अग्रसेन की बावली
समय के साथ-साथ जब शहर विस्तार के लिए अपनी बाहें फैला रहे
होते हैं तो उसी वक़्त उनकी पुरानी सीमाओं के भीतर भी उनका स्वरूप लगातार
परिवर्तित होता रहता है. शहर बार-बार करवटें लेते हैं और यही वजह है कि कुछ बरसों
बाद कुछ इलाकों को पहचान पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. बनने और बिगड़ने की इसी
प्रकिया में तमाम विरासतें या तो जमींदोज हो जाती हैं या फिर जैसे-तैसे अपने
अस्तित्व के लिए संघर्ष करती नज़र आती हैं. दिल्ली तो यूं भी बार-बार बसाई और
उजाड़ी गई. एक समय में दिल्ली की तमाम बावडि़यां जो बेहद खुले इलाकों में बनाई गई
थीं आज उनके चारों तहफ शहर न केवल उग आया है बल्कि उन्हें अपनी बाहों में इतना कस
के खड़ा है कि ये विरासतें खुल कर सांस भी नहीं ले पा रही हैं. ऐसी ही एक विरासत
है ‘अग्रसेन की बावली’. बावली को हिंदी में बावड़ी, मराठी में बारव, गुजराती में वाव, कन्नड़ में कल्याणी
या पुष्करणी कहा जाता है.
कस्तूरबा गांधी मार्ग के नजदीक हेली रोड पर मौजूद 14वीं
सदी की इस बावली के लिए पिछले कुछ सालों में लोगों की दिलचस्पी और दीवानगी बढ़ती
गई है. हो भी क्यों न ? "झूम बराबर झूम" फिल्म का गीत ‘बोल न हल्के-हल्के’ तो सभी को याद होगा
ही. गुलज़ार के गीत पर राहत फतेह अली खान और महालक्ष्मी अय्यर की आवाज ने एक
जादुई माहौल रच डाला था और इस जादू को मुकम्मल बनाया चांदनी रात के आगोश में डूबी
‘अग्रसेन की बावली’ के दृश्यों ने. कुछ ऐसा ही तिलिस्म फिल्म ‘पी.के.’ ने भी रचा. पीके
यानी कि आमिर खान का ठिकाना थी ये बावली. बस फिर क्या था...यहीं से इस बावड़ी
के प्रति लोगों की दिलचस्पी दीवानगी में बदल गई. जिन्हें इस विरासत की कोई
जानकारी नहीं थी वे भी तस्वीरों और तफ़री की चाह में यहां तक आने लगे. अब आलम ये
है कि साल के बारहों महीनों यहां आने वालों, खासतौर पर युवाओं का
मजमा लगा रहता है.
आज भले ही हमें बावडियां एक अनावश्यक चीज दिखाई देती हों
मगर पुराने समय में लोगों को इनका महत्व पता था. इसलिए बड़े-बड़े राजा महाराजाओं
ने अपनी जनता के लिए कुएं और बावडियों का निर्माण दिल खोल कर कराया. पाटन की रानी
की वाव, अडालज और दादा हरी की वाव जैसी देश की तमाम
बावडियां तो अपने कलात्मक सौंदर्य के लिए विश्व-विख्यात हैं. यही वजह है कि 100
रुपए के नए नोट के पीछे गुजरात के पाटन में स्थित ‘रानी की वाव’ को स्थान दिया गया
है. उस समय बावड़ियाँ समाज के लोगों के मिलने का स्थान भी थीं. खासकर महिलाएं यहां
बैठकर अपने दुख-सुख साझा किया करती थीं. इसी तरह देश के अन्य इलाकों में भी तमाम
बावडियां अपने साथ अपने समय के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास की गवाही दे रही हैं.
