कुछ घटनाएं देश की सामूहिक
चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ जाती हैं. जलियांवाला बाग का नरसंहार भी एक ऐसी ही घटना
थी जिसने न केवल पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया था बल्कि पूरी दुनिया के सामने
ब्रिटिश हुकूमत के निकृष्टतम रूप को उजागर कर दिया था. समय का पहिया घूम कर 13
अप्रैल, 2019 को ठीक सौ साल बाद उसी जगह आ
पहुंचा है जहां इस दर्दनाक घटना ने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा और दशा दोनों को
बदल कर रख दिया था. अमृतसर में अब तक बहुत कुछ बदल चुका है मगर जलियांवाला बाग (Jallianwala bagh) की दीवारों पर आज भी गोलियों के निशान बाकी हैं जो इतिहास की इस वीभत्स घटना की
गवाही दे रहे हैं. मैंने आज से तकरीबन तीन साल पहले पहली बार जलियांवाला बाग को देखा
और महसूस किया था. इत्तेफ़ाक से चंद रोज़ पहले एक बार फिर अमृतसर आना हुआ और मैं
जलियांवाला बाग से लगती एक गली के होटल में ठहरा था. उस रोज़ भी अमृतसर में नींद
जल्दी खुल गई तो सुबह की सैर के लिए मैं जलियांवाला बाग ही आ पहुंचा. बाग में
घूमते हुए ही मुझे अचानक इस बात का ख़्याल आया कि इस 13 अप्रैल को इस घटना को ठीक
100 बरस हो जाएंगे. मैं अचानक से उस घटना को और करीब से महसूस करने लगा था.
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Statue of Shaheed Udham Singh at Jallianwala Bagh |
दरअसल जलियांवाला बाग की घटना को समझने के लिए हमें आज से
100 साल पहले उन दिनों अमृतसर और इसके आस-पास के इलाके में घट रही घटनाओं को समझना
पड़ेगा. ये वो वक़्त था जब गांधी जी चंपारन, अहमदाबाद और खेड़ा में अपने सफल सत्याग्रह से उत्साहित थे और फरवरी,
1919 में उन्होंने अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रस्तावित रॉलेट एक्ट
के खिलाफ देशव्यापी विरोध का आवाहन किया था. रॉलेट बिल वास्तव में आतंकवादी
घटनाओं पर रोक लगाने की आड़ में भारतीयों की नागरिक स्वतंत्रता पर बंदिशें लगाने
वाला कानून था और चुने हुए प्रतिनिधियों के विरोध के बावजूद जल्दबाज़ी में विधान
परिषद में प्रस्तुत कर दिया गया था. पूरे देश को सरकार की ये हिमाक़त भारतीय जनता
का अपमान लग रही थी और ये भी एक ऐसे वक़्त में जब विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद
यहां की जनता ब्रिटिश सरकार से कुछ संवैधानिक रिआयतों की उम्मीद कर रही थी.
राजनेताओं के विरोध के संवैधानिक तौर-तरीके विफल हुए तो गांधी जी ने सत्याग्रह का
प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव का होम रूल लीग के लोगों ने समर्थन किया और
गांधी जी के साथ आ गए. अब रातों रात होम रूल लीग के लोगों से संपर्क साधा जाने लगा
और तय किया गया कि एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल की जाएगी और उपवास और प्रार्थनाएं
की जाएंगी. और ये भी तय किया गया कि कुछ खास कानूनों के विरोध में सविनय अवज्ञा भी
की जाएगी. सत्याग्रह के लिए 6 अप्रैल का दिन तय किया गया मगर देश में इससे पहले
ही आंदोलन छिड़ गया और जगह-जगह हिंसा भी होने लगी. पंजाब तो पहले ही अंग्रेजी जुल्मों
का शिकार था. अमृतसर और लाहौर में विरोध बहुत तीखा हुआ जिसने ब्रिटिश सरकार को डरा
दिया. गांधी जी ने खुद पंजाब जाकर इस आग को शांत करने की कोशिश की लेकिन सरकार ने
गांधी जी को जबरन मुंबई भेज दिया. वहां पहले ही आग लगी थी सो उन्होंने वहीं रहकर
लोगों को शांत करने का फैसला किया.
