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शनिवार, 15 अगस्त 2020

चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा नाथु-ला पास: 1967 की एक भूली हुई कहानी | How Nathu-La Pass was saved from China in 1967

चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा नाथु-ला पास: 1967 की एक भूली हुई कहानी

हम जब-जब आज़ादी का जश्‍न मनाते हैं तो हमें इस बात का बार-बार अहसास होता है कि इस आज़ादी को हासिल करने और इसे बनाए रखने के लिए हमारे वीर सपूतों ने अनगिनत बलिदान किए हैं. कुछ कहानियां हम जानते हैं और कुछ के बारे में हमें ज्‍यादा जानकारी नहीं है. इन दिनों चीन से लगती हमारी सीमाओं पर एक बार फिर भारी तनाव है, लद्दाख में सीमाओं की रक्षा करते हुए 20 जवान शहीद हो गए. इसके बाद भी लद्दाख से लेकर अरुणाचल की लगभग 3500 किलोमीटर लंबी वास्‍तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन का दुस्‍साहस जब-तब देखने को मिल रहा है और चीन हमारी सरहदों को हमारी ओर धकेलने की नापाक कोशिश में जुटा है. चीन बार-बार हमें 1962 का किस्‍सा तो याद दिलाता है मगर वो खुद 1967 में नाथु-ला के युद्ध में अपनी करारी शिकस्‍त की कहानी याद नहीं करना चाहता है जब हमारे बहादुर जवानों ने जान की बाजी लगा कर भी चीन की बड़ी फौज  धूल चटा दी थी.

चीन की बुरी नज़र तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में ही इस दर्रे पर पड़ चुकी थी और जब धमकियों और घुड़काने से बात नहीं बनी तो 1967 में चीन ने यहां बहाना खोजकर हमला ही बोल दिया. लेकिन भारतीय फ़ौज के शौर्य और बलिदान की बदौलत ये दर्रा आज भी भारत के पास है और सिक्किम की यात्रा करने वाले पर्यटक नाथु-ला पास पर स्थित भारत-चीन सीमा को देखने ज़रूर जाते हैं.

इत्‍तेफ़ाक से पिछले साल दिसंबर महीने के आखिरी सप्‍ताह में मैं नाथु-ला दर्रे तक होकर आया हूँ. ये दिसंबर, 2019 का आखि़री सप्‍ताह था. 27 दिसंबर, 2019 के उस रोज नाथु-ला पास पर भारी बर्फबारी और वहां फंसने वाले हजारों पर्यटकों के बीच मैं और मेरा परिवार भी था. सेनाके रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन में हमें वहां से सुरक्षित निकाले जाने के कारण नाथु-ला की उस यात्रा को हम लोग पूरी जिंदगी नहीं भूल पाएंगे.

Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
चीन से लगती सीमा पर नाथु-ला दर्रा

सामरिक दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है नाथु-ला

उस रोज़ नाथु-ला दर्रे की ओर बढ़ते हुए इस दर्रे के बारे में पढ़ी हुई बातें एक-एक कर दिमाग़ में घूम रही थीं. ये ख़ूबसूरत दर्रा सन 1967 में बस चीन के हाथों में जाते-जाते ही बचा था. 14,200 फीट की ऊंचाई पर मौजूद नाथु-ला दर्रा तिब्‍बत–सिक्किम सीमा पर स्थित है और यही वह जगह है जिससे होकर पुराना गंगटोक-यातुंग-ल्‍हासा व्‍यापार मार्ग गुज़रता है. इसे ओल्‍ड सिल्‍क रूट भी कहते हैं. गंगटोक छोड़ कर जैसे ही गाड़ी ने नाथु-ला की ओर जाने वाले रास्‍ते पर थर्ड माइल की चेक पोस्‍ट पार की, नज़ारा बदलने लगा. 

गंगटोक से लेकर नाथु-ला तक के पूरे रास्‍ते की पहचान माइल से ही होती है. ये फौज का अपना तरीका है रास्‍ते का प्रबंध करने का. अब आगे का पूरा इलाका सेना के नियंत्रण में था. इस पूरे रास्‍ते पर सेना की भारी मौजूदगी देखकर मेरे लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि ये इलाका सामरिक दृष्टि से भारत के लिए कितना महत्‍वपूर्ण और संवेदनशील है. इस सबके बावजूद सेना ने नाथु-ला दर्रे को भारतीय पर्यटकों के लिए खोल रखा है. ये मेरे लिए एक अनुपम अवसर था उस इलाके को आंखों से देखने और महसूस करने का जहां 1967 में हमारे जवानों ने अजेय चीन का धूल चटा दी थी.
 
Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
नाथु-ला


क्‍या हुआ था 1967 में ?

दरअसल 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध के दौरान चीन ने भारत को नाथु-ला और जेलेप-ला दर्रे को खाली करने के लिए कहा. भारत के 17 माउंटेन डिविजन ने जेलेप-ला को तो खाली कर दिया लेकिन नाथु-ला पर भारत का कब्‍ज़ा बना रहा. आज भी जेलेप-ला चीन के कब्‍जे में है. लेकिन चीन की नज़र नाथु-ला पर बनी रही और रह-रह कर यह दर्रा दोनों देशों के बीच टकराव का कारण बनता रहा. चीन के पेट में दर्द की एक बड़ी वजह ये भी थी कि उस वक्‍़त सिक्क्मि में राजशाही थी और सिक्किम भारत गणराज्‍य का हिस्‍सा नहीं बना था (सिक्किम 16 मई, 1975 को भारत का हिस्‍सा बना). 

लेकिन इसके बावजूद भारत की फौज सिक्किम में चीन से लगती सीमाओं की सुरक्षा में लगी थी. 1967 के टकराव के दौरान नाथु-ला की सुरक्षा भारत की 2 ग्रेनेडियर्स बटालियन के हवाले थी और इस बटालियन की कमान लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह (बाद में ब्रिगेडियर बने) के हाथों में थी. और ये बटालियन माउंटेन ब्रिगेड के तहत वहां तैनात थी.
Brig Rai Singh, MVC, VSM (retd)
लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह (ब्रिगेडियर), महावीर चक्र
नाथु-ला दर्रे पर गश्‍त के दौरान अक्‍सर दोनों देशों के सैनिकों के बीच जुबानी बहसबाजी होना आम बात थी और यह जुबानी बहसबाजी कभी-कभी धक्‍कामुक्‍की में भी बदल जाती थी. ऐसी ही धक्‍कामुक्‍की की एक घटना 6 सितंबर, 1967 को नाथु-ला दर्रे पर हुई. इस घटना को गंभीरता से लेते हुए, भारतीय सेना ने तनाव को दूर करने के लिए नाथु-ला से लेकर सेबू-ला दर्रे तक तार बिछाने का निर्णय लिया. 

लेकिन यह चीन को नागवार गुज़रा और चीन के पॉलिटिकल कमीसार (राजनीतिक प्र‍तिनिधि) ने राय सिंह को तत्‍काल ही इस बाड़बंदी को रोकने के लिए कहा. फिर वही बहसबाज़ी. कुछ वक्‍़त बाद चीनी सैनिक अपने बंकर में चले गए और भारतीय इंजीनियरों ने तार डालना जारी रखा. लेकिन कुछ ही मिनटों बाद चीनी सैनिकों ने अपनी सीमा के अंदर से ही मीडियम मशीन गनों से गोलियां बरसाना शुरू कर दिया. भारतीय फौज को इस हमले का अंदेशा नहीं था.


