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गुरुवार, 27 अगस्त 2020

विरासत और कला का अनूठा संगम है माहेश्‍वरी साड़ी । Maheshwari Saree: An incredible mix of Heritage and Art

 विरासत और कला का अनूठा संगम है माहेश्‍वरी साड़ी


मध्‍य प्रदेश में इंदौर से तकरीबन 95 किलोमीटर दूर मौजूद महेश्‍वर न केवल नर्मदा तट पर मौजूद अपने एतिहासिक शिव मंदिर के कारण विख्‍यात है बल्कि अपनी माहेश्‍वरी साड़ियों से भी हैंडलूम की साडियों के कद्रदानों को लुभाता रहा है. कुछ दिनों पहले इंदौर जाना हुआ तो मालवा के इतिहास और संस्‍कृति को और करीब से समझने की तलब वहां से पहले मांडू और फिर महेश्‍वर तक ले गई. यूं सम‍झिए कि मांडू तक आकर अगर कोई बिना महेश्‍वर देखे लौट जाए तो उसने मालवा की आत्‍मा का साक्षात्‍कार नहीं किया.

नर्मदा के तट पर बसा महेश्‍वर पाँचवी सदी से ही हथकरघा बुनाई का केंद्र रहा है और मराठा होल्‍कर के शासन काल में जनवरी 1818 तक मालवा की राजधानी रहा है. ये महेश्‍वर के इतिहास का सुनहरा दौर था. यही वह समय था जब हथकरघा पर माहेश्‍वरी साड़ी अस्तित्‍व में आई. आज भी महेश्‍वर में और खासकर महेश्‍वर के शिव मंदिर के आस-पास छोटे-छोटे घरों से हथकरघों पर माहेश्‍वरी साड़ी को बुनते हुए देखा जा सकता है. रेहवा सोसायटी के बैनर तले आज भी सैकड़ों हथकरघों पर माहेश्‍वरी साड़ी का जादू बुना जा रहा है.

माहेश्‍वरी साड़़ी़ और हथकरघा बुनकर, Handloom weaver of Maheshwari Saree
माहेश्‍वरी साड़़ी़ और हथकरघा बुनकर
(PC: Veera Handlooms, Maheshwar)

अहिल्‍याबाई होल्‍कर के कारण अस्तित्‍व में आई माहेश्‍वरी साड़ी

माहेश्‍वरी साड़ी के अस्तित्‍व में आने के बारे में एक कहानी यहां की फिज़ाओं में तैर रही है. कहानी कहती है कि इंदौर की महारानी अहिल्‍या बाई होल्‍कर के दरबार में कुछ खास मेहमान आने वाले थे सो महारानी ने सूरत से कुछ खास बुनकरों के परिवारों को बुलाकर महेश्‍वर में बसाया और उन्‍हें उन मेहमानों के लिए खास वस्‍त्र तैयार का काम सौंपा. ये मेहमान कौन थे इसका साफ-साफ उल्‍लेख मुझे कहीं नहीं मिला. अलबत्‍ता वहां के एक गाइड ने एक दिलचस्‍प कहानी मुझे सुनाई. इस कहानी के मुताबिक मालवा की महारानी अहिल्‍याबाई (31 मई, 1725 – 13 अगस्‍त, 1795) के पति खांडेराव होल्‍कर की 1754 में कुम्‍हेर के युद्ध में मृत्‍यु के बाद उनके ससुर मल्‍हार राव होल्‍कर ने उन्‍हें सती नहीं होने दिया और अगले 12 वर्ष स्‍वयं इंदौर का राज-काज संभाला.

अहिल्‍याबाई होल्‍कर, Ahilya Bai Holkar
अहिल्‍याबाई होल्‍कर

फिर 1766 में मल्‍हार राव होल्‍कर की मृत्‍यु के बाद मल्‍हार राव के पोते और अहिल्‍याबाई के पुत्र खांडेराव ने गद्दी को संभाला लेकिन पुत्र की भी मृत्‍यु के बाद आखिरकार अहिल्‍याबाई ने शासन अपने हाथों में लिया. अपने शासन काल में उन्‍होंने न केवल महेश्‍वर बल्कि तमाम अन्‍य शहरों में भी घाटों, कुओं, मंदिरों का निर्माण करवाया. यहां तक कि काशी का विश्‍व प्रसिद्ध काशी विश्‍वनाथ का मंदिर भी रानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर द्वारा ही बनवाया गया था. उनके शासन काल को महेश्‍वर का स्‍वर्ण-काल माना गया. महेश्‍वर की जनता आज भी अपनी प्रिय रानी को बहुत सम्‍मान से याद करती है और उन्‍हें मॉं साहब कह कर याद करती है. बेशक अहिल्‍याबाई अपने विवेक और कौशल के साथ राज्‍य का संचालन कर रहीं थीं मगर अहिल्‍या चूंकि महिला थीं इसलिए स्‍वाभाविक रूप से आस-पास की रियासतों और मुग़ल शासकों की नज़रें इस राज्‍य पर पड़ने लगीं. अहिल्‍याबाई इस खतरे को साफ देख रहीं थीं.

