यायावरी yayavaree: चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा नाथु-ला पास: 1967 की एक भूली हुई कहानी | How Nathu-La Pass was saved from China in 1967

शनिवार, 15 अगस्त 2020

चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा नाथु-ला पास: 1967 की एक भूली हुई कहानी | How Nathu-La Pass was saved from China in 1967

चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा नाथु-ला पास: 1967 की एक भूली हुई कहानी

हम जब-जब आज़ादी का जश्‍न मनाते हैं तो हमें इस बात का बार-बार अहसास होता है कि इस आज़ादी को हासिल करने और इसे बनाए रखने के लिए हमारे वीर सपूतों ने अनगिनत बलिदान किए हैं. कुछ कहानियां हम जानते हैं और कुछ के बारे में हमें ज्‍यादा जानकारी नहीं है. इन दिनों चीन से लगती हमारी सीमाओं पर एक बार फिर भारी तनाव है, लद्दाख में सीमाओं की रक्षा करते हुए 20 जवान शहीद हो गए. इसके बाद भी लद्दाख से लेकर अरुणाचल की लगभग 3500 किलोमीटर लंबी वास्‍तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन का दुस्‍साहस जब-तब देखने को मिल रहा है और चीन हमारी सरहदों को हमारी ओर धकेलने की नापाक कोशिश में जुटा है. चीन बार-बार हमें 1962 का किस्‍सा तो याद दिलाता है मगर वो खुद 1967 में नाथु-ला के युद्ध में अपनी करारी शिकस्‍त की कहानी याद नहीं करना चाहता है जब हमारे बहादुर जवानों ने जान की बाजी लगा कर भी चीन की बड़ी फौज  धूल चटा दी थी.

चीन की बुरी नज़र तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में ही इस दर्रे पर पड़ चुकी थी और जब धमकियों और घुड़काने से बात नहीं बनी तो 1967 में चीन ने यहां बहाना खोजकर हमला ही बोल दिया. लेकिन भारतीय फ़ौज के शौर्य और बलिदान की बदौलत ये दर्रा आज भी भारत के पास है और सिक्किम की यात्रा करने वाले पर्यटक नाथु-ला पास पर स्थित भारत-चीन सीमा को देखने ज़रूर जाते हैं.

इत्‍तेफ़ाक से पिछले साल दिसंबर महीने के आखिरी सप्‍ताह में मैं नाथु-ला दर्रे तक होकर आया हूँ. ये दिसंबर, 2019 का आखि़री सप्‍ताह था. 27 दिसंबर, 2019 के उस रोज नाथु-ला पास पर भारी बर्फबारी और वहां फंसने वाले हजारों पर्यटकों के बीच मैं और मेरा परिवार भी था. सेनाके रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन में हमें वहां से सुरक्षित निकाले जाने के कारण नाथु-ला की उस यात्रा को हम लोग पूरी जिंदगी नहीं भूल पाएंगे.

Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
चीन से लगती सीमा पर नाथु-ला दर्रा

सामरिक दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है नाथु-ला

उस रोज़ नाथु-ला दर्रे की ओर बढ़ते हुए इस दर्रे के बारे में पढ़ी हुई बातें एक-एक कर दिमाग़ में घूम रही थीं. ये ख़ूबसूरत दर्रा सन 1967 में बस चीन के हाथों में जाते-जाते ही बचा था. 14,200 फीट की ऊंचाई पर मौजूद नाथु-ला दर्रा तिब्‍बत–सिक्किम सीमा पर स्थित है और यही वह जगह है जिससे होकर पुराना गंगटोक-यातुंग-ल्‍हासा व्‍यापार मार्ग गुज़रता है. इसे ओल्‍ड सिल्‍क रूट भी कहते हैं. गंगटोक छोड़ कर जैसे ही गाड़ी ने नाथु-ला की ओर जाने वाले रास्‍ते पर थर्ड माइल की चेक पोस्‍ट पार की, नज़ारा बदलने लगा. 

गंगटोक से लेकर नाथु-ला तक के पूरे रास्‍ते की पहचान माइल से ही होती है. ये फौज का अपना तरीका है रास्‍ते का प्रबंध करने का. अब आगे का पूरा इलाका सेना के नियंत्रण में था. इस पूरे रास्‍ते पर सेना की भारी मौजूदगी देखकर मेरे लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि ये इलाका सामरिक दृष्टि से भारत के लिए कितना महत्‍वपूर्ण और संवेदनशील है. इस सबके बावजूद सेना ने नाथु-ला दर्रे को भारतीय पर्यटकों के लिए खोल रखा है. ये मेरे लिए एक अनुपम अवसर था उस इलाके को आंखों से देखने और महसूस करने का जहां 1967 में हमारे जवानों ने अजेय चीन का धूल चटा दी थी.
 
Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
नाथु-ला


क्‍या हुआ था 1967 में ?

दरअसल 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध के दौरान चीन ने भारत को नाथु-ला और जेलेप-ला दर्रे को खाली करने के लिए कहा. भारत के 17 माउंटेन डिविजन ने जेलेप-ला को तो खाली कर दिया लेकिन नाथु-ला पर भारत का कब्‍ज़ा बना रहा. आज भी जेलेप-ला चीन के कब्‍जे में है. लेकिन चीन की नज़र नाथु-ला पर बनी रही और रह-रह कर यह दर्रा दोनों देशों के बीच टकराव का कारण बनता रहा. चीन के पेट में दर्द की एक बड़ी वजह ये भी थी कि उस वक्‍़त सिक्क्मि में राजशाही थी और सिक्किम भारत गणराज्‍य का हिस्‍सा नहीं बना था (सिक्किम 16 मई, 1975 को भारत का हिस्‍सा बना). 

लेकिन इसके बावजूद भारत की फौज सिक्किम में चीन से लगती सीमाओं की सुरक्षा में लगी थी. 1967 के टकराव के दौरान नाथु-ला की सुरक्षा भारत की 2 ग्रेनेडियर्स बटालियन के हवाले थी और इस बटालियन की कमान लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह (बाद में ब्रिगेडियर बने) के हाथों में थी. और ये बटालियन माउंटेन ब्रिगेड के तहत वहां तैनात थी.
Brig Rai Singh, MVC, VSM (retd)
लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह (ब्रिगेडियर), महावीर चक्र
नाथु-ला दर्रे पर गश्‍त के दौरान अक्‍सर दोनों देशों के सैनिकों के बीच जुबानी बहसबाजी होना आम बात थी और यह जुबानी बहसबाजी कभी-कभी धक्‍कामुक्‍की में भी बदल जाती थी. ऐसी ही धक्‍कामुक्‍की की एक घटना 6 सितंबर, 1967 को नाथु-ला दर्रे पर हुई. इस घटना को गंभीरता से लेते हुए, भारतीय सेना ने तनाव को दूर करने के लिए नाथु-ला से लेकर सेबू-ला दर्रे तक तार बिछाने का निर्णय लिया. 

लेकिन यह चीन को नागवार गुज़रा और चीन के पॉलिटिकल कमीसार (राजनीतिक प्र‍तिनिधि) ने राय सिंह को तत्‍काल ही इस बाड़बंदी को रोकने के लिए कहा. फिर वही बहसबाज़ी. कुछ वक्‍़त बाद चीनी सैनिक अपने बंकर में चले गए और भारतीय इंजीनियरों ने तार डालना जारी रखा. लेकिन कुछ ही मिनटों बाद चीनी सैनिकों ने अपनी सीमा के अंदर से ही मीडियम मशीन गनों से गोलियां बरसाना शुरू कर दिया. भारतीय फौज को इस हमले का अंदेशा नहीं था.


जनरल सगत सिंह की दिलेरी ने फतेह कराई जंग

दरअसल उस वक्‍़त सभी सैनिक खुले में आकर बाड़बंदी का काम कर रहे थे. उधर चीनियों ने ऊंचाई से आकर जब फायर किया तो उन्‍हें संभलने का भी मौका नहीं मिला. इस हमले में राय सिंह जख्‍मी हो गए और दो अधिकारी शहीद हो गए. भारतीय सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी ने चीनी सैनिकों का डटकर मुक़ाबला किया लेकिन अगले 10 मिनट में लगभग 70 जवान शहीद हो गए और कई घायल हुए. 

‘लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी’ Leadership in the Army Book
लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी किताब के लेखक पूर्व मेजर जनरल वी. के. सिंह किताब में जिक्र करते हैं कि कमांड ने उस इलाके की कमान संभाल रहे जनरल सगत सिंह (ये वही जनरल सगत सिंह थे जिन्‍होंने पहले गोआ को आज़ाद कराया और 1971 में पूर्वी पाकिस्‍तान में लगभग असंभव से काम को संभव बनाकर ढ़ाका को फतेह कर दिखाया था) को नाथु-ला को खाली करने का आदेश दिया. 