जनरल सगत सिंह की दिलेरी ने फतेह कराई जंग

दरअसल उस वक्‍़त सभी सैनिक खुले में आकर बाड़बंदी का काम कर रहे थे. उधर चीनियों ने ऊंचाई से आकर जब फायर किया तो उन्‍हें संभलने का भी मौका नहीं मिला. इस हमले में राय सिंह जख्‍मी हो गए और दो अधिकारी शहीद हो गए. भारतीय सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी ने चीनी सैनिकों का डटकर मुक़ाबला किया लेकिन अगले 10 मिनट में लगभग 70 जवान शहीद हो गए और कई घायल हुए. 

‘लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी’ Leadership in the Army Book
लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी किताब के लेखक पूर्व मेजर जनरल वी. के. सिंह किताब में जिक्र करते हैं कि कमांड ने उस इलाके की कमान संभाल रहे जनरल सगत सिंह (ये वही जनरल सगत सिंह थे जिन्‍होंने पहले गोआ को आज़ाद कराया और 1971 में पूर्वी पाकिस्‍तान में लगभग असंभव से काम को संभव बनाकर ढ़ाका को फतेह कर दिखाया था) को नाथु-ला को खाली करने का आदेश दिया. 

लेकिन सगत सिंह ने कहा कि नाथु-ला का मोर्चा छोड़ना बहुत बड़ी बेवकूफी होगी. क्‍योंकि ऐसा करने पर चीनी सैनिक ऊंचाई पर आ जाएंगे जहां से वे पूरे सिक्किम पर नज़र रख सकते थे. जबकि इसके भारत के कब्‍जे में रहने से हम ऊंचाई से चीन पर नज़र रख सकते हैं. इसलिए नाथु-ला का मोर्चा नहीं छोड़ा गया.




जनरल सगत सिंह, General Sagat Singh
जनरल सगत सिंह
फिर उस रोज़ नाथु-ला पर हुई लड़ाई में भारतीय सैनिकों की क्षति को देखते हुए जनरल सगत सिंह ने तोपखाने का मुंख खोलने के आदेश दे दिए. दिलचस्‍प बात है कि उस वक्‍़त तोपखाने को चलाने का आदेश देने का अधिकार केवल प्रधानमंत्री के पास ही था. यहां तक कि सेनाध्‍यक्ष भी ये फैसला नहीं ले सकते थे. लेकिन ऊपर से कोई आदेश समय पर नहीं आया तो जनरल सगत सिंह ने आर्टिलरी फायर के आदेश दे दिए.

इसके बाद भारत ने जो जवाबी कार्रवाई की उसने चीनी फौज को खदेड़ कर रख दिया. आर्टिलरी फायर में चीन के कई बंकर तबाह कर दिए गए और लगभग 300 चीनी सैनिक मारे गए. भारत की ओर से लगातार तीन दिन तक चौ‍बीसों घंटे फायरिंग की गई. चीन की पूरी मशीनगन यूनिट तबाह कर दी गई थी और ये चीन को करारा सबक था कि वो 1962 वाली गलती दोबारा दोहराने की हिमाकत न करे.
 
1967 का भारत-चीन युद्ध
1967 का भारत-चीन युद्ध


चो-ला में फिर किया चीन ने दुस्‍साहस

लेकिन इसके 15 ही दिनों बाद 1 अक्‍तूबर, 1967 को चीन ने सितंबर के संघर्ष विराम को तोड़ते हुए सिक्किम के ही एक और दर्रे चो-ला पर फिर से दुस्‍साहस किया. दरअसल सर्दियों में भारत और चीन दोनों ओर की फौज ऊंचाई पर मौजूद अपनी चौकियों को खाली कर नीचे की ओर चली जाती थीं. चीन ने सोचा कि भारतीय फौज भी अपनी चौकियों को खाली कर नीचे लौट गई होगी. 

लेकिन दूध के जले तो छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रहे थे. भारतीय सैनिकों ने अपनी चौकियों को खाली नहीं किया था. सो चीनी सैनिकों ने धोखे से हमला करने की कोशिश की तो इस बार भी मुंह-तोड़ जवाब दिया गया. एक जबरदस्‍त भिडंत के बाद इस बार भारतीय सेना ने चीनी फौज को 3 किलोमीटर चीन की ओर धकेल दिया.

इसीलिए जब-जब नाथु-ला और चो-ला का जि़क्र आता है, चीन बेचैन हो उठता है. दरअसल ये चीन की वो दुखती रग है जिसे वो चाह कर भी कभी नहीं भुला पाएगा. इस जंग में बहादुरी के लिए घायल कर्नल राय सिंह को महावीर चक्र और शहादत देने के लिए कैप्‍टन डागर को वीर चक्र और मेजर हरभजन सिंह को महावीर चक्र से सम्‍मानित किया गया था।

आज भी जज्‍़बा बुलंद है

उस रोज़ जब मैं उस जबरदस्‍त ठंड में धीरे-धीरे नाथु-ला पास पर बनी पोस्‍ट पर सबसे ऊंची जगह पहुंचा तो वहां माइनस 14 डिग्री में मेरे लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा था. लेकिन मैं ये देख कर हैरान था कि वहां खड़े जवानों के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं. मेरे पास खड़े एक जवान से ऐसे ही  हल्‍की-फुल्‍की बातें होने लगीं. उस जवान का नाम तो सुरक्षा कारणों से मैं यहां नहीं लूंगा लेकिन उससे बहुत दिलचस्‍प बातें हुईं. जवान का हौसला देखने वाला था. मैंने पूछा कि ये चीनी फौजी आप लोगों को तंग तो नहीं करते? तो उसने मूंछों को ताव देते हुए कहा कि
ये बौने क्‍या हमें तंग करेंगे साब, मैं अकेला ही 10-10 के लिए काफी हूं’.
फिर जब पता लगा कि वो जैसलमेर से है तो मैं पूछ बैठा कि जैसलमेर की भाड़ जैसी गरमी के बाद नाथु-ला की बर्फीली हवाओं में कैसे एडजस्‍ट करते हैं? तो उसका कहना था कि साहब

ये भी तो अपना ही देश है न, कोई न कोई तो इसकी हिफाज़त के लिए यहां खड़ा होगा ही. कोई फ़र्क नहीं पड़ता...हम जैसलमेर वालों की हड्डियां तो वैसे भी तपा फौलाद हैं


फिर हम दोनों ने एक ठहाका लगाया. जवान ने मुझे वहीं से चीनी पोस्‍ट और चीनी झंडा दिखाया और कुछ उनकी हरकतों के बारे में भी. मैंने जवान से हाथ मिलाकर उसे सैल्‍यूट कहा और पोस्‍ट से नीचे उतर आया. वाकई जिस मौसम में आम आदमी का 15 मिनट भी ठहरना मुश्किल हो वहां महीनों तक रहने वाले फौजी भाई हमारी हर आती-जाती सांस के साथ सलाम के हक़दार हैं.
Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
नाथु-ला बॉर्डर पर वो यादगार लम्‍हा


ये भी पढ़ें: जब नाथु-ला पास (Nathu-La Pass) बना जी का जंजाल और सेना ने किया रेस्‍क्‍यू 


बहुत कीमती है ये आज़ादी

इस तरह भारत के वीर सपूतों ने अपने प्राणों का बलिदान देकर भी कई-कई बार अपने देश की सीमाओं की रक्षा की. हमारी एक-एक सांस उन वीर सपूतों की ऋणी है. ये जिस आज़ाद हवा में आज अपने मुल्‍क में हम सांस ले रहे हैं इसकी बहुत बड़ी कीमत शहीदों ने चुकाई है. हमें इसका मोल भी समझना होगा. जाति, धर्म और बिरादरी के संकुचित दायरों में सिमटे लोगों के लिए उन शहीदों ने अपने प्राण नहीं गंवाए हैं. वे यकीनन ऐसा हिंदुस्‍तान नहीं चाहते थे जैसा हमने आज बना दिया है. अभी भी वक्‍़त है....हमें एक सजग नागरिक बन इस आज़ादी की कीमत अदा करनी है. अपने देश से प्रेम का अर्थ इसके सभी नागरिकों से प्रेम करना और न्‍याय के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करना भी होता है. 