निस्‍संदेह मालवा इतना शक्तिशाली नहीं था कि इन षड्यंत्रों का मुकाबला कर पाता. इसलिए ऐसे कठिन समय में अहिल्‍याबाई ने अपने भरोसेमंद पड़ौसी राज्‍यों और विश्‍वस्‍त लोगों को एक बहन की तरह रक्षा का अनुरोध किया. उन सभी लोगों ने भी बहन की रक्षा का वायदा किया और मालवा पधारने का कार्यक्रम बनाया. अहिल्‍याबाई ने इस अवसर को अपने पड़ौसियों के साथ अपने संबंधों को सुदृढ़ बनाने के अवसर के रूप में लिया और उन्‍होंने सूरत से खास बुनकरों को महेश्‍वर बुला कर भाईयों के लिए खास तरह की पगड़ी तैयार करने के लिए कहा. बुनकरों ने बेहद खूबसूरत पगड़ियाँ तैयार कीं.

नर्मदा के किनारे महेश्‍वर, Maheshwar in MP
नर्मदा के किनारे महेश्‍वर 

तभी किसी ने महारानी को सलाह दी कि उन्‍हें भाईयों की पत्नियों के लिए भी कुछ उपहार भेजने चाहिएं. महारानी ने काफी सोच-विचार के बाद तय किया वे भाभियों के लिए खास तरह की साड़ियां उपहार में भेजेंगी. बस फिर क्‍या था, बुनकरों को एक बार फिर बुलाया गया और उन्‍हें निदेश दिया गया कि भाभियों के लिए भी बेहद खूबसूरत साड़ियां तैयार की जानी हैं. ऐसी साड़ियां जिनमें महेश्‍वर की आन-बान और शान झलकती हो. बस यहीं से माहेश्‍वरी साड़ी ने जन्‍म लिया.

और यही नहीं, आप कहीं भी मां साहब अहिल्‍या बाई की तस्‍वीर या उनकी प्रतिमा को गौर से देखिएगा, जो सादगी उस देवी की सूरत में नज़र आती है वही सादगी और नफ़ासत माहेश्‍वरी साड़ी में भी आपको नज़र आएगी.

साड़ी में दिखती है महेश्‍वर की झलक

चूंकि साड़ी का नाम महेश्‍वर के नाम पर पड़ा इसलिए स्‍वाभाविक है कि इस साड़ी में महेश्‍वर की झलक अवश्‍य ही होगी. दरअसल माहेश्‍वरी साड़ी की पहचान है इसमें इस्‍तेमाल की गई डिजाइन हैं जो विशेष रूप से महेश्‍वर के विश्‍व-प्रसिद्ध शिव मंदिर और महेश्‍वर किले की दीवारों पर मौजूद विभिन्‍न आकृतियों से ली गई हैं. अगर आप महेश्‍वर किले के भीतर नर्मदा के तट पर स्थित मंदिर परिसर में शिव मंदिर की परिक्रमा करते हुए इसके चारों तरफ बनी आकृतियों पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि माहेश्‍वरी साड़ी के बुनकरों ने इन डिजाइनों को बहुत प्रमुखता से माहेश्‍वरी साड़ियों में स्‍थान दिया है

माहेश्वरी साड़ी अक्‍सर प्लेन ही होती हैं जबकि इसके बॉर्डर पर फूल, पत्ती, बूटी आदि की सुन्दर डिजाइन होती हैं. इसके बॉर्डर पर लहरिया (wave), नर्मदा (Sacred River), रुई फूल (Cotton flower), ईंट (Brick), चटाई (Matting), और हीरा (Diamond) प्रमुख हैं. पल्लू पर हमेशा दो या तीन रंग की मोटी या पतली धारियां होती हैं. इन साड़ियों की एक विशेषता इसके पल्लू पर की जाने वाली पाँच धारियों की डिजाइन – 2 श्वेत धारियाँ और 3 रंगीन धारियाँ (रंगीन-श्वेत-रंगीन-श्वेत-रंगीन) होती है. माहेश्‍वरी साड़ियों के आम तौर पर चंद्रकला, बैंगनी चंद्रकला, चंद्रतारा, बेली और परेबी नामक प्रकार होते हैं. इनमें से पहली दो प्‍लेन डिजाइन हैं जबकि अंतिम तीन में चेक या धारियां होती हैं.

