यायावरी yayavaree: Darjeeling
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बुधवार, 11 मई 2016

भारत का सबसे ऊंचा रेलवे स्‍टेशन 'घूम'- India's Highest Railway Station "Ghoom"

A Brief in English: 
India’s Highest Railway Station Ghoom falls on New Jalpaiguri- Darjeeling Railway line. situated at an altitude of 2,258 metres (7,407 ft), this small town is the home of the Ghum Monastery and the Batasia Loop, a beautiful bend of the Darjeeling Himalayan Railway. Declared as World Heritage Site by UNESCO, this station also houses a small Railway Museum which proudly displays various souvenirs from the by-gone era. A must visit place in Ghoom.   

जिंदगी के कुछ अनुभव अचानक से झोली में आ टपकते हैं...जैसे उस रोज दार्जिलिंग टॉय ट्रेन की यात्रा करते हुए घूम स्‍टेशन पर पहुंचने तक मुझे इस बात का कतई इल्‍म नहीं था कि सड़क के बीचों-बीच बना ये छोटा सा स्‍टेशन किसी वजह से बहुत खास होगा. मैं देश के सबसे ऊंचे रेलवे स्‍टेशन पर खड़ा था. 2,258 मीटर (7,407 फुट) की ऊंचाई पर बना ये स्‍टेशन दार्जिलिंग से केवल 8 किलोमीटर दूर है. दार्जिलिंग से न्‍यू जलपाईगुडी की डगर घूम से होते हुए ही गुजरती है.  


यू ट्यूब पर मौजूद इस वीडियाेे में 'घूम' रेलवे स्‍टेशन का जायजा लिया जा सकता हैै: 


यूं तो #Darjeelingtoytrain न्‍यू जलपाईगुडी से घूम होते हुए सीधे दार्जिलिंग तक की सैर कराती है मगर न्‍यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग तक की यात्रा बहुत लंबी और थकाऊ हो जाती है. इसलिए मैंने पहले से तय कर रखा था कि टॉय ट्रेन का लुत्‍फ केवल दार्जिलिंग से घूम के बीच ही लूंगा. अलबत्‍ता ये बात और थी कि पिछले साल जिस वक्‍़त मैं दार्जिलिंग की यात्रा पर था, दार्जिलिंग टॉय ट्रेन, रेलवे ट्रैक का कुछ हिस्‍सा खराब होने के कारण केवल दार्जिलिंग और घूम के बीच तकरीबन 8 किलोमीटर के ट्रैक पर ही चल रही थी. ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है. पहाडियों पर बने ट्रैन का लैंड स्‍लाइड में नष्‍ट हो जाना कौन सा असंभव काम है.

खैर, एक बात तो है हम भारतीयों को अपनी अच्‍छी चीजों की सलीके से मार्केटिंग करनी नहीं आती. घूम स्‍टेशन की हालत देखकर नहीं लगता था कि ये स्‍टेशन इतनी गौरवशाली उपलब्धि लिए यहां खड़ा है. स्‍टेशन ही नहीं पूरा दार्जिलिंग हिमालय रेलवे ही अपने आप में अजूबा है. पहाड़ों पर इतनी ऊंचाई तक रेलवे लाइन को पहुंचा देना ब्रिटिशर्स की ही देन है. दार्जिलिंग हिमालय रेलवे का काम 1879 में शुरू हुआ था और रेलवे लाइन 4 अप्रैल, 1881 को घूम पहुंची. इस लाइन के शुरू होने से पहले कोलकाता से दार्जिलिंग पहुंचने में 5 से 6 दिन लग जाते थे. पहले लोग साहेबगंज में गंगा पार करके बैलगाडियों और पालकियों से ही दार्जिलिंग तक पहुंचते थे.