नाथु-ला दर्रा, Nathu-La Pass
दिसंबर महीने मे नाथु-ला की ओर


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दिसंबर के महीने में नाथु-ला की डगर
फोटो साभार: @lestweforget 

© इस लेख को अथवा इसके किसी भी अंश का बिना अनुमति के पुन: प्रकाशन कॉपीराइट का उल्‍लंघन होगा। 




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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 

यहां भी आपका स्‍वागत है:

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

जब नाथु-ला पास (Nathu-La Pass) बना जी का जंजाल और सेना ने किया रेस्‍क्‍यू


जब नाथु-ला पास (Nathu-La Pass) बना जी का जंजाल और सेना ने किया रेस्‍क्‍यू 


अक्सर पहाड़ों पर यात्रियों के बर्फबारी में फंसने और रेस्क्यू ऑपरेशन द्वारा निकाले जाने की ख़बरें अखबारों और टीवी में पढ़ता-सुनता आया हूँ. लेकिन ये सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी हम भी ऐसे ही फंस जाएंगे. दार्जिलिंग-गंगटोक यात्रा के तीसरे दिन यानि 27 दिसम्बर, 2019 की शाम भारत-चीन सीमा यानि नाथू ला दर्रे की यात्रा से लौटते वक़्त हमारे साथ कुछ ऐसा ही हुआ. ये दर्रा 1967 में हुए भारत-चीन युद्ध के कारण बहुत महत्‍वपूर्ण है. ये जानना और भी दिलचस्‍प है कि चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा था नाथु-ला पास? ये 1967 की एक भुुुुला दी गई कहानी है.

खैैैर, उस रोज़ दिन की शुरुआत अच्छी खासी खिली हुई धूप के साथ हुई तो खराब मौसम की एक प्रतिशत भी संभावना नज़र नहीं आ रही थी. हम लोग दिन में 12 बजे के आस-पास 14140 फीट की ऊंचाई पर नाथू ला दर्रे तक पहुंच गए. 

बेशक अब तापमान माइनस 10 डिग्री था, दर्रे के रास्ते में छांगू या कहिए सोगमो झील पूरी तरह जम चुकी थी, बॉर्डर पर ऑक्सीजन की कमी से सांस लेने में ज़ोर लग रहा था, लेकिन चमकती धूप बराबर हौसला बनाए हुए थी. हम जैसे-तैसे नाथू ला दर्र के शिखर तक पहुंचे, भारत और चीन के बॉर्डर पर कुछ वक़्त बिताया और फिर धीरे-धीरे नीचे लौट आए. परिवार के लिए तो यही माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई हो गई थी. सूरज अभी भी उन बर्फीली हवाओं से संघर्ष करते हुए हमारा हौसला बनाए हुए था. लेकिन पहाड़ तो पहाड़ ठहरे, पल भर में मिजाज़ बदल जाता है इनका. 

Nathu la Pass, China Border, नाथु-ला दर्रा, चीन सीमा
Nathu la Pass at China Border
लेकिन जैसे ही गाड़ी में सवार हुए हल्की-हल्की बर्फ गिरनी शुरू हो गई. ड्राइवर ने शोर मचाना शुरू कर दिया. नाथू ला से वापसी में इस गिरती बर्फ के बीच कुछ वक़्त छांगू लेक (Tsogmo Lake) पर बिताया. अब उस जमी हुई झील को निहारने के सुख को कैसे छोड़ते भला. हज़ारों लोगों की तरह हमें भी लगा कि ये बर्फबारी थोड़ी देर में रुक जाएगी. लेकिन ये लगातार बढ़ती रही. अब ड्राइवर ने हमें डराने वाली ख़बर दी कि छांगू से कुछ किलोमीटर नीचे और ज्यादा बर्फ गिर रही है. हम फुर्ती से गाड़ी में सवार हो गए और अब गैंगटोक की तरफ़ गाड़ी की रफ़्तार बढ़ गई. हम जल्द से जल्द उस इलाके को पार कर लेना चाहते थे. सड़क पर गिरती बर्फ ऐसी लगी जैसे ऊपर से रुई की गोलियां बरस रही हों. इधर ड्राइवर ने बताया कि पिछले साल 28 दिसम्बर को भी इसी तरह भारी बर्फ गिरी थी और हज़ारों लोग यहां 2 दिन तक फंस गए थे. बात करते-करते बर्फ गिरने की रफ्तार और बढ़ी. मैंने इतना खूबसूरत मंज़र पहले कभी नहीं देखा था. चंद मिनटों में हर चीज सफेद हुई जा रही थी. मन इस दृश्य को देख बेहद खुश भी था मग़र दिल की धड़कनें लगातार बढ़ रही थीं.

Nathu la Pass, China Border, नाथु-ला, चीन बॉर्डर
नाथु-ला के रास्‍ते में बिगड़ना शुरू हुआ मौसम का मिजाज 

Nathu la Pass, China Border, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
नाथु-ला की ओर जाने वाले जंगली रास्‍ते


इसी स्‍नो-फॉल के बीच हम धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ते रहे. लेकिन जल्‍द ही वो क्षण भी आ गया जब गाड़ी का चलना मुश्किल हो गया और ड्राइवर को मजबूरन गाड़ी रोकनी पड़ी. हमारी दाईं तरफ एक छोटा सा ढ़ाबा नज़र आ रहा था जहां पहले से ही 50-60 लोग खड़े थे. मैंने गाड़ी के अंदर से अंदाजा लिया तो तकरीबन 15 से 20 गाडि़यां आस-पास खड़ी थीं. आगे न बढ़ने का सबसे बड़ा कारण कोई 200 मीटर बाद एक तीखी ढ़लान पर सड़क के मोड़ का होना था. ऐसे में गाड़ी आगे लेकर जाने का मतलब मौत से पंजा लड़ाना था. हमारे पास इंतज़ार के अलावा कोई विकल्‍प नहीं था. अब तक भूख भी लग चुकी थी. ढ़ाबा सामने था और दूर से मैगी बनती दिख रही थी. गाड़ी के बाहर भीषण ठंड भी हिम्‍मत तोड़ रही थी और डर था कि अगर गाड़ी से उतर कर मैगी खाने गए और इधर गाडियां चल पड़ीं तो हमारी गाड़ी के पास आगे बढ़ने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं होगा. सो बैठे रहे. पूरी उम्‍मीद थी कि अभी बर्फ गिरना बंद होगी और हम आगे बढ़ जाएंगे. लेकिन अगले दस-पंद्रह मिनट तक गाड़ी एक इंच भी नहीं सरकी. सो मैगी का आदेश दे दिया. ढ़ाबे को कुछ महिलाएं चला रही थीं. अचानक इतने सैलानियों को अपने ढ़ाबे में देख उनके चेहरे पर अजीब सी चमक और हाथों में ग़ज़ब की फुर्ती आ गई थी.