रुेंहnd) iver)ेशा महेश्‍वर बलिकमूल माहेश्‍वरी साड़ी की एक खासियत और है और वो है इसकी 9 यार्ड की लंबाई और इसके पल्‍लू का रिवर्सिबल होना. पल्‍लू की इन खासियतों की वजह से ही अकेले पल्‍लू को तैयार करने में ही 3-4 दिन लग जाते हैं. वहीं पूरी साड़ी को तैयार करने में 3 से 10 दिन का वक्‍़त लग सकता है. आप इसे दोनों तरफ़ से पहन सकते हैं.

शुरुआत में इस साड़ी को केवल शाही परिवारों, राजे-रजवाड़ों के परिवारों में स्‍थान मिला लेकिन बाद में ये साड़ियाँ आम लोगों की भी प्रिय हो गईं. जहां शुरुआत में माहेश्‍वरी साड़ी को केवल कॉटन से तैयार किया जाता था वहीं अब रेशमी माहेश्‍वरी साड़ियाँ भी महिलाओं की प्रिय हो गई हैं. आजकल कोयंबटूर कॉटन और बेंगलूरू सिल्‍क को मिला कर मनमोहक साड़ियाँ  तैयार की जा रही हैं. शुरुआत में माहेश्‍वरी साडियों को प्राकृतिक रंगों से ही तैयार किया जाता था लेकिन तेज भागते दौर में अब इनमें कृत्रिम रंगों का ही प्रयोग होने लगा है.

 

महेश्‍वर के शिव मंदिर में डिजाइन, Shiv mandir of Maheshwar
महेश्‍वर के शिव मंदिर में डिजाइन

साड़ी के हैं बहुत से क़द्रदान

प्रतिभा राव इंस्‍टाग्राम पर yarnsofsixyards_et_al के नाम से साड़ियों पर केंद्रित एक दिलचस्‍प अकाउंट चला रही हैं. प्रतिभा के पास हिंदुस्‍तान में प्रचलित लगभग हर साड़ी मौजूद है. वो जब-तब इन साड़ियों के बारे में अपने अनुभव साझा करती रही हैं. जब हमने माहेश्‍वरी साड़ी के बारे में प्रतिभा से बात की तो उनका कहना था कि  

Pratibha Rao in Maheshwari Saree
रेहवा से खरीदी माहेश्‍वरी साड़ी में प्रतिभा

इस साड़ी के महीन से रंग, बॉर्डर पर ज़री का ख़ास किस्‍म का काम मुझे बहुत आकर्षित करता है. चटाई बॉर्डर मेरा पसंदीदा है. माहेश्‍वरी साड़ियों की एक ख़ास बात है. अपने रंगों की विविधता और डिजाइन की पेचीदगियों के चलते एक ही साड़ी साधारण और ख़ास दोनों मौकों पर पहनी जा सकती है. इन साड़ियों में नर्मदा की लहरों जैसी पवित्रता है. ऐसा लगता है जैसे नर्मदा घाट की भोर और गोधूली के सुंदर रंगों को संजोए माहेश्‍वरी साड़ियाँ एक बीते शाही कल की रोचक कहानी कहती हैं. संस्‍कृत में नर्मदा का अर्थ है- आनंदमयी, महेश्‍वर के सुंदर घाटों से उपजी ये साड़ियाँ भी इस अर्थ को चरितार्थ करती हैं

सोशल मीडिया और तकनीक ने बुनकरों और क़द्रदानों के बीच की दूरी को जैसे खत्‍म ही कर दिया है. इंस्‍टाग्राम पर ही ज़रा सा सर्च करेंगे तो दर्जनों अच्‍छे बुनकरों के अकाउंट मिल जाएंगे जो अपनी साड़ियों की तस्‍वीरों को यहां प्रस्‍तुत कर ग्राहकों से सीधे आर्डर ले रहे हैं.

