यायावरी yayavaree: विरासत
विरासत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
विरासत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

स्‍वदेशी आंदोलन की स्‍मृतियों को समर्पित है राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस


स्‍वदेशी आंदोलन की स्‍मृतियों को समर्पित है राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस

National Handlooms Day and Swadeshi Movement


आज हम छठा राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस मना रहे हैं. इस बार #Vocal4Handmade हैशटैग के साथ देश में हाथ से बने कपड़ों यानी कि हथकरघा उत्‍पादों के प्रयोग का आह्वान किया जा रहा है. ये एक तरह से #Vocalforlocal का ही विस्‍तार है. हैंडलूम्‍स पर बने उत्‍पादों और इससे जुड़े उद्योग की ओर विशेष रूप से ध्‍यान देने के लिए भारत सरकार 2015 से हर वर्ष 7 अगस्‍त को राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस का आयोजन करती आ रही है. कितना विचित्र है कि हथकरघा की समृद्ध विरासत वाले देश को आज हथकरघा को जिंदा रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. राष्ट्रीय हथकरघा जनगणना के अनुसार आज देश में लगभग 27.83 परिवार हथकरघा और इससे जुड़े काम-काज से जुड़े हुए हैं और दुनिया का लगभग 85 प्रतिशत हथकरघा वस्‍तुओं का उत्‍पादन भारत में ही होता है. दुनिया का सबसे बेहतर हुनर और कच्‍चा माल देश में उपलब्‍ध है मगर हम फिर भी हथकरघा को उसका उचित सम्‍मान नहीं दे सके.

साड़ियाँ बनाने वाले कारीगरों की उंगलियां जब हथकरघे पर थिरकती हैं तो उसका पसीना और हुनर मिलकर ताने-बाने से जो जादू तैयार करते हैं वो सर चढ़ कर बोलता है. हैंडलूम की साड़ियों के प्रति लोगों की दीवानगी का आलम ये है कि इसके क़द्रदान आज भी कारीगरों को ढ़ूंढ़ते हुए तमाम शहरों की तंग गलियों में घूमते हुए मिल जाएंगे. फिर भी हथकरघा अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष करता नज़र आता है. क्‍या वजह है कि उत्‍तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक बनारसी, कांजीवरम, पैठणी, चंदेरी, तसर सिल्‍क, जामदानी, मंगलागिरी, माहेश्‍वरी, पटोला साड़ियों और कश्‍मीरी शॉल के कद्रदानों के देश में इनके कारीगरों को रोजी-रोटी जुटाना मुश्किल हो रहा है? कहां चूक गए हम अपनी इतनी समृद्ध विरासत को सहेजने में? क्‍या राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस जैसे आयोजनों से निकलेगी कोई राह? और क्‍या संबंध है राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस का हमारे स्‍वतंत्रता आंदोलन से? आइये इन्‍हीं कुछ सवालों के जवाब ढूंढने की कोशि‍श करें इस खास अवसर पर.
 
Handlooms Sareees, हथकरघा साड़ी, कांजीवरम साड़ी
कांजीवरम की हैंडलूम की साड़ियाँ


7 अगस्‍त को ही क्‍यों मनाते हैं राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस?

राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस के लिए 7 अगस्‍त का दिन चुने जाने के पीछे एक एतिहासिक महत्‍व है. दरअसल ये बात सन 1903 की है जब दिसंबर महीने में पूरे देश में ये बात फैल गई कि अंग्रेज सरकार बंगाल का विभाजन करने जा रही है. देश भर में बैठकें होने लगीं और विरोध के स्‍वर उठने लगे. सुरेंद्रनाथ बनर्जी और कृष्‍ण कुमार मिश्र उस समय के अख़बार हितवादी और संजीवनी में ने कई लेख लिखे.
विदेशी कपड़ों का बहिष्‍कार

फिर भारत के स्‍वतंत्रता संग्राम का वो महत्‍वपूर्ण पड़ाव भी आया जब 7 अगस्‍त, 1905 को कोलकाता के टाउन हाल में स्‍वदेशी आंदोलन शुरू किए जाने और विदेशी वस्‍तुओं के बहिष्‍कार का एलान कर दिया गया. इसके बाद राष्‍ट्रवादी नेताओं ने बंगाल के विभिन्‍न इलाकों का दौरा किया और लोगों से मैनचेस्‍टर में बने कपड़ों का बहिष्‍कार करने का आह्वान किया. और धीरे-धीरे ये आंदोलन पूरे देश में फैल गया. जगह-जगह विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाने लगी. इस समय महात्‍मा गांधी ने स्‍वदेशी वस्‍त्र तैयार करने का मंत्र देकर इस आंदोलन को बहुआयामी दिशा प्रदान कर दी थी. घर-घर चरखे चलने लगे और लोग खादी के कपड़े पहनने लगे. 