घूम स्‍टेशन के संग्रहालय में लगी स्‍टेशन की ये पुरानी तस्‍वीर बरबस ही सबका ध्‍यान खींंच लेती है. 
घूम स्‍टेशन 1944 में

अब ब्रिटिशर्स को तो दार्जिलिंग मन भा गया था मगर खाने-पीने के लिए राशन पानी भी तो चाहिए था. बैलगाडियों से भला कब तक ढ़ोते? सो पहाड़ को चीर कर रेलवे लाइन पहुंचा ही दी. इंसानी जुनून से रचा गया ये नायाब नमूना आज भी पूरे इलाके की शान बढ़ा रहा है. आज सेमी बुलेट ट्रेन के दौर में रेल की पटरियों पर भाप के इंजन चलते देखना ऐसा है मानो हम खुद ब खुद उसी दौर में पहुंच गए हों.


घूम स्‍टेशन की तस्‍वीर     चित्र: साभार विकीपीडिया
इस रेलवे लाइन को यूनेस्‍को द्वारा विश्‍व विरासत स्‍थल घोषित किया गया है. अब जहां देश दुनिया के हजारों सैलानी रोज आते हों कम से कम वहां तो हमें ख्‍याल रखना ही चाहिए. शायद भविष्‍य में रेलवे ही कभी सुध ले ले. कमोबेश यही हाल घूम स्‍टेशन के ऊपर बने दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे (डीएचआर) के म्‍यूजियम का भी है. म्‍यूजियम के बारे में विस्‍तार से फिर कभी. यदि आप दार्जिलिंग में हैं तो इस म्‍यूजि़यम को देखना मिस मत कीजिएगा. दार्जिलिंग से न्‍यू जलपाईगुडी जाने वाली ट्रेन इस स्‍टेशन पर 30 मिनट ठहरती है इसलिए इसी दौरान  म्‍यूजियम भी देखा जा सकता है.
  

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

एक बरस, छह यात्राएं और छह बरस की जिंदगी

एक यायावर मन जब साल के आखिरी दिन कलैंडर के पन्‍नों पर नज़र डालता है...तो उसे तारीखें नहीं बल्कि यात्राओं की मधुर स्‍मृतियां और हजारों छोटे-बड़े अनुभवों के मोती नज़र आते हैं. वक्‍़त तो यूं भी गुज़र ही जाता है....मगर गुज़रता हुआ वक्‍़त य‍दि हमारे दुनिया को देखने के नज़रिए को बदलता चले तो बात ही कुछ और होती है. मेरा मानना है कि जब हम यात्रा में होते हैं तो हर एक दिन में एक बरस का अनुभव जीते हैं. जिंदगी तो वैसे भी बहुत छोटी होती है...इसलिए जल्‍दी से जल्‍दी और ज्‍यादा से ज्‍यादा से ज्‍यादा सिर्फ यात्राओं के जरिए ही जिया जा सकता है. कहते हैं न जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए....तो साहब बड़ी करने का सबसे अच्‍छा बहाना हैं यात्राएं.

नए साल के स्‍वागत का जश्‍न क्रिसमस से ही शुरू हो जाता है तो पिछले क्रिसमस से इस क्रिसमस के दौरान देश के चारों कौनों में खूब घुमक्‍कड़ी हुई. पिछले क्रिसमस पर जब घुमक्‍कड़ी की तलब हुई तो अर्धांगिनी के साथ बैग उठा कर शिमला के लिए निकल पड़े.

पहली यात्रा – शिमला
शिमला क्रिसमस में और भी हसीन हो जाता है. क्रिसमस और नए साल के स्‍वागत का इससे बढि़या ठिकाना शायद ही कोई और हो. जब किसी अजीज का साथ हो तो, शिमला के माल रोड़ पर ठंड में भीगी उन शामों की चहलकदमी दुनिया की सबसे खूबसूरत शाम हो जाती है. रिज पर रात में चमकते चर्च के आस-पास मन बार बार खींच ले जाता. हमने तीन दिन जी भर कर शिमला में घुमक्‍कड़ी की. शिमला समझौते की एेतिहासिक जगह वाइस रीगल लॉज को तस्‍वीरों से बार-बार छू कर देखना अनुपम अनुभव था. कुफरी की पहाडि़यों पर की गई मस्‍ती ताउम्र यादों की संदूक में सहेज कर रख ली है. यात्रा के आखिरी सिरे पर शिमला टॉय ट्रेन आइसिंग ऑन केक ही थी. जंगल के उन हसीन घुमावदार रास्‍तों पर मचलती इठलाती उस ट्रेन की सवारी से बेहतर और क्‍या हो सकता था. बचपन से जिस ट्रेन की सवारी की ख्‍वाहिश मन में सपने की तरह पलती रही वो शादी के बाद इस दूसरी यात्रा में बड़ी खूबसूरती से पूरी हुई. हमने तीन दिन में कम से कम तीन बरस की जिंदगी को जिया. 