5-7 मिनट बाद गरमागरम मैगी का बाउल हाथों में आया ही था कि बाहर गाडियों में हलचल शुरू हो गई. किसी ने कहा कि रास्‍ता खुल गया है. बस फिर क्‍या था...भागते भागते वो गरम-गरम मैगी जल्‍दी–जल्‍दी खाई. जिंदगी में इतनी बेरहमी से मैगी कभी नहीं खाई. 2 मिनट में सभी आकर गाड़ी में बैठ गए. गाड़ी कोई 10 कदम चली होगी कि फिर रुक गई. अब तक बर्फ गिरनी बंद हो चुकी थी. इसलिए ये यकीन और पुख्‍़ता हो गया था कि अब तो रास्‍ता खुल ही जाएगा. लेकिन गाडियां थीं कि अब भी आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं. लोग बता रहे थे कि फौज रास्‍ता खोलने की कोशिश कर रही है. हम इधर उधर टहलते हुए बस इंतजार ही करते रहे. इस इंतज़ार में आधा घंटा और निकल गया.
भूखे मुसाफिरों के लिए राहत की सांस बना ये ढ़ाबा 

इधर धीरे-धीरे शाम गहराने लगी और कुछ ही देर में ड्राइवर ने वो कहा 
Nathu la Pass, snow-fall at nathu-la, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
13 माइल पर फंसे वाहन
जिसे सुनकर हमारे पैरों के नीचे से पूरा पहाड़ ही निकल गया था. ड्राइवर ने कहा कि
‘’अब गाड़ी आगे नहीं जा पाएगी. बर्फ अगले 5 किलोमीटर तक गिरी है. आपको या तो 4-5 किलोमीटर पैदल नीचे जाकर गैंगटोक से कोई गाड़ी बुलानी पड़ेगी या फिर रात यहीं गुज़ारनी होगी’’. हम एक बार फिर गाड़ी से उतर कर कुछ दूर आगे जाकर जायजा लेकर आए. सब कुछ जैसे एक ही जगह ठहर गया था. दूर तक चांदी सी बिखरी बर्फ और गाडियों की मद्धम हैड या टेल लाइटों के अलावा कुछ नज़र नहीं आ रहा था. हमारे पास दो ही विकल्‍प थे. या तो ड्राइवर की बात मान कर इस फिसलन भरे रास्‍ते पर 5 किलोमीटर तक पैदल चलें या फिर पूरी रात गाड़ी में गुज़ारें. हम इस इमरजेंसी के लिए भी तैयार थे. मैगी हम खा ही चुके थे और पूरा बैग भर कर गज़क, ड्राई फ्रूट, चॉकलेट, लड्डू आदि साथ थे. कम से कम भूखे मरने की नौबत नहीं आने वाली थी. लेकिन तभी आस-पास के लोगों ने कहा कि यहां रात को और बर्फ गिरेगी. ढ़ाबे को चला रही महिलाएं भी ढ़ाबा बंद कर अपने घर के लिए निकल लीं. मतलब साफ था कि इस बर्फीले बियाबान में रात को रुकना भी खतरे से खाली नहीं था. एक पल को दिमाग सुन्‍न हो गया. क्‍या सही होगा और क्‍या ग़लत....कुछ समझ नहीं आ रहा था.
Nathu la Pass, Snow-fall at Nath-La, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
जब तक मुसीबत का अहसास नहीं हुआ तब तक खूब हुई मस्‍ती (Snow-fall at Nathu-La)

मैंने गंगटोक में ट्रैवल एजेंसी को फोन लगाने की कोशिश की. मगर वोडाफोन और जियो दोनों के नेटवर्क गायब थे. ड्राइवर के पास बीएसएनएल का फोन था, बड़ी मुश्किल से ट्रैवल एजेंसी में फोन लगा मगर उधर बैठे आदमी ने भी कोई गाड़ी भेजने में असमर्थता जताई और सारी गाड़ियों के यहीं फंसे होने या ट्रिप के बीच में होने की बात कही. इधर ड्राइवर ने गाड़ी साइड लगा उसे तिरपाल से ढक दिया और कहा कि वह पैदल नीचे जा रहा है. उधर बहुत से लोग अभी भी गाड़ियों में थे. अब तक बर्फ गिरनी बन्द हो चुकी थी, कुछ ही देर में हमें कुछ फौजी नज़र आए जो रास्ते पर जमी बर्फ को काट रहे थे और गाड़ियों को निकालने में मदद कर रहे थे. लेकिन ड्राइवर अभी भी गाड़ी लेकर आगे बढ़ने के पक्ष में नहीं था. 


Nathu la Pass, Snow-Fall at Nathu-La, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
स्‍नो फॉल के दौरान नज़़ारा

उस वक्‍़त जेहन में किस-किस तरह के ख्‍याल आ रहे थे...मैं बता नहीं सकता. हमारे साथ जो अच्‍छी बात थी, वही सबसे खराब बात थी. अच्‍छी बात थी कि हम अकेले नहीं थे. तीन परिवार साथ होने के कारण 6 बड़े और एक बच्‍चा यानि कुल 7 लोग एक साथ थे और खराब बात भी यही थी इन 7 लोगों में तीन महिलाएं और एक बच्‍चा भी था. हमारा एक गलत फ़ैसला हम सबकी जि़ंदगी पर भारी हो सकता था. आप सोच रहे होंगे कि इस वक्‍़त वहां फंसे बाकी लोग क्‍या कर रहे थे. तो साहब बाकी में से अधिकांश लोग भाग्‍यशाली थे कि उनके ड्राइवर धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रहे थे. उन्‍होंने अपने यात्रियों को हमारी तरह बीच रास्‍ते में नहीं छोड़ा था. लेकिन कुछ और लोग हमारी तरह बदकिस्‍मत थे. वे अब तक पैदल निकल चुके थे. हालांकि बात तो ड्राइवर की भी सही थी. उस फिसलन भरे रास्ते पर कुछ भी हो सकता था. ब्रेक न लगने पर गाड़ी फिसलते हुए सीधे खाई में जा सकती थी. कुछ देर पहले एक गाड़ी ढलान से कुछ नीचे सरक भी चुकी थी. इसका मतलब था कि जो गाड़ियां चल रही थीं वो लोग रिस्क ही ले रहे थे. वो मोड़ वाकई ख़तरनाक था. लेकिन ड्राइवर चाहता तो हमें वहां से उतार कर खाली गाड़ी को निकाल सकता था. लेकिन अब वो भी जिद पर आ चुका था कि गाड़ी नहीं चलानी तो नहीं चलानी. 

उस वक्‍़त हम सभी ने सामूहिक रूप से यही विचार किया कि ड्राइवर को साथ लेकर पैदल ही आगे बढ़ते हैं. कम से कम वो उस रास्ते से अच्छी तरह वाकिफ़ तो था. यही करने की कोशिश भी की. लेकिन हम लोग बमुश्किल 100 मीटर आगे बढ़े होंगे कि सेना के एक जवान ने पैदल चलते देख हमें टोक लिया. पूछताछ करने पर हमने सारा वाकया बता दिया. उस फौजी ने बताया कि फौज के जवान आगे पूरे रास्‍ते पर मुस्‍तैदी से काम कर रहे हैं और रास्‍ता एसयूवी के चलने लायक हो चुका है. फौजी ने हमारे ड्राइवर को भी हडकाया और उसे गाड़ी लेकर आने के लिए कहा. ड्राइवर फौजी से ही उलझ गया कि अगर कोई रिस्‍क हुआ तो क्‍या आप लिख कर देंगे कि जिम्‍मेदारी आपकी है. अब लिखित जिम्‍मेदारी कौन लेता है? 

