यमुना पार के इलाकों का रुख कर लिया. अब इस इलाके की बर्बादी तय थी. मगर यहां के क़ाज़ी ने तरक़ीब लगाई. 

काज़ी तैमूर के पक्षी प्रेम से वाकि़फ़ थे सो उन्‍होंने बहुत सोच-समझकर तैमूर लंग को एक सफेद मोर भेंट किया. तीर सही निशाने पर लगा. तैमूर बहुत खुश हुआ और इस इलाके को छेड़े बिना मेरठ की ओर निकल गया. इस तरह ये इलाका बच रहा गया. बस तभी से काठा की ये काजियों की हवेली काठा गांव के लोगों के दिल में अपनी जगह बनाए रही.


कहानी रेस्‍टोरेशन की
शायद यही वजह है कि मुग़लिया सल्‍तनत के ख़त्‍म होने के बावजूद काठा की इस हवेली में अदालत लगने का सि‍लसिला 20वीं सदी की शुरूआत तक बदस्‍तूर चलता रहा. सन 1970 तक परिवार के लोग हवेली में आते-जाते रहे मग़र धीरे-धीरे इसके बाशिंदे इससे दूर होते गए और हवेली वक्‍़त की थपेड़ों के आगे भला कब तक खड़ी रहती. वक्‍़त के साथ इसकी बुलंदी ढ़लने लगी और अधिकांश हिस्‍से खंडहर में तब्‍दील होने लगे. 

मगर इस हवेली के वारिस शाकि़र बिन रज़ा को उनकी जड़ें बुला रही थीं. शाकि़र, यूनाइटेड नेशन्‍स में डिप्‍लोमेट के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे. दुनिया के 12 देशों में अपनी सेवाएं देने के बाद और तक़रीबन 90 देशों की यात्रा करने के बाद जब नौकरी से फुर्सत हुए तो अपने पुरखों की इस विरासत को फिर से खड़ा करने का मजबूत इरादा लेकर अपने गांव लौट आए. 

श्रीमती और श्री शारिक  बिन रज़ा

ये इतना आसान काम नहीं था मगर दिल में अपनी विरासत के प्रति गहरे जुड़ाव ने रज़ा परिवार को ये काम शुरू करने का हौसला दिया. फिर शुरू हुई तेरह बरसों तक चलने वाली पुननिर्माण की लंबी कहानी जिसमें अपनी यादों से गर्द को हटाते हुए पूरी हवेली को फिर से खड़ा करने की जि़द और ज़द्दोज़हद शामिल थी. इस काम में उनके सिविल इंजीनियर भाई ने बहुत मदद की. 

मगर यहां एक खास बात थी कि हवेली के बरसों तक चलने वाले पेचीदा काम के लिए रज़ा परिवार ने किसी आर्किटेक्‍ट की मदद नहीं ली. उन्‍होंने आस-पास के उन्‍हीं मिस्त्रियों, मज़दूरों और कारपेंटरों की मदद ली जिन्‍हें पहले से इस तरह के काम करने का अनुभव था. इसकी ख़ास वज़ह थी. इससे जहां हवेली के रूप को नकलीपन से बचाया जा सका वहीं आस-पास के लोगों को बरसों तक रोज़गार भी मिला और धीरे-धीरे लोगों का हवेली से जुड़ाव भी हुआ. 

इसके अलावा राजस्‍थान से पत्‍थरों को काटने वाले कारीगरों ने भी तक़रीबन सात सालों तक यहां रहकर काम किया. मगर उनके लिए शर्त ये थी कि हवेली पर राजस्‍थानी प्रभाव नज़र नहीं आना चाहिए. मगर ये काम सुनने में जितना आसान लगता है उतना ही टेढ़ा था. मिस्‍त्री भी इस काम को पूरे दिलो-जान से कर रहे थे और रज़ा परिवार के साथ इतने घुल मिल गए थे कि मिस्‍त्री मिसेज रज़ा को बहू कहकर बुलाते. 

काम सप्‍ताह के सातों दिन और चौबीसों घंटे चलता. ए‍क समय लगभग 100 मिस्‍त्री, मज़दूर और कारीगर दिन-रात काम करते. कभी-कभी मिस्‍त्री नाराज़ हो जाते और काम छोड़ कर चले जाते. मग़र उनके हुनर के क़द्रदान रज़ा उन्‍हें किसी तरह मना कर बुलवा ही लेते और एक बार फिर गिले-शिक़ों को भुला कर शुरू हो जाता सपने को साकार करने का सफ़र. 