दूसरी यात्रा- कालिम्‍पोंग, दार्जिलिंग और नेपाल (काकरवित्‍ता बार्डर)

कालिंपोंग का नाम एकाध बार उड़ते-उड़ते ही सुना था. मार्च के आखिरी सप्‍ताह में संयोग बना सो कालिम्‍पोंग जा पहुंचे. पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग से 3 घंटे की दूरी पर ये नैसर्गिेक सुंदरता से भरा एकदम शांत पर्यटक स्‍थल है. ये जगह टूरिस्ट मैप पर अभी भी ख़ास जगह नहीं बना पाई है. इसकी अपनी वजहात हैं...अव्वल तो कालिम्पोंग में कोई बड़ा टूरिस्ट अट्रेक्शन नहीं है और दूसरा यहां से दार्जिलिंग कुल 41 किलोमीटर है तो गंगटोक 64 किलोमीटर. इसलिए गंगटोक और दार्जिलिंग आने वालों के लिए कालिम्पोंग को यात्रा में शामिल करना मुनासिब नहीं रह जाता. यहां दरअसल वही आता है जो सुकून की तलाश में है या जो पूरी फुर्सत अपने हाथ में लेकर निकला है. यहां जिंदगी बहुत आहिस्‍ता से आगे बढ़ती देखी जा सकती है. 

कालिम्‍पोंग आएं और दार्जिंलिंग न जाएं ऐसा कैसे हो सकता है. आखिर दार्जिलिंग टॉय ट्रेन जो बुला रही थी. यहां देश के सबसे ऊंचे रेलवे स्‍टेशन घूम से दार्जिलिंग तक टॉय ट्रेन में सवारी की गई. दार्जिलिंग की टॉय ट्रेन शिमला की टॉय ट्रेन से उलट शहर के बीचों बीच चलती है.हां, पहले इसका ट्रेक न्‍यू जलपाई गुड़ी से दार्जिलिंग तक था सो जंगल भी रास्‍ते में थे...मगर अब केवल शहर में सड़कों के किनारे और बीचों बीच टॉय ट्रेन का मजा लिया जाता है. दार्जिंलिंग के चाय के बागान, और खूबसूरत रास्‍तों के लिए शब्‍द कम पड़ जाते हैं. इस दौरान सीलिगुडी होते हुए काकरवित्‍ता बॉर्डर से नेपाल में प्रवेश किया. वहां के बाजार में छिट-पुट चीजें खरीद और चहलकदमी कर लौट आए. नेपाल और भारत के अधिकतर बॉर्डर पोरस ही हैं.



तीसरी यात्रा – मुंबई


धनकुबेरों की नगरी मुंबई की भी ये मेरी पहली यात्रा थी. चार दिन की इस यात्रा में मुंबई और खासकर मध्‍य और दक्षिणी मुंबई को तफ्सील से देखा और महसूस किया. समंदर के किनारे ये शहर एक आज़ाद ख्याल शहर नज़र आता है. मरीन ड्राइव में तो जैसे कोई सम्मोहन है...हर कोई बस खिंचा चला आता है....और शाम के वक़्त लाइटों के जलते ही मरीन ड्राइव जैसे नौलखा हार पहन लेता है. इसी नौलखे हार के साये में जवां दिल समंदर के किनारे अपने इश्‍क की कहानियां लिखते नज़र आते हैं. मुम्बई में कदम रखते ही मुम्बई के खास जायके की खोज शुरू हो गई थी. लगभग सबका मानना था कि जितनी विविधता दिल्ली के जायके में है उतनी मुम्बई में नहीं. प्राइमरी रिसर्च के बाद वड़ा-पाव और जलेबी-फाफड़ा को शॉर्ट लिस्ट किया गया. दो दिन तक जब होटल के पचासों आयटम में भी वड़ा-पाव नज़र नहीं आया तो होटल स्टाफ से पूछा. अब ताज होटल में वड़ा-पाव क्यों नहीं मिलता इसका जवाब तब मिला जब तीसरे दिन मुम्बई की सड़कों पर वड़ा-पाव को खोजा गया. वड़ा-पाव की ख़्वाहिश तो हमारी पूरी हुई मगर जलेबी-फाफड़ा नहीं मिल सका. खैर, अगली बार सही...छूटने वाली चीजें फिर से आने का मोह बनाये रखती हैं.