माना जाता है कि इस बावड़ी का निर्माण महाभारत काल में हुआ
था और बाद में अग्रवाल समाज ने इसका जीर्णोद्धार कराया था. बावली की बनावट इसके
तुग़लक (1321-1414) और लोदी काल (1451-1526) अर्थात 13 वीं से 16वीं शताब्दी के
दौरान का होने की ओर इशारा करती है. 108 सीढि़यों वाली ये बावली उत्तर से दक्षिण
तक 60 मीटर लंबी और 15 मीटर चौड़ी है. बावली के उत्तरी सिरे पर 7.8 मीटर व्यास
वाला एक कुआ है जो पानी से भरने पर एक शाफ्ट से बावली को भी पानी से भर देता था. एक
खास बात जो मैंने यहां महसूस की वो ये थी कि वावली में नीचे उतरने के लिए बनाई गई
सीढ़ी में इस्तेमाल किए गए पत्थरों का आकार एक समान नहीं है और सीढि़यों की
ऊंचाई आम तौर पर बनाई जाने वाली सीढियों की ऊंचाई से ज्यादा है. अब इसकी वजह एक
ही हो सकती है कि उस वक़्त इस इलाके में रहने वाले लोग आमतौर पर लंबे कद के थे.
अलबत्ता इस बारे में मुझे कहीं पढ़ने को नहीं मिला. बावली का पानी सूख चुका है
मगर आज भी इसका अधिकांश हिस्सा पहले की तरह कायम है. एक वक़्त था जब यहां लोग
तैराकी सीखने के लिए आया करते थे. मगर अब यह जगह दिल्ली की भुतहा जगहों में शुमार
हो चुकी है. रात के वक़्त इस तरफ़ कम ही लोग आते हैं और बावली को लेकर तमाम तरह
के किस्से कहानियां लोगों की जुबान पर हैं. कुछ लोगों का कहना है कि इस बावली में
तमाम लोगों ने कूद कर अपनी जान दी हैं सो बावली में भूत या आत्माएं अन्य लोगों
को इसमें कूदने के लिए आवाजें देते हैं. कुछ जगहें सुनी-सुनाई बातों के आधार पर भी
बदनाम हो जाती हैं. क्योंकि बावली में आत्महत्या करने का अभी तक सिर्फ एक ही
मामला प्रकाश में आया है.
बावली की पश्चिम दिशा में तीन प्रवेश द्वारों वाली एक
मस्जिद है जो अब पूरी तरह से खंडहर हो चुकी है और वक़्त के थपेड़ों के आगे कितने
दिन और टिक पाएगी कहना मुश्किल है. मैंने उस रोज इस मस्जिद की दीवारों को देखा तो
आभास हुआ कि अपने निर्माण काल में ये छोटी सी मस्जिद बहुत खूबसूरत रही होगी. इसकी
छत व्हेल मछली जैसी दिखाई पड़ती है और अंदर से इसकी आकृति किसी चैत्य की तरह
लगती है. मुझे सबसे ज्यादा इसके खंबों पर पदक अलंकरण जैसी आकृतियों ने आकर्षित
किया. उन पर क्या लिखा है ये तो मैं नहीं समझ पाया. ये बावली उग्रसेन की बावली है
या अग्रसेन की बावली इस बात का भी कोई साफ़-साफ़ अंदाज़ा नहीं लग पाता है. बावली
के बाहर लगे आधिकारिक पत्थर पर इसका नाम ‘उग्रसेन की बावली’ खुदा हुआ है. जबकि राष्ट्रीय
अभिलेखागार के रिकॉर्ड में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा तैयार किए गए नक़्शों में
इसका नाम ‘ऊजर सेन की बावली’ पाया गया है. इसी नक़्शे में अग्रसेन की बावली
के नज़दीक ही उत्तर-पश्चिम में एक और बावली को दिखाया गया है मगर 1911 में भारत
की राजधानी कोलकाता से दिल्ली हो जाने और दिल्ली को नए सिरे से बसाए जाने के
दौरान हुए निर्माण कार्यों में संभवत: यह बावड़ी गायब हो गई.