एक दफ़ा शारिक आगरा से एक बेहद ख़ूबसूरत पच्‍चीकारी किया हुआ पत्‍थर अपनी ख्‍़वाबगाह में लगवाने के लिए लेकर आए मगर मिस्त्रियों के हिसाब से इस पत्‍थर पर किया हुआ काम सही नहीं था. उन्‍हें इस पर फूल की डिजाइन में एक पत्‍ती ज्‍यादा नज़र आई सो कह दिया कि ये पत्‍थर ख्‍वाबगाह का हिस्‍सा नहीं हो सकता. मिस्त्रियों ने कह दिया तो कह दिया. अब लाख मान मनौव्‍वल हुई मगर पत्‍थर ख्‍वाबगाह में नहीं लगाया गया. जानते हैं उस पत्‍थर को आखिरकार कहां जगह मिली? उसे जगह मिली एक टॉयलेट में (तस्‍वीर देखें).

आइए मिलते हैं हवेली से 
रज़ा साहब से जब हमने पूछा कि इस हवेली को बनाने में कितना पैसा खर्च हुआ तो वे बस मु‍स्‍कुरा कर रह गए और कहा कि इसका हिसाब लगाने की उन्‍होंने कई बार कोशिश की मगर किसी ठीक अंदाज़े तक वो नहीं पहुंच पाए. निर्माण का काम जहां तेरह वर्षों तक चला वहीं हवेली की साज-सज्‍जा का काम और दो वर्षों तक चला. इसकी सजावट में रज़ा साहब की तमाम पोस्टिंग के दौरान उनके द्वारा इकट्ठी की गई तमाम बेशकीमती चीजों ने प्रमुख भूमिका निभाई है. अब ये हवली 2009 से शारिक रज़ा, उनकी लेखिका, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता पत्‍नी अलका रज़ा और उनके बेटे साहिल का घर है.
बर्मा लॉन्‍ज
हम लोग उस रोज़ हवेली के खास मेहमान थे सो हवेली से हमारा परिचय रज़ा परिवार के साथ बर्मा लॉन्‍ज में हाई-टी के दौर से शुरू हुआ. बर्मा लॉन्‍ज दरअसल हवेली का ड्राईंग रूम है और शारिक रज़ा की बर्मा पोस्टिंग के दौरान संजोई गई तमाम खूबसूरत चीजों का म्‍यूजियम है जिसमें तमाम एशियाई देशों से लाई गई हैंण्‍डीक्राफ्ट की वस्‍तुएं, सजावटी सामान, स्‍मृति चिन्‍ह, कीमती पत्‍थरों से बनी पेंटिंग, चियांगमाई से लाए गए चिडि़यों के पिंजरे आदि रखे हुए हैं. 

इसी लंबे-चौड़े लॉन्‍ज में एक दीवार पर रेस्‍टोरेशन की कहानी को बयां करती तस्‍वीरें हैं तो दूसरी ओर धातुओं के बेशकमती स्‍मृति चिन्‍ह. बार और पूल की टेबल भी एक कोने में सजी हैं. मतलब एक आरामदायक स्‍टेकेशन का पूरा इंतज़ाम. अब बारी थी हवेली को क़रीब से समझने की. रज़ा साहब ने एक-एक कर हवेली के कमरे दिखाने शुरू किए. ये हवेली के प्रतिबंधित हिस्‍से हैं जहां हवेली के मेहमान मेजबान के साथ ही प्रवेश कर सकते हैं.

हवेली के मुख्‍य कोर्टयार्ड में बर्मा लॉन्‍ज के ठीक सामने दूसरी ओर गोल्‍डन रूम है. इस हॉल में प्रवेश करते ही दुनिया जहान से लाई गई बेशकीमती चीजों से आंखें चुंधिया जाती है. इस कमरे में तमाम चीजों के बीच एक पालकी हमारा ध्‍यान अपनी ओर खींचती है. इस पालकी में ही शारिक रज़ा की मां विवाह के बाद घर आई थीं. 

