योगा रिट्रीट @ शिक़वा हवेली
जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट Shikwa Haveli: A Story of
Restoration, Reconstruction and Rebirth में जि़क्र किया था कि शिक़वा
हवेली में हमारे ठहरने के कार्यक्रम में योग सबसे प्रमुख हिस्सा था. सो पहली रात
बर्मा लॉन्ज में हम मित्रों की मंडली ग्रीन टी के साथ आ जमी. यहां योगा एक्सपर्ट
रितु सुशीला कृष्णन से स्वास्थ्य के अर्थ, जीवन में व्यायाम
और योग के महत्व और जीवन शैली में सुधार जैसे विषयों पर पर विस्तार से चर्चा
हुई. यहीं पता लगा कि जैसे शारीरिक स्वास्थय सिर्फ एक तरह का स्वास्थ्य है
उसी तरह मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक स्वास्थ्य जैसे
8 और रूप होते हैं स्वास्थ्य के. और यहां हमें अकेले शारीरिक स्वास्थ्य की
भी परवाह नहीं होती है. हमारी-आपकी रोज़मर्रा की
ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में स्वास्थ्य, एक्सरसाइज और
योगा जैसे शब्द तब एंट्री मारते हैं जब शरीर का कोई अंग बेवफाई करने लगता है.
उससे पहले हमें कहां ये सब याद आता है. कोई स्वस्थ रहते ही इन सबका ख्याल रखे
तो उसे योगी ही कहा जाना चाहिए. आम तौर पर हमें स्वास्थ्य
की फ़िक्र तब होनी शुरू होती है जब मेडिकल
टेस्ट में हम बीपी, शुगर,
कोलेस्ट्रॉल की सेहतमंद दहलीज़ों को या तो लांघ चुके होते हैं या उस
दहलीज़ को बस पार करने ही वाले हों.
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योगा एक्सपर्ट रितु बीच में |
इस हवेली की मेहमाननवाज़ी को भी मैंने खास इसीलिए कुबूल किया था कि 700 साल पुरानी हवेली के तिलिस्म को समझने के बहाने
योग के भी थोड़ा करीब पहुंचने का अवसर मिलेगा. पहले
तय हुआ था कि अगली सुबह योग सत्र हवेली के कोर्टयार्ड में होगा लेकिन हवेली की छत
से चारों तऱफ के विहंगम दृश्यों और खूबसूरत बारादरी ने छत पर ही खींच लिया. सो
अगली सुबह हम सभी ब्लॉगर और लेखक मित्र हवेली की छत पर उगते सूरज की नज़रों में योग, प्राणायम के तमाम गुर गुरू बन चुकी रितु से सीख रहे थे.
शिक़वा की तो सुबह भी बहुत
खूबसूरत है. हवेली की छत पर बनी बारादरी से जहां पहली शाम यमुना नदी के किनारे
ढ़लते सूरज का अद्भुत दृश्य देखा था वहीं अब हवेली से सटी मस्जिद के गुंबदों से
उगते सूरज का सुंदर रूप देख कर हम उस दृश्य को कैमरों में कैद करने दौड़ पड़े.
देखिए न सूरज, चांद, सितारे, नदियां, पहाड़ कहां मजहबों का फ़र्क करते हैं. वे तो
सभी जगह एक सा प्यार लुटाते हैं. और काठा के इस गांव की हवा भी कहां कभी मज़हबी
हुई है. मस्जिद का लाउडस्प्ाीकर हिंदू और मुस्लिम में बिना किसी फ़़र्क के हर
तरह की मुनादियां करता है. काठा के बारे में बताते हुए
मिसेज रज़ा बताती हैं कि ये गांव गंगा-जमुनी तहज़ीब का अनुपम उदाहरण है. पिछले
सालों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए दंगों के समय भी इस गांव के लोगों ने
आपसी भाईचारा बनाए रखा और गांव में कभी दंगा-फसाद नहीं हुआ. मुज़फ़फ़रनगर के दंगों
के वक़्त गांव के हिन्दू परिवार के लोगों ने हवेली और गांव के बाकी मुस्लिम
परिवारों की रक्षा के लिए रात में हवेली में पहरा तक दिया. उन्होंने कहा कि पहले
हमें मारोगे तब इन्हें हाथ लगाने देंगे. हो भी क्यों न. ये परिवार भी गांव के
लोगों से उतनी ही मुहब्बत जो करता है. गांव के तमाम लोगों को जहां इसके निर्माण
के समय रोज़गार मिला वहीं आज भी गांव के तमाम लोग हवेली में काम कर रहे हैं.