पंजाब के हालात लगातार बिगड़ रहे थे और अमृतसर में 10
अप्रैल को दो राष्ट्रीय नेताओं डाॅ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी
के बाद टाउन हॉल और पोस्ट ऑफिस पर हमला किया गया, टेलीग्राफ की लाइनें काट दी गईं और कुछ
यूरोपियन लोगों पर भी हमला हुआ. अब सरकार ने फौज़ को बुलाया और शहर की कमान जनरल
डायर के हाथों में सौंप दी गई. कुछ इतिहासकार बताते हैं कि जनरल डायर ने शहर
भर के लिए तकरीबन 21 आदेश जारी किए थे जिसमें एक जगह चार से ज्यादा लोगों का
इकट्ठा न होना भी शामिल था लेकिन ये आदेश लोगों तक ठीक से नहीं पहुंचे. 13 अप्रैल
को रविवार के दिन ही डायर ने किसी भी तरह की सभा के आयोजन को भी प्रतिबंधित करने का आदेश
जारी किया लेकिन ये आदेश भी लोगों तक नहीं पहुंच सका. हर बार की तरह बैसाखी के दिन
(13 अप्रैल) अमृतसर के आस-पास के इलाकों से लोग बैसाखी मनाने अमृतसर आ पहुंचे और
अपने नेताओं की गिरफ्तारी के प्रति विरोध जताने के लिए जलियांवाला बाग में बुलाई गई
एक शांतिपूर्ण सार्वजनिक सभा में शरीक़ होने लगे.
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जलियांवाला तब. स्त्रोत: विकीपीडिया |
दीवारों पर लगे गोलियों के निशान |
जलियांवाला
बाग असल में एक 6 से 7 एकड़ का खुला मैदान था
जिसके चारों तरफ तकरीबन 10 फुट ऊंची दीवारें थीं. इस बाग में प्रवेश के लिए चार-पांच रास्ते थे लेकिन
ज्यादातर पर ताला लगा हुआ था. बीच में एक कुआं और एक समाधी. उस रोज़ अमृतसर में व्यापारियों का पशुओं की खरीद एक मेला भी लगा हुआ था
जो दोपहर दो बजे तक खत्म हो गया. लोग रास्ते में जलियांवाला से होकर गुज़रने
लगे. हजारों लोग पास ही हरमंदिर साहब से दर्शन करके लौटते हुए यहां आ पहुंचे. उधर
जनरल डायर को लगा कि लोग उसके आदेश की जानबूझकर अवमानना कर रहे हैं. डायर ने बाग
के ऊपर से हवाई जहाज भेज कर पता लगाया कि यहां तकरीबन 6,000 लोग जमा हो चुके हैं. बाद में हंटर
कमीशन ने ये आंकड़ा 20,000 तक बताया था. बस फिर क्या था
जनरल डायर ने 29वें गोरखा, 54सिख और 59सिंध राइफल्स के 303
ली एनफील्ड राइफलों वाले कुल 90 सिख, बलूची और राजपूत
जवानों के साथ जलियांवाला बाग में प्रवेश
किया और बाग में प्रवेश और निकलने के एक मात्र रास्ते को घेर कर निहत्थे लोगों
पर पूरे दस मिनट तक गोलियां बरसाईं. जनरल ने लोगों को बाग खाली करने की कोई
चेतावनी भी नहीं दी. बाद में खुद डायर ने अपने बयान में कुबूला था कि उसका मक़सद
बाग को खाली करना नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों को सबक सिखाना था. गोलियां तब तक
चलती रहीं जब तक असलाह खत्म नहीं हो गया. लोग जिधर जान बचाने के लिए भागते उधर ही
गोलियां बरसाई जातीं. बच्चों, बूढ़े और जवान सबकी लाशें बिछने लगीं. कुछ ही लोग दीवार फांद पाए. ऐसे ही कुछ लोगों ने बाद में वहां का मंज़र बयां किया. लोग जान बचाने के लिए कुंए में भी कूद गए. बाद में उस कुंए
से 120 लाशें निकलीं. जो लोग गोलियों से जख़्मी हुए वे बाद में भी बाग से बाहर