लेकिन सगत सिंह ने कहा कि नाथु-ला का मोर्चा छोड़ना बहुत बड़ी बेवकूफी होगी. क्‍योंकि ऐसा करने पर चीनी सैनिक ऊंचाई पर आ जाएंगे जहां से वे पूरे सिक्किम पर नज़र रख सकते थे. जबकि इसके भारत के कब्‍जे में रहने से हम ऊंचाई से चीन पर नज़र रख सकते हैं. इसलिए नाथु-ला का मोर्चा नहीं छोड़ा गया.




जनरल सगत सिंह, General Sagat Singh
जनरल सगत सिंह
फिर उस रोज़ नाथु-ला पर हुई लड़ाई में भारतीय सैनिकों की क्षति को देखते हुए जनरल सगत सिंह ने तोपखाने का मुंख खोलने के आदेश दे दिए. दिलचस्‍प बात है कि उस वक्‍़त तोपखाने को चलाने का आदेश देने का अधिकार केवल प्रधानमंत्री के पास ही था. यहां तक कि सेनाध्‍यक्ष भी ये फैसला नहीं ले सकते थे. लेकिन ऊपर से कोई आदेश समय पर नहीं आया तो जनरल सगत सिंह ने आर्टिलरी फायर के आदेश दे दिए.

इसके बाद भारत ने जो जवाबी कार्रवाई की उसने चीनी फौज को खदेड़ कर रख दिया. आर्टिलरी फायर में चीन के कई बंकर तबाह कर दिए गए और लगभग 300 चीनी सैनिक मारे गए. भारत की ओर से लगातार तीन दिन तक चौ‍बीसों घंटे फायरिंग की गई. चीन की पूरी मशीनगन यूनिट तबाह कर दी गई थी और ये चीन को करारा सबक था कि वो 1962 वाली गलती दोबारा दोहराने की हिमाकत न करे.
 
1967 का भारत-चीन युद्ध
1967 का भारत-चीन युद्ध


चो-ला में फिर किया चीन ने दुस्‍साहस

लेकिन इसके 15 ही दिनों बाद 1 अक्‍तूबर, 1967 को चीन ने सितंबर के संघर्ष विराम को तोड़ते हुए सिक्किम के ही एक और दर्रे चो-ला पर फिर से दुस्‍साहस किया. दरअसल सर्दियों में भारत और चीन दोनों ओर की फौज ऊंचाई पर मौजूद अपनी चौकियों को खाली कर नीचे की ओर चली जाती थीं. चीन ने सोचा कि भारतीय फौज भी अपनी चौकियों को खाली कर नीचे लौट गई होगी. 

लेकिन दूध के जले तो छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रहे थे. भारतीय सैनिकों ने अपनी चौकियों को खाली नहीं किया था. सो चीनी सैनिकों ने धोखे से हमला करने की कोशिश की तो इस बार भी मुंह-तोड़ जवाब दिया गया. एक जबरदस्‍त भिडंत के बाद इस बार भारतीय सेना ने चीनी फौज को 3 किलोमीटर चीन की ओर धकेल दिया.

इसीलिए जब-जब नाथु-ला और चो-ला का जि़क्र आता है, चीन बेचैन हो उठता है. दरअसल ये चीन की वो दुखती रग है जिसे वो चाह कर भी कभी नहीं भुला पाएगा. इस जंग में बहादुरी के लिए घायल कर्नल राय सिंह को महावीर चक्र और शहादत देने के लिए कैप्‍टन डागर को वीर चक्र और मेजर हरभजन सिंह को महावीर चक्र से सम्‍मानित किया गया था।

आज भी जज्‍़बा बुलंद है

उस रोज़ जब मैं उस जबरदस्‍त ठंड में धीरे-धीरे नाथु-ला पास पर बनी पोस्‍ट पर सबसे ऊंची जगह पहुंचा तो वहां माइनस 14 डिग्री में मेरे लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा था. लेकिन मैं ये देख कर हैरान था कि वहां खड़े जवानों के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं. मेरे पास खड़े एक जवान से ऐसे ही  हल्‍की-फुल्‍की बातें होने लगीं. उस जवान का नाम तो सुरक्षा कारणों से मैं यहां नहीं लूंगा लेकिन उससे बहुत दिलचस्‍प बातें हुईं. जवान का हौसला देखने वाला था. मैंने पूछा कि ये चीनी फौजी आप लोगों को तंग तो नहीं करते? तो उसने मूंछों को ताव देते हुए कहा कि
ये बौने क्‍या हमें तंग करेंगे साब, मैं अकेला ही 10-10 के लिए काफी हूं’.
फिर जब पता लगा कि वो जैसलमेर से है तो मैं पूछ बैठा कि जैसलमेर की भाड़ जैसी गरमी के बाद नाथु-ला की बर्फीली हवाओं में कैसे एडजस्‍ट करते हैं? तो उसका कहना था कि साहब