चौथी यात्रा – गुवाहाटी-शिलांग-मायलेन्‍नोंग और चेरापूंजी
जुलाई में पूर्वोत्‍तर का दौरा रहा. यहां दो दिन गुवाहाटी और दो दिन की शिलांग यात्रा में आस-पास के चुनींदा आकर्षणों के मोहपाश में हम मायलेन्‍नोंग और चेरापूंजी तक जा पहुंचे. इस यात्रा में ब्रह्मपुत्र नदी में क्रूज पर ढ़लते सूरज को देखना, शिलांग के रास्‍ते में रुक-रुक कर शायद देश के सबसे बेहतरीन पाइनेप्‍पल को चखते चलना, शिलांग और चेरापूंजी के तमाम झरनों, एशिया के क्‍लीनेस्‍ट विलेज मायलेन्‍नोंग के लिविंग रूट ब्रिज को देखना और इस गांव की स्‍वच्‍छता की कहानी को समझना अद्भुत अनुभव रहा. सैकड़ो छोटे-छोटे अनुभव और भी रहे ...उनपर फिर कभी.



पांचवी यात्रा- बनारस और सारनाथ
यहां दुनिया के सबसे पुराने शहर वाराणसी या बनारस या फिर कहिये कि काशी के तमाम रंग और मिज़ाज़ देखे. गुज़रते वक़्त के साथ भले ही शहर के नाम बदलते गए मगर ज़रा गौर से देखिए इस शहर को तो एक साथ तीन शहर नज़र आएंगे. वो यूं कि हर नाम एक अलहदा अंदाज़ को बयां करता है और वो अंदाज़ और मिज़ाज आज भी यहां की फ़िज़ा में तारी है. फाइव स्टार होटल, एयरपोर्ट और आधुनिक मॉल वाला शहर किसी भी अन्य भारतीय शहर से कदमताल मिलाता नज़र आता है जिसमें फैशन भी है और मॉडर्निटी बस शहर को कंट्रोल में लेने को आतुर है. पर ज़रा चश्मा बदलिये तो पुराना बनारस अपने पान, बनारसी साड़ियों, मारवाड़ियों, बंगालियों, विधवाओं, पतली गलियों, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अचारों, धर्मशालाओं, वेश्याओं और आज भी चोरी-छिपे चलने वाले मुजरों के साथ साफ़-साफ़ दिखाई देता है. और साहब काशी देखना है तो ज़रा घाटों की तरफ़ निकलिए...यहां काशी विश्वनाथ हैं, पंडों पुजारियों का आधिपत्य है, घनघोर कर्मकाण्ड है, गंगा स्नान है, गंगा की आरती है, तिलक-छापा है और हिन्दू धर्म के रक्षक हैं...मठ और मठाधीश हैं. और इन सबके घालमेल से जो बनता है वो है एक अल्हड़, मदमस्त, बेफिक्र वाराणसी जहां ट्रैफ़िक सेंस गई तेल लेने, मोटर साइकिल और कार कैसे नहीं चलानी चाहिए ये यहां के गोदौलिया चौराहे पर देख लीजिये, पर यहां ऐसे ही चलती हैं...चलती क्या हैं जहां दो-चार इंच जगह दिखी वहां घुसेड़ी जाती हैं और कोई ससुर ठुके तो ठुके अपनी बला से, 'हर-हर महादेव' के जय घोष से स्नान और 'भोसड़ी के' तकिया कलाम से तर्क-वितर्क और विमर्श. ज्ञानी लोग सही कह गए हैं :
"रांड, सांड, सीढ़ी और सन्यासी,
इनसे बचे तो सेबे कासी..."