जेल में चरखा चलाते महात्‍मा गांधी
जेल में चरखा चलाते महात्‍मा गांधी

बेशक स्‍वदेशी आंदोलन बंगाल का विभाजन नहीं रोक पाया मगर इसके दूरगामी परिणाम रहे. लोग कपड़ों के मामले में आत्‍मनिर्भर होने लगे, लोगों को रोजगार मिलने लगा और विदेशी माल के आयात में कमी होने लगी. अंग्रेज सरकार बौखलाने लगी और इस आंदोलन का दमन करना शुरू कर दिया. इससे लोगों में राष्‍ट्रीयता की भावना पनपने लगी जिसने स्‍वतंत्रता आंदोलन में आम जनमानस को उठती राष्‍ट्रीयता की लहर से जुड़ने और सीधे तौर पर भागीदार बनने का एक बहाना दे दिया. जुलाई 1903 में सरस्‍वती पत्रिका मेंं महावीर प्रसाद द्विवेेदी की एक कविता प्रकाशित हुुुुई थी : 

विदेशी वस्त्र हम क्यों ले रहे हैं?

वृथा धन देश का क्यों दे रहे हैं?

न सूझै है अरे भारत भिखारी!

गई है हाय तेरी बुद्धि मारी!

हजारों लोग भूखों मर रहे हैं;

पड़े वे आज या कल कर रहे हैं।

इधर तू मंजु मलमल ढ़ूढता है!

न इससे और बढ़कर मूढ़ता है।

महा अन्याय हाहा हो रहा है;

कहैं क्या नहीं जाता कुछ कहा है।

मरैं असग़ार बिसेसर और काली;

भरैं घर ग्राण्ट ग्राहम और राली।

स्वदेशी वस्त्र की हमको बड़ाई,

विदेशी लाट ने भी है सुनाई।

न तिस पर भी हमे जो लाज आवै,

किया क्या हाय रे जगदीश! जावै।

न काशी और चन्देरी हमारी;

न ढाका, नागपुर नगरी बिचारी।

गयी है नष्ट हो; जो देश भाई!

दया उनकी तुम्हें कुछ भी न आई।

अकेला एक लुधियाना हमारा;

चला सकता अभी है काम सारा।

फिरैं, तिस पर, भला, जो और के द्वार;

हमें, फिर, क्यों नहीं सौ बार धिक्कार?

स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार कीजै,

विनय इतना हमारा मान लीजै।

शपथ करके विदेशी वस्त्रा त्यागो;

न जावो पास, उससे दूर भागो।

अरे भाई! अरे प्यारे! सुनो बात,

स्वदेशी वस्त्र से शोभित करो गात।

वृथा क्यों फूंकते हो देश का दाम,

करो मत और अपना नाम बदनाम!


क्‍यों बदहाल हो गई हथकरघा की दुनिया ?

1947 में देश आजाद हुआ. 80 के दशक तक तो सब ठीक-ठाक रहा. एक तरह से हथकरघा ने सुनहरा दौर देखा. लेकिन सन 1985 के बाद सूत व कपास की कीमतों में खूब तेजी आने लगी और हैंडलूम के कारोबार सिमटने पर मजबूर हो गए. उधर धीरे-धीरे देश विदेशी बाज़ारों के लिए खुलने लगा तो नए विदेशी उत्‍पादों के सामने एक बार फिर हथकरघा उद्योग चरमराने लगा. ये सब अचानक नहीं हुआ....सब बहुत आहिस्‍ता, आहिस्‍ता. सबने जैसे हाथ छोड़ दिया हथकरघा का. हथकरघा के बुनकर हुनरमंद होने के बावजूद अपने वाजिब मेहनताने के लिए भी तरसने लगे.

पूरे परिवार केे दिन भर खटने के बाद भी यदि कारीगरों को उनकी मेहनत से घर का चूल्‍हा-चौका ठीक से चलाने लायक आमदनी न हो तो कोई इस पेशे में कब तक बना रहेगा. सो, धीरे-धीरे लोग इस काम को छोड़ते गए और ज्‍यादा बदहाली आज से पिछले दसेक सालों के दौरान देखने में आई. अब देश में लोगों को और तमाम तरह के काम मिलने लगे जहां दिन की मजदूरी इस काम से ज्‍यादा थी. 

हाल के सालों में भी नोटबंदी कहर बन कर टूटी इन कारीगरों पर. हाथ से मुंह तक सीमित रहने वाले हज़ारों कारीगर एक बार फिर मजबूर हो गए. यहां तक की बुनकरी से जुड़े लोगों ने ये पुश्‍तैनी काम छोड़़ रिक्‍शा चलाना तक मुनासिब समझा. अब एक बार फिर कोरोना महामारी कारीगरों की कमर तोड़ रही है. 