इसी कमरे में एक ओर शारिक रज़ा और अलका रज़ा की एक़ खूबसूरत तस्‍वीर है. ये तस्‍वीर मिस्‍टर और मिसेज रज़ा की मुहब्‍बत की कहानी की गवाही दे रही है. ये राज़ भी खु़द मिसेज रज़ा ने खोला था कि इन दोनों की मुलाक़ात दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में हुई थी जहां कानपुर की अलका रशियन लैंग्‍वेज में ग्रेजुएट स्‍तर का कोर्स कर रही थीं और काठा के शारिक लॉ पढ़ रहे थे. बकौल अलका शुरुआत में उन्‍हें लगा था कि शारिक कोई अफ़गान रिफ्यूजी हैं. धीरे-धीरे परिचय मुलाक़ातों और मुलाक़ातें मुहब्‍बत में बदल गईं और ये सिलसिला 8 सालों तक चलता रहा. आखिरकार दोनों ने दो अलग धर्मों के बावजूद एक होने का फैसला किया. उस दौर में ये आसान काम कतई नहीं था मगर वक्‍़त के साथ सब सांचे में ढ़लता चला गया. बाद में अलका रज़ा ने पत्रकारिता की दुनिया को अपना लिया और वॉर कोरेसपोंडेंट के रूप में भी तमाम देशों में काम किया. अरे ये क्‍या ! हम तो अफ़साने की गलियों में खो गए. चलिए वापिस कमरों के मुआयने पर लौटते हैं.

क्रिस्‍टल रूम
इसी गोल्‍डन हॉल से एक रास्‍ता क्रिस्‍टल रूम में खुलता है. ये फिरोज़ी रंग की दीवारों और कांच की खूबसूरत कारीगरी से दमकता डाइनिंग हॉल है जहां खास मेहमानों को दावत दी जाती है. कुछ इसी तरह का एक कक्ष मैंने राष्‍ट्रपति भवन में देखा था जहां राष्‍ट्रपति अपने मेहमानों को भोज देते हैं. यहां का अंदाज़ भी कुछ इसी तरह का है. हां, इस कमरे में दीवारें बड़ी-बड़ी पेंटिंग्‍स से नहीं भरी हैं. मग़र दीवारें यहां भी खाली नहीं हैं. शाकिर जब इस कमरे से परिचय करा रहे थे तो मेरी नज़र दांई ओर की दीवार पर ठहर गई. यहां दुनिया के तमाम देशों और शहरों की स्मृतियों को उन जगहों से लाई गई चम्मचों के संग्रह के ज़रिए जिंदा रखा जा रहा है. छोटी-छोटी बेहद खूबसूरत कई दर्जन चम्‍मचें उन देशों के प्रतीकों के साथ यहां मौजूद हैं। है न खूबसूरत तरीका अपनी यादों को संजो कर रखने का !

यहां से निकल कर हम अंदर वाले कोर्टयार्ड में पहुंच चुके थे. इसी कोर्टयार्ड में एक दरवाज़ा यूरो रूम में खुलता है. इस कमरे में यूरोप में पोस्टिंग के दौरान खरीदी और इकट्ठा की गई चीजें शामिल हैं. जिनमें तमाम खूबसूरत फर्नीचर, तस्‍वीरें और सजावटी सामान शामिल हैं. यूरो रूम से ही एक दरवाज़ा दूसरे कमरे में खुलता है. ये जजेज रूम था. अब काजियों की हवेली में ऐसा एक कमरा होना स्‍वाभाविक ही था. छोटा मग़र आकर्षक इंटीरियर जिसकी छतों में बर्मा टीक की लकड़ी की इंटें बरगों के ऊपर लगाई गई हैं. मगर लगता ही नहीं कि छत में ईंटों का प्रयोग हुआ है. इसे बनाने वालों का हुनर ही कहा जाएगा कि इस छत से कभी पानी लीक नहीं हुआ. शारिक बता रहे थे कि ये कमरा हवेली के तमाम कमरों की तुलना में थोड़ी बेहतर हालत में उन्‍हें मिला था. सो उसमें से जो भी बचा सके उसे हवेली के पुननिर्माण में काम में लेने की कोशिश की गई.

एक सिगार पीने के लिए माफि़क कमरे की झलक देने वाला टी-रूम है जहां जहां बैठकर घंटों सिगार के कश भरते हुए बहस-मुबाहिसे किए जा सकते हैं. मगर क्‍योंकि ये टी-रूम है सो चाय पर चर्चाओं से किसने मना किया है. इसी कमरे के पास से एक दरवाज़ा बाग़-ए-बहिश्‍त यानि कि Garden of Heavens में खुलता है. इस वक्‍़त रात हो चुकी थी. मगर वाक़ई यहां पेड़ों और पौधों के बीच शांति में स्‍वर्ग का ही अहसास हो रहा था. शारिक साहब और हम लोग देर तक बाग़ में खड़े होकर हवेली के रेस्‍टोरेशन और निर्माण के दिलचस्‍प किस्‍सों को सुनते रहे. यहां हर बात एक अफ़साना थी. शाकि़र अगले रोज़ ग़ज़ल रूम और ड्राईंग रूम से परिचय कराने का वायदा कर लौट गए और हम सब भी अपनी-अपनी ख्‍वाबगाहों में लौट आए.