रेहवा सोसायटी ने फिर से जिंदा किया इस परंपरा को

वक्‍़त के साथ बुनकर इस काम से दूर होते गए और माहेश्‍वरी साड़ियाँ जैसे गायब ही होती गईं. लेकिन 1979 में होल्‍कर वंश के रिचर्ड होल्‍कर और उनकी पत्‍नी सल्‍ली होल्‍कर ने जब रेहवा सोसायटी (एक गैर लाभकारी संगठन) की स्‍थापना की तो महेश्‍वर की गलियों में एक बार फिर करघे की खट-पट सुनाई देने लगी. कुल 8 करघों और 8 महिला बुनकरों के साथ शुरू हुई इस सोसायटी के साथ बुनकर जुड़ते गए और आज इस सोसायटी के दिल्‍ली और मुंबई में रिटेल आउटलेट हैं. चूंकि सोसायटी नॉन प्रोफिट संगठन है इसलिए इसके लाभ को बुनकरों और स्‍टाफ पर ही खर्च किया जाता है.

Rehwa Society

इन दिनों बुनकर संकट में हैं, इसीलिए रेहवा सोसायटी भी अपनी साइट के माध्‍यम से उनके लिए मदद मांग रही है. जिसमें आप आज किसी बुनकर के लिए फुल वैल्‍यू क्रेडिट खरीद सकते हैं और इस क्रेडिट से बाद में रेहवा की साइट से कपड़े खरीद सकते हैं. हमें ऐसे प्रयासों में अवश्‍य ही मददगार होना चाहिए. 

बहुत मेहनत छुपी है साड़ी की खूबसूरती के पीछे

उस रोज़ इंदौर से महेश्‍वर के लिए निकलते वक्‍़त मैं ये सोच कर निकला था कि इन साड़ियों के बनने की पूरी प्रक्रिया को समझना है. इसीलिए इंदौर में मौजूद बुनकर सेवा केंद्र के अधिकारियों से महेश्‍वर के बुनकरों और हैंडलूम के शो रूम का पता जेब में लेकर निकला था. नर्मदा रिट्रीट में दोपहर का लंच करते हुए श्रवणेकर हैंडलूम के मालिक से बात हुई तो उन्‍होंने दुकान पर आ जाने के लिए कहा. नज़दीक ही थे हम. बस चंद पलों में मैं दर्जनों तरह की माहेश्‍वरी साड़ियों के सामने था. इन साड़ियों के बारे में विस्‍तार से बात हुई. फिर वर्कशॉप भी देखी गई जहां धागों की रंगाई हो रही थी. वहीं कुछ बुनकरों से बात करने पर पता चला कि उनका पूरा परिवार ही साड़ियों की बुनाई के काम से जुड़ा है. ये एक आदमी के बस का काम है भी नहीं. कच्‍चे माल के प्रबंध, धागों की रंगाई, रंगों को तैयार करने, हैंडलूम पर बुनाई से लेकर उनकी बिक्री तक बहुत काम होता है. सरकारी स्‍तर पर तमाम सुविधाओं और योजनाओं के बावजूद बुनकरों का मानना है कि उन्‍हें उनकी मेहनत का वाजिब हक़ नहीं मिल पाता है.

पावरलूम से मिल रही है बड़ी चुनौती

पावरलूम तो हमेशा से ही हैंडलूम के लिए एक स्‍थाई चुनौती बना ही हुआ है. कारीगर जो डिजाइन बड़ी मेहनत से हथकरघा के लिए तैयार करते हैं उन्‍हें पावरलूम का इस्‍तेमाल करने वाली मिलें और कं‍पनियां नकल करके धड़ल्‍ले से तैयार कर रही हैं. 

Maheshwari Saree in Maheshwar, माहेश्‍वरी साड़ी
श्रवणेकर हैंडलूम पर माहेश्‍वरी साड़ी


लेकिन हथकरघा के कद्रदान हमेशा रहे हैं और रहेंगे. शायद इसीलिए स्‍वयं में मालवा के राजसी वैभव, गौरवशाली इतिहास और कारीगरी की विरासत को संभालने वाली माहेश्‍वरी साड़ी आज भी लोगों के बीच प्रिय है. 

REWA SOCIETY की अपील
REWA SOCIETY की अपील (PC: REWA)


छोटे-छोटे ख्‍़वाब पंख फैला रहे हैं

महेश्‍वर में इस समय दर्जनों हैंडलूम ऐसे हैं जो अपने काम को इंटरनेट, ख़ासकर फेसबुक और इंस्‍टाग्राम के ज़रिए दुनिया तक पहुंचा रहे हैैंं. इंस्‍टाग्राम ही उनका शो रूम है जहाँ वे अपनी साड़ियों को प्रदर्शित कर ऑर्डर हासिल कर रहे हैं. महेश्‍वर में ही दो भाई राहुल चौहान और नीरज चौहान लगभग 50 करघों वाला वीरा हैंडलूम चला रहे हैं. वे बताते हैं कि हैंडलूम साडियों का काम उनका पुश्‍तैनी काम है जो 1950 से चला आ रहा है। पहले दादा, फिर पिता और अब हम दो भाई इस परंपरा को संभाल रहे हैं. ये हमारे लिए केवल एक पुश्‍तैनी या परिवार का बिजनेस नहीं है बल्कि हमें लगता है कि हम लोगों के ख्‍़वाबों को बुन रहे हैं. हमारे परिवार के हर सदस्‍य के खून में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के भीतर ये भावना चली आई है इसीलिए परिवार का हर सदस्‍य सपनों की बुनाई के इस काम में अपना योगदान देता है।