मैं देश के तमाम इलाकों में बुनकरों से मिला हूँ उनमें से अधिकांश का कहना है कि उनके बच्‍चे अब ये काम नहीं करना चाहते क्‍योंकि यहाॅँ अब इज्‍़ज़त की रोटी कमाना मुश्किल हो चला है. 
हैंडलूम के लिए धागे
हैंडलूम के लिए धागे

लोगों का मोहभंग क्‍यों हुआ हथकरघा उत्‍पादों से ?

हथकरघा उद्योग की माली हालत के बीच अव्‍वल तो अच्‍छे उत्‍पाद मिलने मुश्किल हो गए. दूसरे इन उत्‍पादों की ऊँची कीमतें इन्‍हें आम आदमी की पहुंच से बाहर करने लगीं. और तीसरा सबसे बड़ा कारण गुणवत्‍ता के लिए हॉलमार्क जैसी किसी व्‍यवस्‍था के अभाव में असली और नकली उत्‍पादों में फ़र्क करना बड़ा मुश्किल होता गया. बाज़ार में हैंडलूम प्रोडक्‍ट्स के नाम पर बिकने वाले कपड़ों की हालत ये है कि आप अलसी और नकली को आसानी से पहचान ही नहीं सकते. अब ऐसे में कौन मंहगे कपड़े खरीद कर ठगा जाना पसंद करेगा. और कहीं असल उत्‍पाद मिल भी रहे थे तो उसका लाभांश कारीगरों तक ही नहीं पहुंच पाता था. सब मिडिल मैन की जेब के हवाले. 

एक और बड़ी समस्‍या पावरलूम से हैंडलूम को मिलने वाली चुनौती थी. कारीगर मेहनत से जो डिजाइन हथकरघा उत्‍पादों के लिए तैयार करते, पावरलूम वाले उसकी नकल कर धडल्‍ले से हूबहू वैसे ही उत्‍पाद बहुत कम समय में तैयार कर देते. अच्‍छे प्रोडक्‍ट न मिलने के चलते धीरे-धीरे लोगों का भी हथकरघा से मोभंग होता गया. कुछ निजी उद्यमियों और कंपनियों ने ज़रूर अपने स्‍तर पर हथकरघा को बढ़ावा देने की कोशिश की लेकिन राष्‍ट्रीय स्‍तर पर इस दिशा में एक आंदोलन जैसा कुछ नहीं था.

राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस ने बदलनी शुरू की कहानी

Handloom Mark, हथकरघा मार्क
हैंडलूम मार्क...गुणवत्‍ता का आश्‍वासन
2015 में जब सरकार ने पहले राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस की शुरुआत की तो कहानी बदलनी शुरू हो गई. इस पहले ही आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय हथकरघा या कहिए कि इंडिया हैंडलूम ब्रांड की शुरुआत की. उधर असली हैंडलूम उत्‍पादों की पहचान में ग्राहकों की सहूलियत के लिए हैंडलूम मार्क भी अब प्रचलन में है. ये मार्क अब ग्राहकों को इस बात की तसल्‍ली देता है कि उत्‍पाद 100 प्रतिशत असली है.
 

प्रधानमंत्री जी का कहना था कि हथकरघा गरीबी से लड़ने में एक अस्त्र साबित हो सकता है, उसी तरह जैसे स्वतंत्रता के संघर्ष में स्वदेशी आंदोलन था. प्रधानमंत्री जी का कहना था कि खादी और हथकरघा उत्पाद भी वही उत्साह प्रदान करते हैं, जैसा कि मां के प्रेम से प्राप्त होता है.
इंडिया हैंडलूम ब्रांड का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री
इंडिया हैंडलूम ब्रांड की शुरुआत करते प्रधानमंत्री 

प्रधानमंत्री श्री मोदी ने 2015 में पहले राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस की शुरुआत करते हुए कहा था कि सभी परिवार घर में कम से कम एक खादी और एक हथकरघा का उत्पाद जरूर रखें. प्रधानमंत्री ने पांच एफ: फार्म टू फाइबर, फाइबर टू फैब्रिक, फैब्रिक टू फैशन और फैशन टू फॉरेन का मंत्र दिया जो हथकरघा के पुनर्रुद्धार के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. तमाम अवसरों पर प्रधानमंत्री और वस्‍त्र मंत्री स्‍वयं हथकरघा पर बने कपड़ों में नज़र आने लगे और इस सबका आम लोगों पर काफी असर हुआ. राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस की शुरुआत के साथ ही हर वर्ष इस आयोजन के साथ हथकरघा उद्योग में नए प्राण फूंकने का प्रयास होता रहा है. 