हम लोगों ने एक बार फिर आगे बढ़ना शुरू किया. थोड़ा आगे बढ़ने पर फिर कुछ जवान मिले जिन्‍होंने ड्राइवर को थोड़ा हौसला दिया तो थोड़ी घुड़की. उन्‍होंने उसे समझाया कि रास्‍ता खोला जा रहा है सो वो वापिस जाकर गाड़ी लेकर आए. ड्राइवर गाड़ी लेने के लिए वापिस लौट गया और हमने आगे बढ़ना जारी रखा. सड़क की फिसलन लगातार बढ़ती जा रही थी. एकदम चिकनी हो चुकी बर्फ पर आखिर चलें तो कैसे चलें? इस बार भी फौजी भाईयों ने हमारी मदद की. सड़के के साइड में गिरी बर्फ अभी भी कुछ नर्म थी और पूरी तरह जमी नहीं थी. इसलिए किनारों पर चलना शुरू किया. गिरते-पड़ते हम लोगों के हाथ थाम कर उन्‍होंने जैसे-तैसे हमें कोई 200 मीटर आगे कैंप तक पहुंचाया. रास्‍ते में उन्‍होंने हमें तसल्‍ली दी कि

    ‘आप लोग बिल्‍कुल निश्चिंत रहें, ये ड्राइवर लोग जान-बूझकर लोगों को यहां छोड़ देते हैं क्‍योंकि ये जानते हैं कि आखिर में फौज मदद ज़रूर करेगी. एक फौजी रास्‍ते भर बड़बड़ाता रहा कि ये लोग नाथू ला की ट्रिप के लिए लोगों से 6000 से 8000 रु. तक लेते हैं और जब मुसीबत आती है तो सबसे पहले भाग खड़े होते हैं.

कैंप के गेट पर आठ-दस फौजी और तैनात थे. हमारा मामला सुन उन्‍होंने हमें वहीं इंतज़ार करने के लिए कहा. रात गहरा चुकी थी और बर्फ की ठंडक की चुभन छह-छह गरम कपड़ों की तह में भी हड्डियों में महसूस हो रही थी ऊपर से इस संकट से निकल पाने की अनिश्चितता. अब तक बेटे ने रोना शुरू कर दिया था, शायद हालात की नज़ाकत को वो भी भांप चुका था. हमारा कोई दिलासा, कोई गोदी, कोई बात उसे चुप नहीं कर पा रही थी. बच्चा तो बच्चा ही होता है आखिर. मैं सोच रहा था कि जो लोग और छोटे बच्चों के साथ हमसे कई किलोमीटर फंसे हैं उनका क्या हाल हो रहा होगा? बच्चे को रोता देख एक फौजी भाई न जाने कहाँ से एक स्टील के गिलास में गर्म पानी ले आए. बोले कि बच्चे को राहत मिलेगी. लेकिन एक घूँट से ज्यादा रचित ने पानी भी नहीं पिया. हम सुरक्षित खड़े थे लेकिन आगे क्या होगा...हमें कोई अंदाज़ा नहीं था. हर गुज़रता लम्‍हा बहुत धीरे-धीरे गुज़र रहा था.


Rescue Operation at Nathu-La pass
नाथुुुुु-ला पास पर राहत और बचाव अभियान
बीस-पच्‍चीस मिनट गुज़र गए मगर ड्राइवर नहीं लौटा. हमें भी अब उसके लौटने की उम्‍मीद नहीं रही. लेकिन फौजी तो फौजी थे. ड्राइवर का भरोसा उठते ही उन्‍होंने हमसे हमारी गाड़ी का नंबर और ड्राइवर की डिटेल लीं. वायरलैस पर कहीं संपर्क कर हमारी गाड़ी और ड्राइवर को खोजने के निदेश जारी किए गए. फिर 5 से 7 मिनट बाद वायरलैस पर रिपोर्ट आई कि गाड़ी हमारी बताई जगह पर खड़ी है मगर ड्राइवर नदारद है. ये फौजियों के लिए भी हैरानी भरी ख़बर थी, चूं‍कि जहां गाड़ी खड़ी थी वहां से वापिस नाथू ला की तरफ और यहां चैक पोस्‍ट की तरफ आने वाले दो रास्‍तों के अलावा और कोई रास्‍ता था ही नहीं. 

तो क्‍या ये समझा जाए कि ड्राइवर गाड़ी को वहीं छोड़ ऊपर नाथू ला की ओर निकल गया? उस वक्‍़त कुछ भी नहीं कहा जा सकता था. ये मामला शायद फौज के बड़े अधिकारियों तक पहुंचा होगा कि तभी अचानक एक जिप्‍सी हमारे पास आकर रुकी. मौके पर खड़े जवानों ने जिप्‍सी की आगे वाली सीट पर बैठे अफसर को सेल्‍यूट किया. स्‍पष्‍ट था कि कोई फौज का वरिष्‍ठ अधिकारी था. हम सभी को उस जिप्‍सी में बैठाया गया. हमें कहा गया कि जिप्‍सी आपको नीचे शहर तक छोड़ेगी. जिप्‍सी में आगे की सीट पर बैठा फौजी अफसर लगातार अपने मोबाइल से अपने किसी बड़े अधिकारी को लगातार रिपोर्ट दे रहा था कि 


'रास्‍ते में बर्फ पर नमक का छिड़काव किया गया है, रास्‍ते में गांव के लोगों की भी मदद ली जा रही है, सभी गाडियों को धीमी रफ्तार में निकाला जा रहा है, लगभग 30 से 35 वाहन 3 माइल से पीछे हैं'.  

बाद में मुझे पता चला कि ये 60 इंजीनियर्स के कैप्‍टन विशाल थे जो 13 माइल से नीचे 3 माइल तक के एरिया के इंचार्ज थे और उन्‍हें इस स्‍ट्रैच में फंसे यात्रियों को बाहर निकालने के ऑर्डर्स ऊपर से मिले थे. ऐसी स्थिति में सेना किस तरह से रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन करती है, हम बहुत करीब से देख रहे थे. इधर कैप्‍टन विशाल के मोबाइल पर बीच-बीच में हमारे ड्राइवर को खोजे जाने के बारे में रिपोर्ट आ रही थीं. जिप्‍सी में ब्‍लोअर चल रहा था जिसकी गरमी हमें तो राहत दे ही रही थी मगर सबसे ज्‍यादा सुकून बेटे को मिला कि वो चैन से सो गया.

हम जिप्‍सी से बाहर देख रहे थे कि सड़क पर दर्जनों गाडियां सड़क की साइड में खड़ी हैं. मैंने देखा कि हर दस-बीस कदम पर सेना के जवान हाथ में कुदाल और फावड़ा लिए सड़क पर जमी बर्फ को काटने की कोशिश में जुटे हुए हैं. कहीं-कहीं कुछ गांव वाले भी उनकी मदद करते नज़र आए. बाहर का नज़ारा डराने वाला था. इस सड़क पर 5 किलोमीटर चल कर जाना न केवल बेवकूफाना फैसला होता बल्कि जान पूरी तरह जोखिम में होती. 

कोई 20 मिनट बाद हम थर्ड माइल के चैक पोस्‍ट पर थे. इधर कैप्‍टन विशाल को ख़बर मिली कि हमारी गाड़ी और ड्राइवर को लोकेट कर लिया गया है. कैप्‍टन ने जवानों को फोन पर निदेश दिया कि ड्राइवर का थर्ड माइल पहुंचना सुनिश्चित किया जाए. कैप्‍टन विशाल को अब एक बार फिर 13 माइल तक के स्‍ट्रैच को चेक करके आना था सो उन्‍होंने हमें वहीं उतारा और गेट पर खड़े जवानों को निदेश दिया कि बच्‍चे और महिलाओं को चेकपोस्‍ट के अंदर बिठाया जाए. उस छोटी सी गुमटी नुमा चेक पोस्‍ट के भीतर हीटर जल रहा था जिससे महिलाओं और बच्‍चे को फिर से सुकून का अहसास हुआ. मैंने कैप्‍टन विशाल का शुक्रिया अदा किया तो वे मुस्‍कुराते हुए पलट कर बोले कि कोई बात नहीं. लेकिन ये एडवेंचर आपको याद रहेगा. 