महेश्‍वर का शिव मंदिर


माहेश्‍वरी साडि़यों की वर्कशॉप, Colours for Maheshwari Sarees
माहेश्‍वरी साड़ियों की वर्कशॉप 

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यह भी पढ़ें: स्‍वदेशी आंदोलन की स्‍मृतियों को समर्पित है राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस



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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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यहां भी आपका स्‍वागत है:

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज़ की यादों को जिंदा रख रहा है मोइरांग (मणिपुर) का आईएनए म्‍युजियम । INA Museum of Moirang (Manipur)


सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज़ की यादों को जिंदा रख रहा है मोइरांग (मणिपुर) का आईएनए म्‍युजियम 

INA Museum of Moirang (Manipur)


भारत की आजादी के संघर्ष में सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज़ एक ऐसा अध्‍याय है जो सबसे ज्‍यादा रोमांचक कहानियों, रहस्‍यों और अकल्‍पनीय साहस की कहानियों से भरा हुआ है. सुभाष का जीवन जितना रहस्‍यमयी रहा उनकी मृत्‍यु उससे भी अधिक. हमें बताया गया है कि 18 अगस्‍त, 1945 को एक विमान दुर्घटना में बोस की मृत्‍यु हुई. लाख विवादों के बावजूद हम 18 अगस्‍त को ही उनकी पुण्‍य तिथि मानकर अपने श्रृद्धा सुमन उन्‍हें अर्पित करते आए हैं. कुछ वक्‍़त पहले मणिपुर की यात्रा की तो मोइरांग में आज़ाद हिंद फौज़ के मुख्‍यालय और अब आईएनए म्‍युजियम की यात्रा के बाद लगा जैसे किसी तीर्थ स्‍थान की यात्रा कर ली हो. 

मोइरांग, मणिपुर की राजधानी इंफाल से लगभग 45 किलोमीटर दूर एक छोटा सा कस्‍बा है जो इसके पास मौजूद पूर्वोत्‍तर की सबसे बड़ी ताजे पानी की झील लोकतक के कारण टूरिस्‍ट मैप पर अपनी जगह बना रहा है. लेकिन आज़ाद हिंद फौज से जुड़े इतिहास के कारण मोइरांग का एतिहासिक महत्‍व कहीं ज्‍यादा है.
INA Museum at Moirang, मोइंरांग का आईएनए संग्रहालय
मोइंरांग का आईएनए संग्रहालय


कैसे बनी आज़ाद हिंद फौज

आज़ाद हिंद फौज का गठन ब्रिटिश इंडियन आर्मी के युद्ध बंदियों द्वारा किया गया था जिन्‍हें जापान ने मलेशिया आौर सिगापुर से पकड़ा था. बाद में सुभाष के आह्वान पर मलेशिया, सिगापुर और बर्मा में बसे भारतीयों ने भी आज़ाद हिंद फौज का हिस्‍सा बनना शुरू कर दिया. लोग साथ आते गए कारवां बनता गया. यहां तक कि महिलाएं भी जासूस से लेकर बंदूक चलाने तक की भूमिकाओं में भीं. हजारों लोग वॉलंटियर के रूप में साथ थे. फिर जापानी फौज के साथ मिलकर आज़ाद हिंद फौज ने दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान तमाम युद्ध लड़े.