आपको याद होगा कि ऐसे ही एक राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस पर वस्‍त्र मंत्री श्रीमती स्‍मृति ज़ूबिन इरानी ने #Iwearhandlooms शीर्षक से एक हैशटैग चलाया जिसे जनता ने हाथों-हाथ लिया. बड़े-बड़े सेलेब्रिटी इस आह्वान पर उनके साथ जुड़े और सोशल मीडिया हैंडलूम प्रोडक्‍ट्स के चित्रों से भर गया. हथकरघा साडि़यां एक बार फिर से चर्चा में थीं. कारीगरों को भी सरकारी स्‍तर पर तमाम तरह की इमदाद और बुनकर सेवा केंद्रों के जरिए सहूलियतें दी जानी शुरू हुईं जिनमें हर साल इजाफ़ा ही हो रहा है.

आम आदमी की पहुंच होगी तभी फलेगी-फूलेगी ताने-बाने की दुनिया


इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हथकरघा उत्‍पाद अपनी क्‍वालिटी और उनमें लगी मेहनत की वजह से पावरलूम या सिंथेटिक उत्‍पादों की तुलना में मंहगे होते हैं. इसी वजह से ये आम आदमी की ज़िंदगी का हिस्‍सा नहीं बन पाते हैं. जब तक हैंडलूम उत्‍पाद आम आदमी की पहुंच में नहीं होंगे तब तक हम कारीगरों की आय में वृद्धि या इस उद्योग के विकास की परिकल्‍पना नहीं कर सकते.

मैं पिछले साल कांचीपुरम के एक शो रूम में मां के लिए कुछ हैंडलूम साड़ियाँ देख रहा था. साड़ियों की कीमतें यकीनन बजट पर भारी पड़ती नज़र आ रही थीं. मगर साड़ियों की ख़ूबसूरती को देख हिम्‍मत कर एक दो साड़ियाँ ले लीं. यही हर मध्‍यवर्गीय घर की कहानी है. कीमती साड़ियाँ कभी-कभी ही ली जाती हैं. इनकी लागत थोड़ी और कम हो सके तो ये आम आदमी के बीच और भी अधिक लोकप्रिय हो सकेंगी. 

Handlooms Sareees, हथकरघा साड़ी, कांजीवरम साड़ी
कांचीपुरम में कांजीवरम साड़ियाँ 

इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी बाकी है. इसके लिए हैंडलूम कलस्‍टरों के पास कच्‍चे माल खासकर धागों की सहज और सस्‍ती उपलब्‍धता, सस्‍ती दरों पर कर्ज की उपलब्‍धता और हथकरघा उत्‍पादों की मार्केटिंग सुविधाएं बहुत ज़रूरी हैं. यही नहीं, बनुकरों का स्किल अपग्रेडेशन और प्रशिक्षण भी महत्‍वपूर्ण पक्ष हैं.

कुछ संजीदा सरकारी प्रयासों से उम्‍मीद

राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस,2020 के अवसर पर सरकार ने #Vocal4Handmade के तहत कई नई पहलों की घोषणा की है जिससे आने वाले वक्‍़त में यकीनन हमारे बुनकरों और हथकरघा उद्योग से जुड़े उद्यमियों को कुछ ठोस मदद मिल पाने की उम्‍मीद की जा सकती है:
  • राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के अवसर पर वस्‍त्र मंत्रालय आज क्राफ्ट हैंडलूम विलेज नामक एक पहल शुरू कर रहा है, इसके तहत महत्वपूर्ण पर्यटन सर्किट पर देश के चुनिंदा हैंडलूम और हैंडीक्राफ्ट पॉकेट्स में क्राफ्ट विलेज विकसित किया जाएगा.
  • हैंडलूम क्षेत्र में डिजाइन उन्मुख उत्कृष्टता बनाने के लिए निफ्ट ने 28 डिजाइन और संसाधन केंद्र स्थापित करने की योजना बनाई है, वर्तमान में 9 डीआरसी वाराणसी, अहमदाबाद, श्रीनगर, दिल्ली, मुंबई, गुवाहाटी, भुवनेश्वर, कांचीपुरम और जयपुर में काम कर रहे हैं.
  • बुनकरों की आय को बढ़ाने के उद्देश्य से, सरकारी ई-मार्केट प्लेस (GeM) पोर्टल पर 35 लाख हथकरघा श्रमिकों द्वारा प्रदर्शनियों और विपणन कार्यक्रमों के बदले में विपणन के वैकल्पिक साधनों की दिशा में बुनकरों को प्रोत्साहित किया जा रहा है.
  • GeM पर सक्रिय रूप से काम करने वाले श्रमिक अपने माल को विभिन्न सरकारी विभागों को अब सीधे बेच सकते हैं. वर्तमान में 4196 बुनकर जुलाई 2020 तक GeM पोर्टल पर आ चुके हैं.
  • प्रधानमंत्री जी के आत्मनिर्भर भारतआह्वान की दिशा में, हैंडलूम एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल ने देश के विभिन्न कोनों से हैंडलूम बुनकरों और निर्यातकों को  अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ने का प्रयास किया है.
  • हथकरघा उत्पादों को एक सामूहिक पहचान प्रदान करने के उद्देश्य से, पारदर्शिता और दक्षता बढ़ाने के लिए हैंडलूम मार्क योजना को डिजिटल किया जा रहा है.
  • हैंडलूम मार्क योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए आज वीवर ऐप, उपभोक्ता ऐप व एडमिन ऐप लॉन्च किए गए, साथ ही कार्यान्वयन प्रक्रिया को पूरी तरह से डिजिटाइज़ करने और सेक्टर से संबंधित उपभोक्ताओं को सशक्त बनाने के लिए एक बैकेंड वेब पोर्टल भी स्थापित किया गया है.
  • हमारे बुनकरों और कारीगरों को सीधे मार्केटिंग लिंकेज देने के उद्देश्य से @TexMinIndia, NeGD के साथ मिलकर एक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म स्थापित करने की दिशा में काम कर रहा है.
  • वाराणसी में दीन दयाल हस्तकला संकुल को वाराणसी के हथकरघा की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाने, हथकरघा उत्पादों को विकसित करने और बढ़ावा देने के लिए 22 सितंबर 2017 को माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा उद्घाटन किया गया.