काशी के अस्सी घाट पर सुबह-ए-बनारस. दशाश्वमेध घाट पर शाम के समय तो गंगा आरती होती ही थी मगर अब यहां अस्सी पर भी सुबह के समय गंगा की आरती होने लगी है. दोनों आरतियों का अलग अनुभव है. गंगा के उस पार आरती के बीच जब सूर्योदय होता है तो सब कुछ भव्य और दिव्य हो जाता है. लगता है अभी-अभी नींद से जागी गंगा से सीधा संवाद हो रहा है.

छठी यात्रा – मैसूर- ऊटी
नवंबर आते-आते संयोग मैसूर ले गया. मैसूर, महलों की नगरी. वाडियार राजाओं से लेकर तमाम धनकुबेरों के महल. इतिहास चप्‍पे चप्‍पे पर बिखरा हुआ. मैसूर पाक नाम की मिठाई देसी घी से बनी शायद अकेली ऐसी मिठाई है जो घनघोर घी में बनी होने के बावजूद मन को भाती है और मुंह में मिश्री सी घुल जाती है. इस बार बैंगलूरू से मैसूर के रास्‍ते पर मद्दूर वड़ा से चांस एनकाउंटर हो गया. नारियल चटनी के साथ परोसे जाने वाली गज़ब डेलीकेसी है. वैक्‍स म्‍यूजियम, मां चामुंडा देवी के मंदिर के अलावा, कृष्‍णा सागर डैम, वृन्‍दावन गार्डन में लाइट एवं साउंड कार्यक्रम कभी न भूलने वाले अनुभव हैं. हम ऊटी से सिर्फ 4 घंटे की ड्राइव दूर थे तो भला कैसे छोड़ सकते थे. एक सुबह अंधेरे ही उठ कर दौड़ लिए ऊटी के लिए. दिन भर ऊटी में तफरी के बाद ऊटी की टॉय ट्रेन की सवारी का कुन्‍नूर तक आनंद लिया गया. और इसी के साथ एक वर्ष के अंदर ही वर्ल्‍ड हैरीटेज साइट में शामिल तीनों टॉय ट्रेन (शिमला, दार्जिलिंग और नीलगिरी) का मेरा अनुभव भी पूरा हुआ. 


मैसूर से लौटते समय टीपू सुल्‍तान की राजधानी श्रीरंगापट्टनम में वो जगह भी देखी जहां जंग के दौरान टीपू सुल्‍तान का शरीर पाया गया. इतिहास अब पत्‍थरों की जुबानी अपनी कहानी कह रहा है।


समय और संयोग बहुत बलवान होते हैं. यात्राओं के मामले में भी कुछ ऐसा ही है. हम किस समय कहां होंगे शायद पहले से ही तय रहता है. मगर हम कहां जान पाते हैं. इसीलिए मन तो बस बार-बार कहीं दूर उड़ चलना चाहता है....नई दिशाओं में नई मंजिलों की ओर. मेरी यात्राओं के लिए वर्ष 2015 शानदार रहा. अब देखते हैं 2016 की पोटली में कौन सी नई मंजिलें और नए अनुभव छिपे हुए हैं. हां, इससे पहले की 2016 के पन्‍ने पलटने शुरू हों....जनवरी में हम चार घुमक्‍कड़ मित्र भोपाल और आस-पास के इलाकों की घुमक्‍कड़ी पर निकलने के कार्यक्रम को अंतिम रूप दे रहे हैं. तो नया साल आप सब को बहुत बहुत मुबारक हो. तारीखों की सरहद के परे नए साल में यात्राओं के साथ मुलाकातें होती रहेंगी. अलविदा !
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