इस गांव काठा का इतिहास भी कम दिलचस्प नहीं है.
दरअसल बागपत उत्तरप्रदेश का एक जिला है और
काठा गांव इसी इलाके में है. इसीलिए पिछली शाम शारिक़ रज़ा साहब ने सबसे पहले बाग़पत
और काठा से ही हमारा परिचय कराया था. ये जानना बड़ा दिलचस्प था कि बाग़पत
का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा है. जब कौरवों और पांडवों के बीच पांच गांवों का
समझौता हुआ तो उसमें जो पांच गांव पांडवों को दिए गए थे उनमें पानीपत, सोनीपत, मारीपत और इंद्रप्रस्थ
के साथ बाग़पत भी एक था. महाभारत काल में
बागपत को व्याघ्रप्रस्थ कहा जाता था क्योंकि इस इलाके में बाघ बहुत होते
थे. बस जहां बाघ के पैर पड़ते हों वो हो गया बागपत. इसी
जगह को मुगलकाल से बागपत के नाम से जाना जाने लगा. बागपत ही वह जगह है, जहां कौरवों ने लाक्षागृह बनवाकर उसमें पांडवों को जलाने
की कोशिश की थी.
हां, तो हम कहां थे ?
हम हवेली की छत पर योगा कर रहे थे.
अब तक हम लोगों के योगा मैट जमीन पर तैयार थे और
योगा का सत्र शुरू हुआ. जिसमें पहले हल्की वॉर्म अप एक्सरसाइज और फिर तमाम योग
मुद्राएं शामिल थीं. कुछ ही पलों में शरीर के सारे
नट बोल्ट खुलने शुरू हो गए और अगले दो घण्टे में तमाम योग मुद्राओं और योग में
सांस के खेल का अभ्यास किया. अब तक सूरज सिर पर चढ़ आया था मग़र योग का नशा कहाँ उतर
था अभी सो अब मण्डली अपने मैट उठा कर ग्राउंड फ्लोर पर ख़ूबसूरत
"बाग़-ए-बहिश्त" में आ जमी. और अलका रज़ा जी के कैमरे के आगे कुछ असली और
नकली पोज़ भी दिए. सारा दिन कुर्सी पर जमे रहने की नौकरी का सिला ये था कि कुछ
मुद्राओं में हाथ और पैर वहां तक नहीं जा पा रहे थे जहां तक उन्हें पहुंचना चाहिए
था. जाएंगे कैसे? हमने शरीर को तक़लीफ़ देनी ही जो बन्द कर दी है.
और इधर इस देह की फ़ितरत ही कुछ ऐसी है कि जितना कष्ट देंगे उतना मजबूत बनेगी. दरअसल
हम लोग जानते सब कुछ हैं लेकिन अमल में तब तक नहीं लाते जब तक संकट की घण्टी न
बजने लग जाए. इस तरह की योगा रिट्रीट मुझ जैसे शख़्स को एक बार फिर से मैट पर लाकर
खड़ा कर देने के लिए काफ़ी थी. उम्मीद है कि इस योगा रिट्रीट से हासिल किए सबक अगली
किसी योगा रिट्रीट तक इस देह को योग के क़रीब ले जाने में सफ़ल रहेंगे. आपको योग के
क़रीब पहुंचने का कोई मौक़ा मिले तो छोड़िएगा नहीं !
नोट: यह यात्रा अक्तूबर, 2018 में की गई थी।
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