मेहमानों के खास 6 कमरे
इस वक्‍त हवेली के कुल 6 कमरे मेहमानों के लिए खोले गए हैं जहां आप आकर ठहर सकते हैं. इनमें मुख्‍य कोर्टयार्ड में प्रिंसेस रूम है और ऊपर पहली मंजिल पर अफ्रीका लॉन्‍ज में खुलने वाले राइडर्स रूम और हंटर रूम. आपको बर्मा लॉंज याद होगा. ये अफ्रीका लॉन्‍ज ठीक बर्मा लॉन्‍ज के ऊपर ही है. इसी मंजिल पर पीकॉक रूम और पर्ल रूम भी मौजूद हैं. मिसेज रज़ा ने हम सब मेहमानों को अपने कमरे चुनने की पूरी आज़ादी दे दी थी और मेरा दिल पीकॉक रूम पर जाकर ठहर गया.

इस कमरे में अंदर दीवारों पर गहरा इंडिगो रंग और दीवारों पर उभरी डिजाइनों में चटख लाल, पीला और सुनहरा रंग आस-पास मोर की मौजूदगी का अहसास कराते हैं. हर छोटी-छोटी चीज का बारीकी से ख्‍याल रखा गया है. अब कमरे में से एक और बेहद खूबसूरत दरवाजा नज़र आ रहा था. ये कमरे से अटैच बाथरूम था जो कमरे की साज-सज्‍जा के अनुरूप ही था.

हंटर्स रूम
तमाम कमरों की लंबी यात्रा के बाद भूख लग चुकी थी. कोर्टयार्ड में टेबल लग चुकी थी और टेबल पर मुग़लिया दौर से पहले के समय का भोजन हमारा इंतज़ार कर रहा था. मुग़लिया दौर से पहले का इसलिए क्‍योंकि इसमें पिसे मसालों की जगह खड़े मसालों का ही प्रयोग किया गया था. एकदम घरेलू और लजीज़ खाने के बाद तय कार्यक्रम के अनुसार योगा एक्‍सपर्ट रितु सुशीला कृष्‍णन लाइफ स्‍टाइल करेक्‍शन पर चर्चा करने वाली थीं सो पूरी मंडली बर्मा लॉन्‍ज में आ जमी. मगर हम अभी योग की उस दुनिया में प्रवेश नहीं करेंगे. इस रात की योग पर चर्चा और अगली सुबह योग के ण्‍क शानदार सत्र के बारे में हम अगली पोस्‍ट में बात करेंगे.

ज़रा देखें कैसे बनता था मुग़लों से पहले खाना

चलिए कुछ मीठा हो जाए

नाम शिक़वा हवेलीही क्‍यों ?
जानते हैं शिक़वा हवेली का नाम शिक़वाक्‍यों रखा गया? इसकी भी एक कहानी है. दरअसल बचपन में शारिक की शिकायतों और शिक़वों का कोई अंत नहीं था. वे कभी इसकी तो कभी उसकी शिकायतें अपनी मां से करते रहते. सो उनकी अम्‍मी प्‍यार से उन्‍हें शिक़वा मियां कहकर बुलाने लगीं. जिसे अब तक काजियों की हवेली के नाम से जाना जाता था वो अब इन मासूम से शिक़वों के कारण शिक़वा हवेली हो गई है. 

अब तक मेरे ज़ेहन में एक सवाल बार-बार उठ रहा था कि दुनियां की तमाम रौनकें और आला दर्जे की नौकरी के अनुभवों को सीने में संजोए ये परिवार शहरी सभ्‍यता से दूर इस गांव में कैसे अपनी जिंदगी बिता रहा है? गांव की छोटी और सीधी सी दुनिया इनकी पुरानी दुनिया और समाज से काफ़ी अलग है. इसका जवाब मुस्‍कुराते हुए खुद शारिक देते हैं कि, ‘हमें समाज को ढूंढने की ज़रूरत नहीं पड़ती. जब-तब समाज ही उठ कर हवेली तक आ जाता है. जैसे आप लोग आए हैं ऐसे ही तमाम लोग यहां आते हैं. हम नए लोगों से मिलते हैं और उनसे बातें करते हैं जिंदगी सुकून और चैन से गुज़रती है. और जब ज़रूरत होती है तो दिल्‍ली तो दरवाज़े पर खड़ी ही है’.