आज राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस के अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री जी ने देश के लोगों का आह्वान करते हुए कहा है कि हमें देश को सशक्‍त बनाने के लिए देश में बनी वस्‍तुओं का उपयोग करना ही होगा और अपने देश में बने सामानों का प्रचार-प्रसार भी करना होगा. इसमें कोई दो राय नहीं. 

अधिकांश लोग हथकरघा उत्‍पादों के बारे में जानते ही नहीं हैं. इन्‍हें लेकर उनके मन में तमाम तरह के संशय भी हैं. हम सभी का दायित्‍व है कि हम सब मिलकर हथकरघा उत्‍पादों को न केवल स्‍वयं बढ़ावा दें बल्कि औरों को भी इन्‍हें खरीदने और पहनने के लिए प्रेरित करें. सब मिलकर इस दिशा में कार्य करेंगे तभी हम अपनी इस अनूठी विरासत को बचाने में कामयाब हो सकेंगे. तभी इस तरह के दिवस भी सार्थक हो सकेंगे अन्‍यथा ये महज औपचारिका बनकर रह जाएंगे और हमारी आंखों के सामने से हमारी बेशकीमती विरासत मिट जाएगी.

National handlooms Day, Ministry of Textiles ad
वस्‍त्र मंत्रालय का विज्ञापन 

--------------------
सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 

© इस लेख को अथवा इसके किसी भी अंश का बिना अनुमति के पुन: प्रकाशन कॉपीराइट का उल्‍लंघन होगा। 

यहां भी आपका स्‍वागत है:
facebook: www.facebook.com/arya.translator

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

100 बरस बाद भी एक माफ़ी के इंतज़ार में है जलियांवाला बाग | Jalianwala Bagh.


