एक बुत की दिलचस्प दास्तान
तमाम शहरों में यात्राओं के दौरान चौराहों या पार्कों में लगे बुत मुझे हमेशा
से आकर्षित करते रहे हैं। अलबत्ता ये बात और है कि आमतौर पर शहरवासियों को ये बुत
निहायत ही साधारण नज़र आते हैं और शायद इसीलिए हर रोज़ इनके करीब से गुज़रने के बावजूद
ये उन्हें नज़र भी नहीं आते या कहिए कि इनकी ओर ध्यान नहीं जाता। आप अपने शहर
में लगे कुछ स्टेच्यू को याद कीजिए कि आखिरी बार आपने कब उन्हें गौर से देखा? दरअसल जिन आम चीजों को हम सड़कों से गुजरते
हुए हर रोज़ देखते हैं वे हमेशा इतनी मामूली भी नहीं होती हैं। उनके विषय में हमारी
अज्ञानता उन्हें मामूली बनाती है। जहां तक चौराहों या पार्कों में खड़े बुतों का
सवाल है वे अपने आप में इतिहास के एक टुकड़े को लेकर बड़ी शान से शहर के बीचों-बीच खड़े होते हैं और हमें अतीत के गौरवशाली अध्यायों का
नियमित रूप से स्मरण करा रहे होते हैं।
बैंगलोर या कहिए कि बेंगलूरू में मैं एमजी रोड के पास एक होटल में ठहरा हुआ था।
हर रोज होटल से निकलते ही कोई पांच-छह सौ मीटर पर एक स्टेच्यू एक पार्क के कौनेे से झाँकता -नज़र आता। हर बार मन होता कि दो पल गाड़ी रुकवा कर तसल्ली से इस स्टेच्यू को देख लूं।
मग़र सड़क पर ट्रैफ़िक या संग में और लोगों के होने से इस ख़्याल को जाने देता। मग़र मन
के एक कौने में रख छोड़ा था कि किसी दिन फुर्सत में अकेले ही इधर चला आऊंगा। बस
आख़िरी सुबह शहर को अलविदा कहने से पहले मैं इस स्टैच्यू तक आ पहुंचा।
एमजी रोड़ के एक किनारे कब्बन पार्क के एक कोने पर छोटे से पार्क में क्वीन
विक्टोरिया का एक बुत नीले जकरंदा के फूलों के नीचे बड़ी शान से खड़ा है। ये साधारण सा दिखने वाला रानी विक्टोरिया का स्टेच्यू भी बेहद खास है। दरअसल 1901 में ब्रिटिश साम्राज्य की महारानी विक्टोरिया की मृत्यु के बाद पूरे
ब्रिटिश भारत में महारानी विक्टोरिया के सम्मान में कुल 50 बुत लगाए गए थे।
दिलचस्प बात ये है कि उन 50 बुतों में से केवल 5 ही आज अपनी मूल जगह
पर मौजूद हैं। ये बुत उन्हीं 5 बुतों में से एक है। बाकी चार
(1) मद्रास यूनिवर्सिटी, चेन्नई (2) किंग एडवर्ड VII मार्केट, विशाखापट्टनम, (3) और (4) विक्टोरिया मैमोरियल, कोलकाता में आज भी ठीक उसी जगह खड़े हैं
जहां उन्हें पहली बार लगाया गया था। इत्तेफ़ाक से इन पांच में से तीन बुतों को
मैंने देखा है और मुझे यकीन है कि बाकी दो से भी जल्दी ही मुलाक़ात होगी।
बैंगलोर के लिए इस बुत को तैयार किए जाने की कहानी भी दिलचस्प है। यहां क्वीन
का स्टेच्यू स्थापित करने के लिए क्वीन विक्टोरिया मैमोरियल फंड स्थापना
की गई। फंड द्वारा 6 महीने में कुल 10,000 रुपए की व्यवस्था की गई और उस समय
के मैसूर के महाराजा, कृष्णराजा वोडेयार IV ने मैमोरियल के लिए
जरूरी बाकी 15,500 रुपए की व्यवस्था की। तो इस तरह कुल 25,500 रुपए का खर्च आया इस बुत पर। यकीनन एक
शानदार बुत लगाया जाना था तो इस काम को भी किसी योग्य व्यक्ति को ही सौंपा जा
सकता था। खोजबीन के बाद एक विख्यात मूर्तिकार सर थॉमस ब्रोक को इस बुत को
तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। ब्रोक वही शख़्स थे जिन्होंने विक्टोरिया