नहीं निकल सके. क्योंकि रात में पूरे शहर में करफ्यू लगा दिया गया था. शहर का पानी और लाइट काट दिए गए. सरकार ने एलान कर दिया था कि जो लोग बाग़ में थे उन्होंने सरकार से गद्दारी की है. अब लोग कैसे बताते कि उनका कौन सगा-सम्बन्धी बाग में मर रहा है. उधर लोगों को बाग में जाने की मनाही थी सो घायलों को भी बाहर नहीं निकाला जा सका. इससे मरने वालों की संख्या में और इज़ाफ़ा हुआ. लोग मरते रहे और बेरहम डायर तमाशा देखता रहा. बताया जाता
है कि डायर मशीनगन जैसे हथियारों से लैस दो मोटर गाडियां भी साथ लाया था जो बाग के
संकरे रास्ते के कारण अंदर नहीं पहुंच सकीं. खुद जनरल डायर के बयान के मुताबिक उस
रोज़ जलियांवाला में 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं. उस समय की ब्रिटिश सरकार के
रिकॉर्ड के अनुसार कुल 379 लोग मारे गए और लगभग 1100 लोग जख़्मी हुए जबकि इंडियन
नेशनल कांग्रेस ने मरने वालों की संख्या लगभग 1,000 और जख्मियों की संख्या 1500 बताई थी.
इस नृशंसता ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था और उधर लंदन में हाउस ऑफ लॉर्ड्स
से शुरूआत में जनरल डायर को मिली तारीफ़ ने आग में घी का काम किया और इस आक्रोश की
परिणति 1920-22 के असहयोग आंदोलन में हुई.
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जहां से लोगों पर गोलियां चलाई गईं |
लेकिन जुलाई, 1920 में हाउस ऑफ कॉमन्स ने जनरल डायर की निंदा की और उसे जबरन सेवानिवृत कराया
गया. रबिंद्रनाथ टैगोर इस हत्याकांड से इतने व्यथित हुए कि उन्होंने अपनी
नाइटहुड की उपाधी लौटाते हुए लिखा कि "such mass murderers
aren't worthy of giving any title to anyone". इस हत्याकांड के तीन महीने बाद जुलाई, 1919 में अधिकारियों ने मरने वाले लोगों की
ठीक पहचान के लिए स्थानीय लोगों की मदद मांगी. लेकिन इन हालातों में कौन सच
बताता. ऐसे में मरने वालों के संबंधियों की पहचान जाहिर होने का खतरा था. उधर
पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ने जनरल डायर की करतूत का समर्थन किया और
शाबासी दी.
इस घटना के बाद भारतीयों ने अपने-अपने तरीकों से ब्रिटिश
सरकार को चोट पहुंचानी शुरू कर दी. ब्रिटिश सरकार के तमाम चहेतों ने सरकार से अपना
नाता तोड़ लिया और दूसरी तरफ क्रांतिकारी इस हत्याकांड का बदला लेने की योजना
बनाने लगे. इस हत्याकांड के गवाह और इस घटना में खुद जख़्मी होने वाले सुनाम के रहने वाले उधम
सिंह के दिल में ये आग बरसों धधकती रही. जनरल डायर की 1927 में मृत्यु हो
चुकी थी. उधम सिंह का मानना था कि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे पंजाब का तत्कालीन लेफ्टिनेंट
गवर्नर माइकल ओ डायर ही है. सो उधम सिंह मौके की तलाश करते रहे और अपने
इरादे को अमलीजामा पहनाने के लिए लंदन तक जा पहुंचे. आखिरकार, 13 मार्च, 1940 को
ऊधम सिंह ने लंदन के कैक्सटन हॉल में गोली मार कर माइकल ओ डायर की हत्या कर दी.