कुछ घटनाएं देश की सामूहिक चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ जाती हैं. जलियांवाला बाग का नरसंहार भी एक ऐसी ही घटना थी जिसने न केवल पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया था बल्कि पूरी दुनिया के सामने ब्रिटिश हुकूमत के निकृष्‍टतम रूप को उजागर कर दिया था. समय का पहिया घूम कर 13 अप्रैल, 2019 को ठीक सौ साल बाद उसी जगह आ पहुंचा है जहां इस दर्दनाक घटना ने स्‍वतंत्रता संग्राम की दिशा और दशा दोनों को बदल कर रख दिया था. अमृतसर में अब तक बहुत कुछ बदल चुका है मगर जलियांवाला बाग (Jallianwala bagh) की दीवारों पर आज भी गोलियों के निशान बाकी हैं जो इतिहास की इस वीभत्‍स घटना की गवाही दे रहे हैं. मैंने आज से तकरीबन तीन साल पहले पहली बार जलियांवाला बाग को देखा और महसूस किया था. इत्‍तेफ़ाक से चंद रोज़ पहले एक बार फिर अमृतसर आना हुआ और मैं जलियांवाला बाग से लगती एक गली के होटल में ठहरा था. उस रोज़ भी अमृतसर में नींद जल्‍दी खुल गई तो सुबह की सैर के लिए मैं जलियांवाला बाग ही आ पहुंचा. बाग में घूमते हुए ही मुझे अचानक इस बात का ख्‍़याल आया कि इस 13 अप्रैल को इस घटना को ठीक 100 बरस हो जाएंगे. मैं अचानक से उस घटना को और करीब से महसूस करने लगा था.
Statue of Shaheed Udham Singh at Jallianwala Bagh
दरअसल जलियांवाला बाग की घटना को समझने के लिए हमें आज से 100 साल पहले उन दिनों अमृतसर और इसके आस-पास के इलाके में घट रही घटनाओं को समझना पड़ेगा. ये वो वक्‍़त था जब गांधी जी चंपारन, अहमदाबाद और खेड़ा में अपने सफल सत्‍याग्रह से उत्‍साहित थे और फरवरी, 1919 में उन्‍होंने अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रस्‍तावित रॉलेट एक्‍ट के खिलाफ देशव्‍यापी विरोध का आवाहन किया था. रॉलेट बिल वास्‍तव में आतंकवादी घटनाओं पर रोक लगाने की आड़ में भारतीयों की नागरिक स्‍वतंत्रता पर बंदिशें लगाने वाला कानून था और चुने हुए प्रतिनिधियों के विरोध के बावजूद जल्‍दबाज़ी में विधान परिषद में प्रस्‍तुत कर दिया गया था. पूरे देश को सरकार की ये हिमाक़त भारतीय जनता का अपमान लग रही थी और ये भी एक ऐसे वक्‍़त में जब विश्‍व युद्ध की समाप्ति के बाद यहां की जनता ब्रिटिश सरकार से कुछ संवैधानिक रिआयतों की उम्‍मीद कर रही थी. राजनेताओं के विरोध के संवैधानिक तौर-तरीके विफल हुए तो गांधी जी ने सत्‍याग्रह का प्रस्‍ताव रखा. इस प्रस्‍ताव का होम रूल लीग के लोगों ने समर्थन किया और गांधी जी के साथ आ गए. अब रातों रात होम रूल लीग के लोगों से संपर्क साधा जाने लगा और तय किया गया कि एक राष्‍ट्रव्‍यापी हड़ताल की जाएगी और उपवास और प्रार्थनाएं की जाएंगी. और ये भी तय किया गया कि कुछ खास कानूनों के विरोध में सविनय अवज्ञा भी की जाएगी. सत्‍याग्रह के लिए 6 अप्रैल का दिन तय किया गया मगर देश में इससे पहले ही आंदोलन छिड़ गया और जगह-जगह हिंसा भी होने लगी. पंजाब तो पहले ही अंग्रेजी जुल्‍मों का शिकार था. अमृतसर और लाहौर में विरोध बहुत तीखा हुआ जिसने ब्रिटिश सरकार को डरा दिया. गांधी जी ने खुद पंजाब जाकर इस आग को शांत करने की कोशिश की लेकिन सरकार ने गांधी जी को जबरन मुंबई भेज दिया. वहां पहले ही आग लगी थी सो उन्‍होंने वहीं रहकर लोगों को शांत करने का फैसला किया.

पंजाब के हालात लगातार बिगड़ रहे थे और अमृतसर में 10 अप्रैल को दो राष्‍ट्रीय नेताओं डाॅ. सत्‍यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के बाद टाउन हॉल और पोस्‍ट ऑफिस पर हमला किया गया, टेलीग्राफ की लाइनें काट दी गईं और कुछ यूरोपियन लोगों पर भी हमला हुआ. अब सरकार ने फौज़ को बुलाया और शहर की कमान जनरल डायर के हाथों में सौंप दी गई. कुछ इतिहासकार बताते हैं कि जनरल डायर ने शहर भर के लिए तकरीबन 21 आदेश जारी किए थे जिसमें एक जगह चार से ज्‍यादा लोगों का इकट्ठा न होना भी शामिल था लेकिन ये आदेश लोगों तक ठीक से नहीं पहुंचे. 13 अप्रैल को रविवार के दिन ही डायर ने किसी भी तरह की सभा के आयोजन को भी प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया लेकिन ये आदेश भी लोगों तक नहीं पहुंच सका. हर बार की तरह बैसाखी के दिन (13 अप्रैल) अमृतसर के आस-पास के इलाकों से लोग बैसाखी मनाने अमृतसर आ पहुंचे और अपने नेताओं की गिरफ्तारी के प्रति विरोध जताने के लिए जलियांवाला बाग में बुलाई गई एक शांतिपूर्ण सार्वजनिक सभा में शरीक़ होने लगे.
जलियांवाला तब. स्‍त्रोत: विकीपीडिया 