इस बावड़ी के साथ एक और दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है।
आपने प्रसिद्ध फोटोग्राफर रघु राय का 1971 में खींचा गया वो ब्लैक एंड व्हाइट फोटो
‘Diving into Ugrasen Ki Baoli, a 14th century monument’
अवश्य ही देखा होगा
जिसमें बावड़ी ऊपर तक लबालब भरी हुई है और एक लड़का बावड़ी में छलांग लगा रहा है।
लोकप्रिय लेखक सैम मिलर ने 2008 में प्रकाशित हुई अपनी किताब Delhi: Adventures in a Megacity में इस फोटो से
जुड़े एक किस्से के बारे में लिखा है. दरअसल इस फोटो के खींचे जाने के 26 साल बाद
जब वो इस बावड़ी के देखने के लिए आए तो इस पर ताला लगा हुआ था. और एक गार्ड ने आकर
अनमने ढंग से इसे खोला. मिलर रघु राय के फोटो को हजारों बार देख चुके थे. सो
जिज्ञासावश उन्होंने वही फोटो उस गार्ड को दिखा कर पूछा कि क्या उसने ये फोटो
देखा है. गार्ड के जवाब ने मिलर को हैरान कर दिया. दरअसल रघु राय के फोटो में
बावड़ी में छलांग लगाने वाला लड़का वो गार्ड बाग सिंह खुद ही था. सबूत के तौर पर
बाग सिंह ने अपनी जेब से रघु राय का वही फोटो निकाल कर दिखा दिया जो किसी पत्रिका
में प्रकाशित हुआ था. अब मिलर ने आज के बाग सिंह का एक फोटो खींचा जो उनकी पुस्तक
में प्रकाशित हुआ है. जैसा कि तस्वीर से साबित होता है कि 1970 तक बावली में खूब
पानी हुआ करता था मगर बाद में इस इलाके में कंक्रीट का जंगल उग आने से पानी सूखता
गया और बावली की हालत खराब होती गई. रघु राय के फोटो और आज के बावली के फोटो की
तुलना से एक बात और साफ होती है कि 1970 के बाद पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने
बावड़ी का बखूबी जीर्णोद्धार किया है. रघु राय के फोटो में टूटे और जर्जर हालत में
नज़र आ रहे हिस्से अब अच्छी हालत में हैं.
ये मेरे लिए भी बहुत अजीब था कि मेरे बहुत नज़दीक होने के
बावजूद मुझे इस धरोहर तक पहुंचने में कई बरस लग गए. अक्सर ऐसा ही होता है. हम
अपने आस-पास की चीजों को हमेशा हल्के में लेते हैं कि कभी भी देख आएंगे मगर ये ‘कभी भी’ कभी नहीं आता है. या
फिर बरसों बाद जब कभी मौका लगता है तो हम पाते हैं कि वहां चीजें अब वैसी नहीं रह
गई हैं जैसी बरसों पहले हुआ करती थीं. आज के शिमला, मनाली और मूसरी जैसे
शहर आज से महज 10-15 बरस पहले ऐसे नहीं थे. कुछ ऐसा ही हमारी
विरासतों के साथ भी होता है. सदियों पुरानी ये विरासतें हर गुज़रते दिन के साथ ढ़ल
रही हैं. हर रोज़ उनकी उम्र घट रही है. तमाम संरक्षण के प्रयासों के बावजूद हम
लंबे वक़्त तक इन सबकों बचा कर नहीं रख पाएंगे. एक और बात है जब लोग अपनी
विरासतों के प्रति उदासीन हो जाते है और इन्हें देखने नहीं जाते हैं तो सरकारें
और प्रशासन भी इनके रख-रखाव में दिलचस्पी नहीं लेते हैं. तमाम विरासतों के आस-पास
चरसिए और गंजेडियों के अड्डों को जमते हम सभी ने देखा है. इस सबके लिए हम लोग भी
जिम्मेदार हैं. हम अपने बच्चों से अपनी विरासतों के बारे में शायद ही कभी बात
करते हैं या उन्हें वहां घुमाने ले जाते हैं. इसलिए यदि हमें अपनी विरासतों से
मुहब्बत है तो जितना जल्दी हो सके इन्हें देख आना चाहिए. कौन जाने आज से 10-15 बरस बाद ये मिट्टी
में मिल चुकी हों.
समय: सुबह 7 से शाम 6 बजे तक
प्रवेश : नि:शुल्क
जंतर मंतर : 1.5 किलोमीटर
इंडिया गेट: 2 किलोमीटर
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सौरभ आर्य |
सौरभ आर्य, को यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्योंकि यात्राएं ईश्वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं.
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