यही नहीं रज़ा परिवार द्वारा गांव में किए जा रहे सामाजिक कामों की लंबी फेहरिस्‍त है जिसमें लड़कियों के लिए शौचालयों का निर्माण, मेडिकल कैंप का आयोजन, ज़रूरतमंद औरतों को कानूनी मदद, लड़कियों के लिए सिलाई प्रशिक्षण, ब्‍यूटी पार्लर का प्रशिक्षण, गावं के बच्‍चों के लिए होमवर्क सपोर्ट प्रोग्राम आदि. मिसेज रज़ा का कहना था कि सिलाई का प्रशिक्षण लड़कियों के लिए बहुत ज़रूरी है क्‍योंकि अगर किसी लड़की को कुछ न आता हो मगर सिलाई आती हो तो वो जिंदगी के थपेड़ों को झेल जाएगी. पिछले आठ सालों में गांव की महिलाओं और लड़कियों ने धीरे-धीरे बाहर निकलना शुरू किया और गांव में धीरे-धीरे पर्दा कम होना शुरू हो गया है. गांव की औरतें आज भी सलाह और मशविरे के लिए हवेली आती हैं. 

कपड़ों की जादूगरी और महिलाओं का सशक्तिकरण

इसके अलावा हवेली की बैठक गांव की कुछ महिलाओं और लड़कियों को हाथ से कपड़े तैयार करने की जगह देती है जहां हवेली में आने वाले मेहमान इन खूबसूरत मेजपोश, टेबल स्‍प्रेड, बेड स्‍प्रेड, कुशन, चादरों, रुमालों आदि को खरीद सकते हैं. यही नहीं अलका जी समय-समय पर इन महिलाओं को दिल्‍ली में यूएन और ब्रिटिश स्‍कूल में उनके सामानों की बिक्री के लिए ले जाती हैं. आखिरी दिन हवेली छोड़ने से पहले हमने हवेली के इस कमरे को भी नज़र किया. यहां बरामदे में गांव के बच्‍चों को पढ़ाने का काम चल रहा था तो अंदर रंग-बिरंगे कपड़ों की दुनिया सजी थी. मैं हैरान था कि एक इंसान एक साथ आखिर कितने काम कर सकता है. ये हवेली सही मायनों में गांव का सहायता केंद्र बन गई है. मैं भी याद के तौर पर अपने घर के लिए कुछ कुशन और टेबल स्‍प्रेड खरीद कर लाया हूं जो मुझे हमेशा काठा की इस हवली की याद दिलाते रहेंगे.
होमवर्क सपोर्ट प्रोग्राम

क्‍या आप कुछ वक्‍़त गुज़ारना चाहेंगे शिक़वा के आगोश में ?
यदि आप भी शहरों के बहरा कर देने वाले शोर से दूर सुकून भरा कुछ वक्‍़त गुज़ारना चाहते हैं तो दिल्‍ली की सरहद के पार ये हवेली आपका इंतज़ार कर रही है. मग़र हवेली की एक शर्त है. आपको समझना होगा कि ये होटल नहीं है जहां सब कुछ हमारी मर्जी के मुताबिक ही मिलेगा और हो-हल्‍लड़ की आजादी होगी. याद रखिए कि ये किसी का घर भी है इसीलिए इसे होमस्‍टे कहा गया है. और ये कोई मामूली घर नहीं है इसलिए अपने मेहमानों से भी थोड़ी सी संजीदगी की अपेक्षा रखता  है. यहां आने का कार्यक्रम बनाने से पहले कुछ बातों को तोल लें. यहां इंटरनेट के सिग्‍नल आते हैं मगर कमज़ोर हैं. यहां न किसी कमरे में टी.वी. है और न ही हवेली के आस-पास कोई और देखने लायक जगह. बस हवेली के अंदर की दुनिया है. बेहतर हो चार-छह लोग एक साथ यहां का कार्यक्रम बनाएं. फिर अलग ही मज़ा होगा. 

यदि आप रज़ा परिवार की इस मेहनत और उनके सपनों के इस घर को समझने के लिए यहां रुकना चाहते हैं तो आप shikwakatha@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।


कुछ और तस्‍वीरों के ज‍़़‍रिए सैर करिये हवेली की  
शाकिर रज़ा और उनके सिविल इंजीनियर भाई

हर चीज हैरत से भरी है...ज़रा बताइए कि वो क्‍या है 

अफ्रीका लॉन्‍ज 

टी-रूम की कहानी रज़ा साहब की जुबानी

इनर कोर्टयार्ड

काठा की बिरयानी 

और ये था किंग्‍स रूम यानि कि मेरा कमरा

मेरे कमरे से अटैच बाथरूम 


शाम-ए-शिक़वा

अब कैसे न हैरान हो जाएं इस दरवाजे की खूबसूरती पर 

और हम यहीं अटक कर रह गए

नोट: यह यात्रा अक्‍तूबर, 2018 में की गई थी। 

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