फिर हम तीनों मित्र जवानों के साथ चेक-पोस्‍ट पर अपनी गाड़ी का इंतज़ार करने लगे. हम जानते थे कि अब ड्राइवर के पास कोई विकल्‍प नहीं बचा है और उसे इसी रास्‍ते से आना होगा. अगले 10 से 12 मिनट तक इस चेक पोस्‍ट से गुजरने वाली हर गाड़ी को रोक कर चेक किया गया. इस इंतजार के दौरान वहां खड़े जवानों से हल्‍की–फुल्‍की बातें होती रहीं.


जवानों ने हमें बताया कि पिछले साल यहां लगभग 3000 लोग फंस गए थे और हमने उन्‍हें अपने कैंपों में ठहराया था. ये हमारे लिए हैरानी भरा था कि क्‍या वाकई सेना के पास वहां इतने इंतजाम हैं कि वे अचानक आए 3000 लोगों को रात में ठहरा सकें. एक जवान ने बताया कि 

सर, यहां पूरा इंतजाम हैं. हम लोग चीन बॉर्डर पर हैं. जाने कब हालात बदल जाएं और अतिरिक्‍त फौज को यहां तैनात करना पड़ जाए. इसलिए पूरा इंतजाम रखते हैं.

आखिर में हमें हमारी गाड़ी नज़र आई. हम सभी को गाड़ी में बैठाया गया. गाड़ी पहले गियर में धीमे-धीमे आगे बढ़ती रही. अभी भी आगे तकरीबन पांच किलोमीटर पर सड़क पर फिसलन थी. लेकिन सभी गाडियां धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहीं. गंगटोक की तरफ पहले चेकपोस्‍ट पर जहां बर्फ और फिसलन ने हमारा पीछा छोड़ा...हमारी सांस में सांस आई. गंगटोक पहुंचते-पहुंचते हमें रात के 9 बज गए. दिमाग सुन्‍न था... और दिन भर में जो कुछ गुज़रा हमें किसी फिल्‍म या सपने जैसा ही लग रहा था.

अगली सुबह तक ये घटना दिल्‍ली के अखबारों तक भी पहुंच चुकी थी. एक करीबी मित्र जानते थे कि हम लोग पिछले दिन नाथुला गए थे सो अखबार की ख़बर देख उन्‍होंने अखबार की ख़बर का वाट्सएप्‍प भेजा. ख़बर के मुताबिक पिछली रात 300 गाडियां और 1700 लोग वहां फंसे थे. बात सही थी. क्‍योंकि हमारे होटल के ही बहुत से गेस्‍ट पूरी रात नहीं लौटे थे. 

दरअसल 17 माइल से पीछे फंसे लोगों को रात में नहीं निकाला जा सका. इन सभी 1700 लोगों को रात आर्मी कैंप में ही गुज़ारनी पड़ी और अगले दिन सुबह 10 बजे तक ही निकाला जा सका. कुछ न्‍यूज़ पोर्टल पर आई ख़बरों में कैंपों की तस्‍वीरें नुमाया थीं. चेहरे खुश नज़र आ रहे थे. 

यकीनन फौज ने हर संभव मदद की होगी. फौज का जितना भी शुक्रिया अदा किया जाए वो कम ही होगा. फौजी भाई उस वक्‍़त हम सबके लिए देवदूत बनकर आए थे. ईश्‍वर उन सभी को उन कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए और शक्ति प्रदान करें और उनके परिवारों को हर संभव खुशियां अता करें. जवान सीमा पर खड़ा है, इसलिए न केवल हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं बल्कि सीमाओं के भीतर हम और हमारे परिवार भी सुरक्षित हैं. जय जवान, जय हिंद !

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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


© इस लेख को अथवा इसके किसी भी अंश का बिना अनुमति के पुन: प्रकाशन कॉपीराइट का उल्‍लंघन होगा। 

यहां भी आपका स्‍वागत है:



#nathula #rescueoperation #indianarmy #sikkim 

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

जोधुपर से जैसलमेर: एक यादगार रोड ट्रिप | Jodhpur to Jaisalmer.

जोधुपर से जैसलमेर: एक यादगार रोड ट्रिप

Jodhpur to Jaisalmer


उतरती जनवरी के साथ ही उत्‍तर भारत की फिज़ा में नरमाई घुलने लगी है। सुबह अब चुभती नहीं बल्कि गुलाबी ठंड चेहरे को नर्म और मखमली हाथों से छूकर दिन की शुरूआत कराती है। इससे पहले कि मौसम का मिजाज सूरज की तपिश से लाल हो, मैंने रंगीले राजस्‍थान के एक रंगीले हिस्‍से से मुलाक़ात तय कर ली थी। यों समझिए कि 15 फरवरी तक के ये दिन मौसम की आखिरी मौहल्‍लत हैं जोधपुर-जैसलमेर जैसे गर्म मिजाज़ इलाकों की नज़ाक़त से भरी मेहमाननवाज़ी का आनंद लेने के लिए। 

किसी काम के सिलसिले में जोधपुर आना हुआ। हुआ कुछ यूं कि तीन दिन की इस यात्रा में दो दिन जोधपुर में ही निपट गए। इधर जैसलमेर के लिए ले दे कर केवल एक दिन बचा था। एक घुमक्‍कड़ को अगर एक दिन मिल जाए तो वो पूरी दुनिया नाप देना चाहता है। कुछ ऐसा ही हाल अपना भी था। अब एक दिन में जोधपुर से जैसलमेर तक आने-जाने में लगभग 600 किलोमीटर का सफर तय कर उसी दिन वापिस जोधपुर लौटना आसान काम तो कतई नहीं था। इस तूफानी दौरे के लिए तो बढि़या सारथी की जरूरत थी। तभी ख्‍याल आया भरोसेमंद सवारी कार रेंटल सर्विस का और जोधपुर से जैसलमेर के लिए झटपट ऑनलाइन कैब बुक कर डाली

इस बार इत्‍तेफ़ाक से मेरे एक मित्र भी मेरे साथ थे जो खुद राजस्‍थान से हैं और घुमक्‍कड़ी का शौक रखते हैं। अब दो घुमक्‍कड़ मिल जाएं तो हौसला दोगुना नहीं चार गुना हो जाता है। हम तैयार थे। गूगल मैप बता रहा था कि जोधपुर से जैसलमेर तकरीबन 277 किलोमीटर पड़ेगा। 

अब जब हम जैसलमेर तक हिम्‍मत कर ही रहे थे तो दिल जैसलमेर से तकरीबन 40 किलोमीटर आगे सम में रेत के धोरों पर ढ़लते सूरज को देखने के लिए भी मचल उठा। ड्राइवर से बात की तो वह हमारे हौंसले देखकर हंस पड़ा और बोला कि सब दिखा दूंगा, लेकिन आपको सुबह 5 बजे से पहले जोधपुर छोड़ना होगा। 

मोटा-मोटा अंदाजा लगाया तो साफ हो गया कि हम सम सैंड ड्यून्‍स (Sam Sand Dunes) तक की यात्रा निपटा कर रात 10-11 बजे तक जोधपुर लौट सकते हैं। हमने उसका हुक्‍म सर आंखों पर लिया और कुछ घंटों की नींद भरने के बाद अगली सुबह ठीक 5.15 पर सफर शुरू कर दिया।

जैसे ही जैसलमेर की राह पकड़ी, एक चमचमाते हुए शानदार नेशनल हाइवे नंबर 125 ने हमारा स्‍वागत किया। ड्राइवर ने बताया कि राजस्‍थान में सड़कों का जाल बहुत अच्‍छा है और खासकर यहां हाइवे बहुत अच्‍छी हालत में हैं। जैसलमेर को जाने वाला ये हाइवे सामरिक दृष्टि से भी बहुत महत्‍वपूर्ण है। जोधपुर से जैसलमेर तक बीच-बीच में इस हाइवे के दोनों ओर फौजी ठिकाने बने हुए हैं मगर कहां कितनी फौज और साजो-सामान मौजूद है इसका पता नहीं लगाया जा सकता। कुछ निशान हैं सड़क के किनारे जिन्‍हें सिर्फ फौज के लोग ही समझ सकते हैं। इस पूरे इलाके पर फौज की अच्‍छी पकड़ थी इस बात की तस्‍दीक हाइवे से लगातार गुज़रने वाले फौजी ट्रक कर रहे थे।