दीवारों पर लगे गोलियों के निशान
जलियांवाला बाग असल में एक 6 से 7 एकड़ का खुला मैदान था जिसके चारों तरफ तकरीबन 10 फुट ऊंची दीवारें थीं. इस बाग में प्रवेश के लिए चार-पांच रास्‍ते थे लेकिन ज्‍यादातर पर ताला लगा हुआ था. बीच में एक कुआं और एक समाधी. उस रोज़ अमृतसर में व्‍यापारियों का पशुओं की खरीद एक मेला भी लगा हुआ था जो दोपहर दो बजे तक खत्‍म हो गया. लोग रास्‍ते में जलियांवाला से होकर गुज़रने लगे. हजारों लोग पास ही हरमंदिर साहब से दर्शन करके लौटते हुए यहां आ पहुंचे. उधर जनरल डायर को लगा कि लोग उसके आदेश की जानबूझकर अवमानना कर रहे हैं. डायर ने बाग के ऊपर से हवाई जहाज भेज कर पता लगाया कि यहां तकरीबन 6,000 लोग जमा हो चुके हैं. बाद में हंटर कमीशन ने ये आंकड़ा 20,000 तक बताया था. बस फिर क्‍या था जनरल डायर ने 29वें गोरखा, 54सिख और 59सिंध राइफल्‍स के 303 ली एनफील्‍ड राइफलों वाले कुल 90 सिख, बलूची और राजपूत जवानों के साथ जलियांवाला बाग में प्रवेश किया और बाग में प्रवेश और निकलने के एक मात्र रास्‍ते को घेर कर निहत्‍थे लोगों पर पूरे दस मिनट तक गोलियां बरसाईं. जनरल ने लोगों को बाग खाली करने की कोई चेतावनी भी नहीं दी. बाद में खुद डायर ने अपने बयान में कुबूला था कि उसका मक़सद बाग को खाली करना नहीं बल्कि हिंदुस्‍तानियों को सबक सिखाना था. गोलियां तब तक चलती रहीं जब तक असलाह खत्‍म नहीं हो गया. लोग जिधर जान बचाने के लिए भागते उधर ही गोलियां बरसाई जातीं. बच्चों, बूढ़े और जवान सबकी लाशें बिछने लगीं. कुछ ही लोग दीवार फांद पाए. ऐसे ही कुछ लोगों ने बाद में वहां का मंज़र बयां किया. लोग जान बचाने के लिए कुंए में भी कूद गए. बाद में उस कुंए से 120 लाशें निकलीं. जो लोग गोलियों से जख्‍़मी हुए वे बाद में भी बाग से बाहर नहीं निकल सके. क्योंकि रात में पूरे शहर में करफ्यू लगा दिया गया था. शहर का पानी और लाइट काट दिए गए. सरकार ने एलान कर दिया था कि जो लोग बाग़ में थे उन्होंने सरकार से गद्दारी की है. अब लोग कैसे बताते कि उनका कौन सगा-सम्बन्धी बाग में मर रहा है. उधर लोगों को बाग में जाने की मनाही थी सो घायलों को भी बाहर नहीं निकाला जा सका. इससे मरने वालों की संख्या में और इज़ाफ़ा हुआ. लोग मरते रहे और बेरहम डायर तमाशा देखता रहा. बताया जाता है कि डायर मशीनगन जैसे हथियारों से लैस दो मोटर गाडियां भी साथ लाया था जो बाग के संकरे रास्‍ते के कारण अंदर नहीं पहुंच सकीं. खुद जनरल डायर के बयान के मुताबिक उस रोज़ जलियांवाला में 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं. उस समय की ब्रिटिश सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार कुल 379 लोग मारे गए और लगभग 1100 लोग जख्‍़मी हुए जबकि इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मरने वालों की संख्‍या लगभग 1,000 और जख्मियों की संख्‍या 1500 बताई थी. इस नृशंसता ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था और उधर लंदन में हाउस ऑफ लॉर्ड्स से शुरूआत में जनरल डायर को मिली तारीफ़ ने आग में घी का काम किया और इस आक्रोश की परिणति 1920-22 के असहयोग आंदोलन में हुई.
जहां से लोगों पर गोलियां चलाई गईं  

लेकिन जुलाई, 1920 में हाउस ऑफ कॉमन्‍स ने जनरल डायर की निंदा की और उसे जबरन सेवानिवृत कराया गया. रबिंद्रनाथ टैगोर इस हत्‍याकांड से इतने व्‍यथित हुए कि उन्‍होंने अपनी नाइटहुड की उपाधी लौटाते हुए लिखा कि "such mass murderers aren't worthy of giving any title to anyone". इस हत्‍याकांड के तीन महीने बाद जुलाई, 1919 में अधिकारियों ने मरने वाले लोगों की ठीक पहचान के लिए स्‍थानीय लोगों की मदद मांगी. लेकिन इन हालातों में कौन सच बताता. ऐसे में मरने वालों के संबंधियों की पहचान जाहिर होने का खतरा था. उधर पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ने जनरल डायर की करतूत का समर्थन किया और शाबासी दी.