इस घटना के बाद का घटनाक्रम भी बड़ा दिलचस्प था. दुनिया भर के अखबारों ने इस घटना
को छापा और ऊधम सिंह के कृत्य को उचित ठहराया. ऊधम सिंह को 31 जुलाई, 1940
को फांसी दे दी गई. उस समय पंडित नेहरू और गांधी जी ने इस हत्याकांड
की निंदा की. लेकिन बाद में 1952 में पंडित जवाहर लाल नेहरू (तत्कालीन
प्रधानमंत्री) ने ऊधम सिंह को शहीद का दर्जा दिया और कहा,
‘I salute Shaheed-i-Azam Udham Singh with reverence who had
kissed the noose so that we may be free’
आज इस घटना को
100 वर्ष बीत गए हैं लेकिन हिंदुस्तान की जनता के दिलों में ये ज़ख्म आज भी
ताज़ा है. जिन परिवारों के लोग इस घटना में शहीद हो गए वो कैसे इसे भुला सकते हैं.
अबकी अमृतसर यात्रा में मैंने जलियांवाला बाग में एक परिवर्तन देखा था. बाग के
मुख्य द्वार के नज़दीक जिस दीवार पर जलियांवाला बाग लिखा होता था वहां अब शहीद
उधम सिंह की प्रतिमा भी लगाई गई है. शहीद उधम सिंह के बिना जलियांवाला का इतिहास
अधूरा ही था. उधर इस घटना के बाद से लगातार ये मांग उठती रही है कि
ब्रिटिश सरकार इस घटना के लिए आधिकारिक रूप से माफ़ी मांगे. लेकिन ऐसा आज तक नहीं
हुआ है. हांलाकि 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपनी भारत यात्रा
के दौरान कहा था,
"A deeply
shameful event in British history, one that Winston Churchill rightly described
at that time as monstrous. We must never forget what happened here and we must
ensure that the UK stands up for the right of peaceful
protests”
लेकिन माफी शब्द
यहां भी नहीं था. इस हत्याकांड के 100वें वर्ष में ये घटना एक बार फिर हमारे जख्मों को कुरेद रही है और दुनिया भर से लंदन पर इस घटना के लिए माफी मांगने का दबाव बनाया जा रहा है, लेकिन ब्रिटिश सरकार शायद अभी तक इस घटना के लिए अपने दोष को स्वीकार नहीं करना चाहती. वर्तमान ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे का ताज़ा बयान आ चुका है,
“The tragedy of Jallianwala Bagh in 1919 is a shameful scar on British Indian history. As her majesty the Queen said before visiting Jallianwala Bagh in 1997, it is a distressing example of our past history with India”
इस बयान पर सिर्फ अफसोस किया जा सकता है. ब्रिटेन की माफी से इतिहास तो नहीं बदल जाएगा. लेकिन इतना ज़़रूर है कि हमारे जख़्म कुछ हद तक भर जाएंगे. जन अधिकारों और लोकतंत्र की दुहाई देने वाली ब्रिटेन की सरकार को जलियांवाला हत्याकांड के सौ वें वर्ष में आधिकारिक रूप
से माफी मांगने का ये अवसर नहीं गंवाना चाहिए.
सौरभ आर्य
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सौरभ आर्य, को यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्योंकि यात्राएं ईश्वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं.
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बहुत ही विस्तृत और बढ़िया जानकारी....
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया प्रतीक भाई :)
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