ये भी तो अपना ही देश है न, कोई न कोई तो इसकी हिफाज़त के लिए यहां खड़ा होगा ही. कोई फ़र्क नहीं पड़ता...हम जैसलमेर वालों की हड्डियां तो वैसे भी तपा फौलाद हैं


फिर हम दोनों ने एक ठहाका लगाया. जवान ने मुझे वहीं से चीनी पोस्‍ट और चीनी झंडा दिखाया और कुछ उनकी हरकतों के बारे में भी. मैंने जवान से हाथ मिलाकर उसे सैल्‍यूट कहा और पोस्‍ट से नीचे उतर आया. वाकई जिस मौसम में आम आदमी का 15 मिनट भी ठहरना मुश्किल हो वहां महीनों तक रहने वाले फौजी भाई हमारी हर आती-जाती सांस के साथ सलाम के हक़दार हैं.
Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
नाथु-ला बॉर्डर पर वो यादगार लम्‍हा


ये भी पढ़ें: जब नाथु-ला पास (Nathu-La Pass) बना जी का जंजाल और सेना ने किया रेस्‍क्‍यू 


बहुत कीमती है ये आज़ादी

इस तरह भारत के वीर सपूतों ने अपने प्राणों का बलिदान देकर भी कई-कई बार अपने देश की सीमाओं की रक्षा की. हमारी एक-एक सांस उन वीर सपूतों की ऋणी है. ये जिस आज़ाद हवा में आज अपने मुल्‍क में हम सांस ले रहे हैं इसकी बहुत बड़ी कीमत शहीदों ने चुकाई है. हमें इसका मोल भी समझना होगा. जाति, धर्म और बिरादरी के संकुचित दायरों में सिमटे लोगों के लिए उन शहीदों ने अपने प्राण नहीं गंवाए हैं. वे यकीनन ऐसा हिंदुस्‍तान नहीं चाहते थे जैसा हमने आज बना दिया है. अभी भी वक्‍़त है....हमें एक सजग नागरिक बन इस आज़ादी की कीमत अदा करनी है. अपने देश से प्रेम का अर्थ इसके सभी नागरिकों से प्रेम करना और न्‍याय के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करना भी होता है. 


नाथु-ला दर्रा, Nathu-La Pass
दिसंबर महीने मे नाथु-ला की ओर


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दिसंबर के महीने में नाथु-ला की डगर
फोटो साभार: @lestweforget 

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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 

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4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ज्यादा अच्छा लगा पढ़कर....1967 की वो बाते सगत सिंह जी की सूझ बूझ जबरदस्त है....राय सिंह सगत सिंह सबको नमन....काश जेलेप ला भी हमारे पास होता...बढ़िया लेख

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    1. सही कहा. जेलेप ला को तो हम नहीं बचा पाए...लेकिन कुर्बानियां देकर नाथुला बचा लिया. और जनरल सगत सिंह की बहादुरी न केवल नाथु ला में देखने वाली थी बल्कि वे गोआ को मुक्त कराने और बांग्लादेश युद्ध के भी सबसे नायक थे. शुक्रिया टिप्पणी के लिए.

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  2. बढ़िया लेख। ये कहानियां सामने आनी चाहिए। मुझे खुद इस घटना का पता कुछ ही साल पहले चला है। अब तो फिर भी इस पर फिल्म बन गई है। लेकिन मुझे ताज्जुब होता है कि सेना से इतिहास से जुड़ी इस घटना के बारे में बताया क्यों नहीं जाता था। हमेशा चीन से हुई हार की बात को होती थी लेकिन उसके बाद हमने एक करारी चोट की थी उसकी चर्चा ही नहीं होती..

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    1. शुक्रिया दीपांशु जी. ऐसी अनगिनत कहानियां हैं जो भुला दी गई हैं. राष्ट्र के असल गौरव की कथाओं के बरक्स एक नया इतिहास खड़ा किया जा रहा है. इसी तरह असली नायकों की जगह छद्म नायक ले रहे हैं. सीमाओं पर शहीदों की वीर गाथाएं तो किताबों का अनिवार्य हिस्सा होनी चाहिए थीं. लेकिन ऐसा है नहीं. यहीं हम जैसे लोगों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है कि ऐसी कहानियों को बार-बार सामने लाएं.

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