इस घटना के बाद भारतीयों ने अपने-अपने तरीकों से ब्रिटिश सरकार को चोट पहुंचानी शुरू कर दी. ब्रिटिश सरकार के तमाम चहेतों ने सरकार से अपना नाता तोड़ लिया और दूसरी तरफ क्रांतिकारी इस हत्‍याकांड का बदला लेने की योजना बनाने लगे. इस हत्‍याकांड के गवाह और इस घटना में खुद जख्‍़मी होने वाले सुनाम के रहने वाले उधम सिंह के दिल में ये आग बरसों धधकती रही. जनरल डायर की 1927 में मृत्‍यु हो चुकी थी. उधम सिंह का मानना था कि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे पंजाब का तत्‍कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ही है. सो उधम सिंह मौके की तलाश करते रहे और अपने इरादे को अमलीजामा पहनाने के लिए लंदन तक जा पहुंचे. आखिरकार, 13 मार्च, 1940 को ऊधम सिंह ने लंदन के कैक्‍सटन हॉल में गोली मार कर माइकल ओ डायर की हत्‍या कर दी. इस घटना के बाद का घटनाक्रम भी बड़ा दिलचस्‍प था. दुनिया भर के अखबारों ने इस घटना को छापा और ऊधम सिंह के कृत्‍य को उचित ठहराया. ऊधम सिंह को 31 जुलाई, 1940 को फांसी दे दी गई. उस समय पंडित नेहरू और गांधी जी ने इस हत्‍याकांड की निंदा की. लेकिन बाद में 1952 में पंडित जवाहर लाल नेहरू (तत्‍कालीन प्रधानमंत्री) ने ऊधम सिंह को शहीद का दर्जा दिया और कहा,
‘I salute Shaheed-i-Azam Udham Singh with reverence who had kissed the noose so that we may be free’

आज इस घटना को 100 वर्ष बीत गए हैं लेकिन हिंदुस्‍तान की जनता के दिलों में ये ज़ख्म आज भी ताज़ा है. जिन परिवारों के लोग इस घटना में शहीद हो गए वो कैसे इसे भुला सकते हैं. अबकी अमृतसर यात्रा में मैंने जलियांवाला बाग में एक परिवर्तन देखा था. बाग के मुख्‍य द्वार के नज़दीक जिस दीवार पर जलियांवाला बाग लिखा होता था वहां अब शहीद उधम सिंह की प्रतिमा भी लगाई गई है. शहीद उधम सिंह के बिना जलियांवाला का इतिहास अधूरा ही था. उधर इस घटना के बाद से लगातार ये मांग उठती रही है कि ब्रिटिश सरकार इस घटना के लिए आधिकारिक रूप से माफ़ी मांगे. लेकिन ऐसा आज तक नहीं हुआ है. हांलाकि 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा था,

"A deeply shameful event in British history, one that Winston Churchill rightly described at that time as monstrous. We must never forget what happened here and we must ensure that the UK stands up for the right of peaceful protests”

लेकिन माफी शब्‍द यहां भी नहीं था. इस हत्‍याकांड के 100वें वर्ष में ये घटना एक बार फिर हमारे जख्‍मों को कुरेद रही है और दुनिया भर से लंदन पर इस घटना के लिए माफी मांगने का दबाव बनाया जा रहा है,  लेकिन ब्रिटिश सरकार शायद अभी तक इस घटना के लिए अपने दोष को स्‍वीकार नहीं करना चाहती. वर्तमान ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे का ताज़ा बयान आ चुका है,
“The tragedy of Jallianwala Bagh in 1919 is a shameful scar on British Indian history. As her majesty the Queen said before visiting Jallianwala Bagh in 1997, it is a distressing example of our past history with India”

इस बयान पर सिर्फ अफसोस किया जा सकता है. ब्रिटेन की माफी से इतिहास तो नहीं बदल जाएगा. लेकिन इतना ज़़रूर है कि हमारे जख्‍़म कुछ हद तक भर जाएंगे. जन अधिकारों और लोकतंत्र की दुहाई देने वाली ब्रिटेन की सरकार को जलियांवाला हत्‍याकांड के सौ वें वर्ष में आधिकारिक रूप से माफी मांगने का ये अवसर नहीं गंवाना चाहिए. 







--------------------
सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


© इस लेख को अथवा इसके किसी भी अंश का बिना अनुमति के पुन: प्रकाशन कॉपीराइट का उल्‍लंघन होगा। 

यहां भी आपका स्‍वागत है:

Twitter: www.twitter.com/yayavaree  
Instagram: www.instagram.com/yayavaree/
facebook: www.facebook.com/arya.translator

#Amritsar #jalianwalabagh #baisakhi #100yearsofjalianwala 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...