मोइरांग में फहराया गया था पहली बार तिरंगा

दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान मोइरांग आज़ाद हिंद फौज यानी कि Indian National Army (INA) का मुख्‍यालय था. मोइरांग में कर्नल शौकत मलिक ने श्री माइरेमबाम कोईरांग सिंह (बाद में वे मणिपुर के पहले मुख्‍यमंत्री बने) की मदद से 14 अप्रैल, 1944 को भारत की धरती पर पहली बार आईएनए के तिरंगे को फहराया था. जबकि इस तिरंगे को पहली बार 30 दिसंबर, 1943 को खुद सुभाष चंद्र बोस ने पोर्ट ब्‍लेयर में फहराया था. उस समय नेताजी आईएनए के कमांडर और इंडियन नेशनल गवर्नमेंट के प्रेसिडेंट थे. मोइरांग में जिस जगह तिरंगा फहराया गया था आज वहां आईएनए का एक संग्रहालय बन गया है. यहां एक दीवार पर एक पत्‍थर लगा है जिस पर लिखा है:


आजाद हिंद फौज शहीद स्‍मारक और संग्रहालय

मोइरांग में जहां तिरंगा फहराया गया था आज वहां एक संग्रहालय मौजूद है जो दूसरे विश्‍व युद्धसुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज़ की स्‍मृतियों को जीवंत कर रहा है. इसकी चार-दीवारी के भीतर कदम रखते ही उस दौर की कहानियां आंखों के आगे तैरने लगती हैं. संग्रहालय में उस दौर में हुए युद्धों में आज़ाद हिंद फौज के जवानों द्वारा इस्‍तेमाल किए गए हथियारहैल्‍मेट और तमाम अन्‍य चीजें रखी हुई हैं. साथ ही तमाम किताबेंदस्‍तावेजसुभाष के हाथों से लिखे खतपांडुलिपियां और तस्‍वीरें जो उस दौर में घटित हुई घटनाओं की तस्‍दीक करती हैं. 
इसी म्‍युजियम में सुभाष के एक पनडुब्‍बी में तीन महीने की यात्रा कर सिंगापुर से जर्मनी पहुंचनेआज़ाद हिंद फौज़ के आगे बढ़ने और पीछे हटने के रूट के नक्‍शे भी मौजूद हैं. इस संग्रहालय का उद्घाटन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 23 सितंबर1969 को किया. म्‍युजियम का स्‍टाफ बताता है कि म्‍युजियम के अधिकारियों ने पूरे मणिपुर और आस-पास के इलाकों से आज़ाद हिंद फौज और नेताजी से जुड़ी चीजों को इकट्ठा किया है. ये मेहनत दिखती भी है. लेकिन देश के सबसे गौरवशाली इतिहास को शायद इससे बेहतर तरीके से संजोया जाना चाहिए था. काश देश की राजधानी में कोई राष्‍ट्रीय स्‍तर का संग्रहालय होता. लेकिन ऐसा हो न सका. सुभाष को लेकर एक अजीब सी खामोशी और चुप्‍पी शुरू से अब तक देखने में आती है जो समझ से परे है. लेकिन सुभाष हमेशा लोगों के दिलों पर राज करते रहे. अब इस संग्रहालय की देख-देख मणिपुर सरकार कर रही है. 


संग्रहालय में मौजूद हैं 3 खास स्‍मारक - 

1.   सुभाष चंद्र बोस की कांसे की प्रतिमा: 

    इसी मैमोरियल के परिसर में बाहर की ओर सुभाष चंद्र बोस की कांसे एक आमदकद प्रतिमा लगी है जो सबके आकर्षण का केंद्र रहती है. इस प्रतिमा के पास आकर लगता है कि सुभाष बोस कहीं आस-पास ही हैं. इसे 1971 में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा दान किया गया था.


2.   युद्ध स्‍मारक : 

    मोइरांग के इस आईएनए म्‍युजियम में ही एक ओर एक युद्ध स्‍मारक दिखाई पड़ता है. ये युद्ध स्‍मारक आज़ाद हिंद फौज के शहीदों को समर्पित है. असल में ये स्‍मारक आजाद हिंद फौज के शहीदों की याद में सिंगापुर में नेताजी की देख-रेख में 1945 में बनाए गए एक स्‍मारक की प्रतिकृति है जिसे अंग्रेजों ने सिगापुर पर कब्‍जे के बाद उसी साल के आखिरी दिनों में नष्‍ट कर दिया था. फिर 1968 में मोइरांग के महत्‍व को देखते हुए इस स्‍मारक को फिर से बनाने का निर्णय लिया गया और 1969 में मोइरांग के इस स्‍मारक का लोकार्पण तत्‍कालीन प्रधानमंत्री, श्रीमति इंदिरा गांधी द्वारा किया गया था. आज़ाद हिंद फौज और जापानी इंपीरियल आर्मी के हजारों जवानों ने मणिपुर में इंफाल युद्ध (Battle of Imphal) में अपनी शहादत दी थी तब जाकर मणिपुर घाटी के 1500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को ब्रिटिश हुकुमत के चंगुल से आज़ाद कराया जा सका. ये स्‍मारक उन्‍हीं शहीदों की याद दिलाता है.