मैमोरियल, लंदन में शानदार मूर्तियों का निर्माण किया था। तमाम देशों में उनके हाथों से तराशे गए बुत आज भी उस महान
शिल्पकार की कला का लोहा मनवा रहे हैं। बैंगलोर में लगी क्वीन विक्टोरिया
की यह मार्बल की प्रतिमा कुल 11 फुट ऊंची है और चौकीनुमा ग्रेनाइट का आधार 13 फुट
उँचा है और इस तरह कुल ऊंचाई 24 फुट है। इस बुत का पूरा निर्माण कार्य लंदन में
हुआ और फिर समुद्री जहाज के जरिए 1905 में यह बैंगलोर पहुंचा। दरअसल यह स्टेच्यू
ब्रोक द्वारा 1890 में अपने गृह नगर वोरसेस्टर के लिए बनाई गई क्वीन की प्रतिमा
की हू-ब-हू प्रतिकृति है। जानकारों का कहना है कि ये स्टेच्यू लंदन, होव, कार्लिस्ले, बेलफास्ट और केप टाउन में लगी क्वीन की प्रतिमाओं से मेल खाता है।
यहां एक दिलचस्प कहानी ये भी है कि क्वीन अपनी प्रतिमाओं में जितनी खूबसूरत
दिखती हैं वो असल में उतनी ही सुंदर नहीं थीं। उनके बुतों में उन्हें जानबूझकर
सुंदर दिखाया गया ताकि उनके साम्राज्य में जनता उनसे मोहब्बत कर सके। इस बुत का अनावरण उस वक़्त के प्रिंस ऑफ वेल्स, जॉर्ज अर्नेस्ट V (जो बाद में किंग जॉर्ज V के नाम से जाने गए) ने 5 फरवरी, 1906 को किया। विक्टोरिया पार्क में लगा
ये बुत वक़्त के साथ-साथ अपनी चमक को खोने लगा है और आलम ये है कि कुछ वक़्त
पहले क्वीन के हाथ में रखा गेंदनुमा ग्लोब और क्वीन के सीधे हाथ की उंगली भी
टूट गई थी। मैंने पार्क के बारे में पढ़ते हुए इस टूटी उंगली के बारे में पढ़ा था।
मगर उस सुबह मैंने सभी उंगलियों को सलामत पाया। मेरा ध्यान शायद ही इस उंगली की
तरफ जाता मगर जिस वक़्त मैं इस स्टेच्यू की तस्वीरें ले रहा था ठीक उसी वक़्त
वहां कुछ लोग सिटी वॉक करते हुए आए। ग्रुप में ज्यादातर लोग विदेशी नागरिक थे और
वे सिटी वॉक के जरिए कब्बन पार्क का दौरा कर रहे थे। ग्रुप के गाइड ने अचानक ये
रहस्य खोला कि हाल ही में इस सटेच्यू के रेस्टोरेशन का काम किया गया और टूटी
उंगली को जोड़कर फिर से ठीक किया गया है। उन्होंने एक और दिलचस्प बात बताई
कि रेस्टोरेशन के बाद जोड़ी गई उंगली यानि की सीधे हाथ की इंडेक्स फिंगर बाकी
उंगलियों के मुकाबले थोड़ी बड़ी है। बात एकदम सही थी। शायद यही वो लम्हा था जिसने
इस बुत में मेरी दिलचस्पी को और भी बढ़ा दिया था। यहां से लौटने के बाद कई दिनों
तक इस बुत से जुड़े इतिहास पर काफी कुछ पढ़ा जिसमें से कुछ बातें ऊपर आपसे साझा की
हैं।
हां, एक खास बात और। ऐसा नहीं है कि विक्टोरिया की इस मूर्ति को हर शख़्स अदब और इज़्जत
की नज़र से देखता हो। उनका एक ही सवाल है। अंग्रेजों का शासन अत्याचारी शासन था तो
जब अंग्रेज चले गए तो उनकी प्रतिमाएं क्यों? वटल नागराज नाम के एक एक्टिविस्ट 1960 से इस बुत सहित
कब्बन पार्क में लगे सर मार्क कब्बन और किंग एडवर्ड के विक्टोरिया युगीन बुतों को
नष्ट कर देने की पैरवी कर रहे हैं। सरकार ने 1977 में इन बुतों को हटाने का निर्णय
भी ले लिया था मगर बाद में फैसले को अमल में नहीं लाया गया। मगर इस तरह की मांगें जब-तब
उठती रहती हैं। शायद ये बैंगलोर शहर के इतिहासकारों, विरासतों के कद्रदानों
के प्रतिरोध का फल है कि ये बुत वक़्त की एक विरासत को लेकर आज भी जीवित खड़े हैं।
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