जोधपुर छोड़े हमें कोई दो घण्‍टे हो आए थे और चाय की तलब और जोर मारने लगी थी। दरअसल चाय तो बहाना है गाड़ी में पड़े शरीर को सीधा करने, हड्डियों को थोड़ा पैम्‍पर करने और इस बहाने ड्राइवर को थोड़ा सुस्‍ताने का मौका देने का। और इससे भी ज्‍यादा किसी रोड ट्रिप के बीच कहीं ठहर कर सफ़र के रोमांच को चाय की चुस्‍की में महसूस करने का। 

हाइवे के एक ओर अलसाया सा ढ़ाबा नज़र आ रहा था। गूगल मैप नज़र डाली तो कोई धीरपुरा नाम की जगह थी। बस यहीं पहला पड़ाव डाला गया। उस अंधेरे हम चाय के तलबगारों के आने से ही ढ़ाबे में काम करने वालों की नींद टूटी। बड़ी खुशी-खुशी चाय तैयार की गई। कड़क अदरक वाली चाय ने ठंड की सुरसुरी को तुरंत दूर कर दिया और उधर सूरज की किरणें बस अंगडाई लेती हुई दि‍खने लगी थीं।
कुछ यूं कदमताल करते मिले रेत के टीले  

हाइवे पर जहां-जहां काम चल रहा था। कुछ ही देर में सड़क के बाईं ओर रेत के टीलों ने हमारे साथ चलना शुरू कर दिया। दूर कहीं पवनचक्कियां भी झूमती नज़र आ रही थीं। यूं ही चलते-चलते हम यात्रा के पहले पड़ाव पोकरण आ पहुंचे। यहां से हमें एक और मित्र को अपने साथ लेना था। पोकरण तो आप जानते ही होंगे। यहीं भारत ने दो परमाणु परीक्षण किए थे। पहला 1974 में जिसका कोड नेम स्‍माइलिंग बुद्धा था और दूसरा 1998 में ऑपरेशन शक्ति। 

मगर इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि न्‍यूक्लियर टेस्‍ट की वास्‍तविक जगह दरअसल पोकरण नहीं बल्कि यहां से तकरीबन 26 किलोमीटर दूर एक जगह खेतोलाई है। कुछ ही देर में हम पोकरण गांव में अपने मित्र के घर पर थे। झटपट चाय-नाश्‍ते ने धीमी पड़ती बैटरी में प्राण फूंक दिए और हम हम तीन लोग आगे के सफर पर निकल पड़े। लेकिन इस तीसरे साथी ने सड़क पर आते ही यात्रा में एक और पड़ाव राम देवरा जोड़ दिया।


पोकरण जैसे गांवों में भी कलात्‍मकता अभी जिंदा है

पोकरण के घरों की छत पर 

रोड ट्रिप का यही सबसे बड़ा आनंद है कि इसमें आप जब जी चाहे परिवर्तन कर सकते हैं। अब हवाई या रेल यात्रा में ये सुख कहां। बस फिर क्‍या था पोकरण से जैसलमेर की सड़क पर आगे-बढ़ते हम अचानक बाईं ओर राम देवरा की ओर निकल लिए। 

राम देवरा दरअसल हिंदुओं और मुस्लिमों के आराध्‍य संत बाबा रामदेव की स्‍थली है और न केवल राजस्‍थान बल्कि आस-पास के सभी राज्‍यों से हजारों की संख्‍या में उनके भक्‍त यहां आते हैं। यहां शायद सावन के महीने में कोई मेला लगता है। लोगों का कहना है कि मेले के वक्‍़त यहां हाइवे पर आधी सड़क पैदल चलने वाले भक्‍तों से भर जाती है और मंदिर में भी दर्शन करना आसान नहीं होता है। मगर उस दिन वहां कोई भीड़ नहीं थी। हमने बड़े सुकून से दर्शन किए और थोड़ी देर मंदिर परिसर के शांत माहौल में बिताए और फिर वापिस अपने सफ़र पर लौट लिए।


जैसलमेर की ओर जाने वाली सड़क एक बार फिर दोनों तरफ के वीरान इलाके को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी। आगे चलकर ये सड़क कुछ दिलचस्‍प नाम वाले गांवों से होकर गुज़री। जैसे कि एक गांव का नाम चाचा था तो एक दूसरे गांव का नाम लाठी था। भला लाठी भी कोई नाम होता है गांव का। अब होता है तभी तो था। 

लाठी पार करते ही सड़क के एक ओर ऊंटों का जैसे कोई मेला लगा था। हमने गाड़ी रोक ली और इस ऊंटों के इस जमघट को निहारने लगे। ऊंटों के एक बुजुर्ग मालिक से पूछा कि ये लश्‍कर आखिर कहां जा रहा है तो उन्‍होंने बताया कि वे इन ऊंटों को बेचने के लिए ले जा रहे हैं। कुछ खरीदार इसी जगह पर आकर भी ऊंट खरीद कर ले जाते हैं। जैसे दिल्‍ली जैसे इलाकों में लोग अपने घर में गाडियों को संपत्ति की तरह देखते हैं ठीक वैसे ही राजस्‍थान के इस इलाके में ऊंट लोगों के लिए संपत्ति से कम नहीं।



जैसलमेर वॉर म्‍यूजियम 












उन बुज़ुर्गो से विदा लेकर हम एक बार फिर तेज रफ्तार से जैसलमेर की ओर बढ़ने लगे। तभी अचानक मेरी नज़र दाईं ओर एक बड़े कॉम्‍पलेक्‍स पर पड़ी। इसके मुख्‍य द्वार पर लगे बोर्ड पर लिखा था जैसलमेर वॉर म्‍यूजियम। मैंने एकदम से ड्राइवर को रुकने के लिए कहा। ड्राइवर ने बताया कि ये म्‍यूजियम अभी दो एक साल पहले ही बना है और हमें जरूर देखना चाहिए। सुबह जोधपुर छोड़ते वक्‍़त तय किया गया था कि हम बिना रुके सीधे जैसलमेर ही पहुंचेंगे और यहां एक के बाद एक पड़ाव जुड़ते चले जा रहे थे। ड्राइवर ने मन पढ़ लिया और बोला कि अभी हमारे पास समय है आप 20 मिनट में इसे देख सकते हैं। 

बस अगले 20 मिनटों में इस म्‍यूजियम में भारत-पाकिस्‍तान के तमाम युद्धों से जुड़े तथ्‍यों, जवानों की वीर-गाथाओं, युद्ध में जब्‍त किए गए पाकिस्‍तानी टैंकों, युद्धक विमानों, ट्रकों के साथ-साथ परमवीर चक्र और महावीर चक्र विजेताओं के स्‍टेच्‍यू को निहारते हुए गुजरे। तो ठीक 20 मिनट बाद हम एक बार फिर सड़क पर फर्राटा भर रहे थे। जैसलमेर अब बस 12 किलोमीटर ही दूर था मगर एक विशाल रेगिस्‍तान के बीच सांप की तरह बलखाती सड़क हमें तेजी से अपनी मंजिल की ओर लिए जा रही थी।


मगर सैकड़ों किलोमीटर के रेगिस्‍तान को पीछे छोड़ आने के बाद इस वीराने को देख-देख कर मन में एक सवाल उठने लगा कि जोधपुर जैसे बड़े शहर से इतनी दूर रेगिस्‍तान के बीच जैसलमेर नाम की कोई जगह है भी तो वह इस हजारों मील के वीराने में कैसे बसी हुई है? जवाब बड़ा दिलचस्‍प है। 