INA Museum at Moirang, मोइंरांग का आईएनए संग्रहालय


3.   जहां पहली बार फहराया गया तिरंगा: 

    यहां तीसरा स्‍मारक मणिपुरी शैली में बना एक ढ़ांचा है जिस पर यहां पहली बार झंडा फहराए जाने की कहानी दर्ज है. हांलाकि इस जगह पहले मोइरांग के राजाओं की ताजपोशी हुआ करती थी लेकिन 1968 में इसे तिरंगा फहराए जाने की याद में एक स्‍मारक का रूप दे दिया गया.

INA Museum at Moirang, मोइंरांग का आईएनए संग्रहालय


इस संग्रहालय और शहीद स्‍मारक द्वारा आज भी तमाम अन्‍य कार्यक्रमों के साथ-साथ सुभाष चंद्र बोस जयंती (23 जनवरी), ध्‍वाजारोहण दिवस (14 अप्रैल) और आज़ाद हिंद हुकूमत दिवस (21 अक्‍तूबर) मनाए जाते हैं. कुल मिलाकर सुभाष को हमारी स्‍मृतियों में जि़ंदा रखने की ये स्‍मारक पूरी कोशिश कर रहा है.

क्‍या आज़ादी से पहले ही बन गई थी भारत की सरकार ?

आपको जानकर आश्‍चर्य होगा मगर ये सच है कि 15 अगस्‍त, 1947 को भारत की आज़ादी से बहुत पहले ही भारत की पहली सरकार का गठन हो चुका था. मणिपुर के बड़े क्षेत्र को आज़ाद कराने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पहली अंतरिम सरकार का गठन किया और इसी मोइरांग को मुख्‍यालय बनाया गया. ये स्‍वतंत्र भारत की पहली अपनी सरकार थी. 

आज ये सब पढ़ो तो लगता है कि क्‍या नेताजी को बड़ा सपना देख रहे थे? तो साहब, ऐसा नहीं है. ये शख्‍़स कोई साधारण आदमी नहीं था. नेताजी हर चीज के नाप-तोल कर आगे बढ़ रहे थे. आज़ाद हिंद फौज में वतन पर जान कुर्बान करने का जज्‍़बा लिए लड़ने वालों की कमी नहीं थी. और अंग्रेज सरकार इस उठती आंधी की ताकत को समझ चुकी थी और सुभाष को अपना सबसे बड़ा शत्रु घोषित कर चुकी थी.

आज़ाद हिंद फौज़ का मंत्रिमंडल 


दिलचस्‍प बात है कि इस सरकार को 18 देशों का समर्थन भी मिला. सुभाष चंद्र बोस आईएनए के कमांडर और प्रोविजनल गवर्नमेंट के राष्‍ट्रपति बने. सरकार की अपनी करेंसी, डाक टिकटें, फौज के अपने तमगे, रैंक और चिन्‍ह भी थे. मतलब सब कुछ व्‍यवस्थित. आज़ाद हिंद फौज़ को पूरे देश से अपार धन, सोना-चांदी दान में मिल रहा था. 

सब चाहते थे कि नेताजी ब्रिटिश हुकूमत से देश को आजाद कराएं और सबको इस बात का पूरा भरोसा भी था. लेकिन विश्‍व युद्ध की परिस्थितियों और बर्तानिया हुकूमत की ताकत के सामने ये जीत ज्‍यादा दिन बनी नहीं रह सकी. मित्र राष्‍ट्रों की सेनाओं ने फिर से हारे हुए इलाके को जीत लिया और आज़ाद हिंद फौज़ को मलय प्रायद्वीप तक धकेल दिया और अंतत: सिगापुर में इसे समर्पण करना पड़ा. उधर खुद सुभाष चंद्र बोस की सोवियत यूनियन की ओर जाने की कोशिश में 18 अगस्‍त,1945 को एक विमान दुर्घटना में मृत्‍यु हो गई.




हमेशा दिलों में जिंदा रहेंगे सुभाष 


सुभाष की मृत्‍यु पर देश कभी यकीन नहीं कर पाया. बहुत लोगों का मानना है कि सुभाष की मृत्‍यु उस दुर्घटना में नहीं हुई थी बल्कि वे बाद में बहुत वर्षों तक जिंदा रहे. कभी गुमनामी बाबा तो कभी किसी और रूप में अक्‍सर उनके यहां-वहां देखे जाने की ख़बरें भी आती रहीं. मगर पुख्‍़ता तौर पर कभी उनकी पहचान सामने नहीं आ पाई. वे एक रहस्‍य बन कर रह गए. लेकिन शायद कहीं किन्‍हीं फाइलों में उनकी सच्‍चाई दर्ज़ है जो अभी तक सामने नहीं आ पाई है. हम उम्‍मीद ही कर सकते हैं कभी न कभी देश के इस सबसे प्‍यारे बेटे के बारे में जो भी सच इस देश की फाइलों में है, वो ज्‍यों का त्‍यों जनता के सामने लाया जाएगा. सच चाहे जो भी हो, सुभाष हमेशा हमारे दिलों में राज करते रहेंगे. वतन का नाज़ है अपने इस सपूत पर. जय हिंद !