दरअसल जैसलमेर सदियों से चीन से तुर्की और इटली को जोड़ने वाले 2000 साल पुराने सिल्‍क रूट पर बसा एक शहर रहा है। लगभग 400 साल पहले व्‍यापारियों और यात्रियों ने मध्‍य एशिया में पामीर के पहाड़ों की बजाय इस थार मरुस्‍थल के बीच से होकर गुज़रना ज्‍यादा बेहरत समझा। इसीलिए जैसलमेर के आस-पास तमाम कारणों से उजड़ गए कुलधरा, खाबा और कनोई जैसे इलाकों के अवशेष इस बात की गवाही देते हैं कि ये इलाका यात्रियों का पसंदीदा पड़ाव हुआ करता था। मगर अब आजादी के बाद तो सरकार और फौज ने पाकिस्‍तान बॉर्डर के निकट एक शहर को बसाए रखना तमाम कारणों से जरूरी समझा है। 

सरकार बेहिसाब पैसा यहां के विकास के लिए खर्च करती है। मगर फिर भी जिंदगी इतनी आसान नहीं है। जिंदगी की जरूरत की चीजें यहां तक पहुंचते-पहुंचते मंहगी हो जाती हैं। पर्यटन इस इलाके के लोगों की जीवन-रेखा है और अक्‍तूबर से लेकर फरवरी के आखिर तक का वक्‍़त यहां का सीजन है। इसके बाद तो जैसलमेर की जमीन बस आग ही उगलती है। इसीलिए यहां फरवरी की शुरूआत में आयोजित होने वाले मरू महोत्‍सव ने इंटरनेशनल टूरिस्‍ट मैप पर इस इलाके की पहचान कायम कर दी है।

ड्राइवर से बातें चलती रहीं और सफर अब और दिलचस्‍प हो चला था। असल में रोड ट्रिप में अगर ड्राइवर इलाके की जानकारी रखता हो तो आप कम समय में ही इलाके के इतिहास, भूगोल और संस्‍कृति की नब्‍ज़ पकड़ लेते हैं। इस आउटस्‍टेशन कार रेंटल सर्विस के बारे में दोस्‍तों से काफी तारीफ सुन चुका था कि ये एक सस्‍ती और भरोसेमंद कार रेंटल सर्विस है और ड्राइवर के साथ अब तक के सफर ने इस कार सेवा को चुनने के मेरे फैसले को सही साबित कर दिया था। 

बातों-बातों में ही हम जैसलमेर के नज़दीक आ पहुंचे। कई किलोमीटर दूर से ही जैसलमेर फोर्ट या कहिए कि सोनार किला नज़र आने लगा। लगा कि दो-चार मिनट में ही हम फोर्ट के सामने होंगे। लेकिन अभी कहां। रोड ट्रिप आपको हर कदम पर न चौंकाए और छकाए तो रोड ट्रिप काहे की। हम जैसलमेर शहर में प्रवेश करते, इससे पहले ही गड़ीसर लेक ने अपनी ओर खींच लिया।

गड़ीसर लेक दरअसल जैसलमेर के पहले शासक राजा रावल जैसल द्वारा बनवाई गई झील है जिसका बाद में महाराजा ग‍डीसीसार ने पुननिर्माण और जीर्णोद्धार करवाया। यहां के सूर्योदय और सूर्यास्‍त के नज़ारे हमेशा यादों में बस जाते हैं। इस लेक से बाहर निकले तो पेट में चूहे दौड़ने लगे। गाड़ी को सीधे बाजार में मचान नाम के रेस्‍तरां के बाहर रोका। पहली मंजिल पर बने इस रेस्‍तरां में बैठकर तसल्‍ली से गोल्‍डन फोर्ट को निहारते हुए भोजन किया गया। उस दोपहर और फोर्ट के उस दिलकश नजारे को कभी नहीं भुलाया जा सकता।

गडीसर झील 

गडीसर झील

गोल्‍डन फोर्ट का प्रवेश द्वार
अब तक घड़ी में दोपहर का डेढ़ बज चुका था। अब शुरू हुआ जैसलमेर किले को भीतर से समझने का सिलसिला। अगले दो-ढ़ाई घंटे हमने पूरे किले का करीब से जाना और समझा। इसके बाद बारी आई पटवों की हवेलियों की। हर चीज अपने आप में पूरा इतिहास समेटे हुए है। उन हवेलियों में की गई बारीक कारीगरी तो बस मन ही मोह लेती है और पहली ही नज़र में हैरान कर देती है। 

किले से बाहर निकले तो रावणहत्‍था पर फिल्‍मी गीतों की तान पीछे तक चली आईं। उस मधुर स्‍वर लहरी के बीच हम सड़क पर आए तो पाया कि सूर्यास्‍त में अभी देर है। सड़क पर हम जहां खड़े थे वहां से एक रास्‍ता बाईं ओर कुलधरा तक जाता था। समय हाथ में था तो हम भी कुलधरा की ओर हो लिए। अब जब यहां तक आ ही गए हैं तो कुलधरा से भी मिल लेते हैं। 

कुलधरा के किस्‍से तो हम सभी सुनते ही आए हैं। अगली पोस्‍टों में इन जगहों के बारे में विस्‍तार से बात करूंगा मगर यहां संक्षेप में बताता चलूं कि कुलधरा के बारे में लोगों का मानना है कि कुलधरा वो बदकिस्‍मत गांव है जहां के बाशिंदों यानि कि पालिवाल ब्राह्मणों को वहां के दीवान सालिम सिंह के जुल्‍मों से तंग आकर इसे रातों- रात खाली करना पड़ा था। और उन्‍होंने ही इस गांव को शाप दिया था कि जैसे हम अपने गांव और घरों में नहीं रह पा रहे हैं इसी तरह कोई भी यहां नहीं बस पाएगा। बस तभी से भुतहे किस्‍से और कहानियां कुलधरा को जब-तब हमारे सामने लेकर आते रहते हैं।


सूर्यास्‍त में अब मुश्किल से आधा घंटा बचा था। और आधे घंटे बाद हम सम के उन मनमोहक रेत के टीलों के ऊपर थे जहां से ढ़लते को सूरज को देखने के लिए देश और विदेशों के सैलानी पहले से मजमा लगाए बैठे थे। हमने थोड़ी देर ऊंटों की सवारी की और फिर दिन भर की थकान उतारने के लिए खुद को रेत के हवाले कर दिया। रेत जितनी जल्‍दी गर्म होती है उतनी ही जल्‍दी ठंडी भी। रेत में पैर धंसाए हम देर तक वहां बैठे रहे और सामने सूरज किसी सुनहरी तश्‍तरी की तरह रेत में उतरता हुआ दिखने लगा।

ये नज़ारा अद्भुत था। दूर कहीं टैंटों से गीत-संगीत की आवाजें आने लगीं। वहां रात के उत्‍सव की तैयारियां जोर पकड़ रही थीं और उधर हमारी कार हमें वापिस जोधपुर ले जाने के लिए रेत के टीलों के उस पार हमारा इंतज़ार कर रही थी। बस, उन ढ़लती किरणों के बीच हम जैसलमेर को अलविदा कह कर तेजी से अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले। जोधुपर-जैसलमेर की ये रोड ट्रिप मुझे ताउम्र याद रहेगी। आप अपनी अगली रोड ट्रिप पर कहां जा रहे हैं ?

रामदेवरा बाबा के मंदिर में दीनाराम भील के साथ...इनकी मूंछें कमाल की हैं. हैं कि नहीं ?


सोने सा चमकता ....सोनार किला

सम में रेत के धोरों पर ढ़लता सूरज



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