दोस्‍तो इतिहास से जैसे सुभाष गायब कर दिए गए, उनके बारे में बहुत कम बात होती है...न जाने वो किस मिट्टी के अहसान फरामोश लोग हैं जो चाहते हैं कि सुभाष स्‍मृतियों से गायब हो जाएं. यदि आपको उचित लगे तो इस पोस्‍ट को अपने दोस्‍तों से भी साझा करना न भूलें. ताकि कुछ और लोग सुभाष की स्‍मृतियों से जुड़ सकें. शुक्रिया धैर्य से पढ़ने के लिए. 

कुछ और तस्‍वीरें मोइरांग के आईएनए म्‍युजियम से... 









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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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शनिवार, 15 अगस्त 2020

चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा नाथु-ला पास: 1967 की एक भूली हुई कहानी | How Nathu-La Pass was saved from China in 1967

चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा नाथु-ला पास: 1967 की एक भूली हुई कहानी

हम जब-जब आज़ादी का जश्‍न मनाते हैं तो हमें इस बात का बार-बार अहसास होता है कि इस आज़ादी को हासिल करने और इसे बनाए रखने के लिए हमारे वीर सपूतों ने अनगिनत बलिदान किए हैं. कुछ कहानियां हम जानते हैं और कुछ के बारे में हमें ज्‍यादा जानकारी नहीं है. इन दिनों चीन से लगती हमारी सीमाओं पर एक बार फिर भारी तनाव है, लद्दाख में सीमाओं की रक्षा करते हुए 20 जवान शहीद हो गए. इसके बाद भी लद्दाख से लेकर अरुणाचल की लगभग 3500 किलोमीटर लंबी वास्‍तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन का दुस्‍साहस जब-तब देखने को मिल रहा है और चीन हमारी सरहदों को हमारी ओर धकेलने की नापाक कोशिश में जुटा है. चीन बार-बार हमें 1962 का किस्‍सा तो याद दिलाता है मगर वो खुद 1967 में नाथु-ला के युद्ध में अपनी करारी शिकस्‍त की कहानी याद नहीं करना चाहता है जब हमारे बहादुर जवानों ने जान की बाजी लगा कर भी चीन की बड़ी फौज  धूल चटा दी थी.

चीन की बुरी नज़र तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में ही इस दर्रे पर पड़ चुकी थी और जब धमकियों और घुड़काने से बात नहीं बनी तो 1967 में चीन ने यहां बहाना खोजकर हमला ही बोल दिया. लेकिन भारतीय फ़ौज के शौर्य और बलिदान की बदौलत ये दर्रा आज भी भारत के पास है और सिक्किम की यात्रा करने वाले पर्यटक नाथु-ला पास पर स्थित भारत-चीन सीमा को देखने ज़रूर जाते हैं.

इत्‍तेफ़ाक से पिछले साल दिसंबर महीने के आखिरी सप्‍ताह में मैं नाथु-ला दर्रे तक होकर आया हूँ. ये दिसंबर, 2019 का आखि़री सप्‍ताह था. 27 दिसंबर, 2019 के उस रोज नाथु-ला पास पर भारी बर्फबारी और वहां फंसने वाले हजारों पर्यटकों के बीच मैं और मेरा परिवार भी था. सेनाके रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन में हमें वहां से सुरक्षित निकाले जाने के कारण नाथु-ला की उस यात्रा को हम लोग पूरी जिंदगी नहीं भूल पाएंगे.

Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
चीन से लगती सीमा पर नाथु-ला दर्रा

सामरिक दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है नाथु-ला

उस रोज़ नाथु-ला दर्रे की ओर बढ़ते हुए इस दर्रे के बारे में पढ़ी हुई बातें एक-एक कर दिमाग़ में घूम रही थीं. ये ख़ूबसूरत दर्रा सन 1967 में बस चीन के हाथों में जाते-जाते ही बचा था. 14,200 फीट की ऊंचाई पर मौजूद नाथु-ला दर्रा तिब्‍बत–सिक्किम सीमा पर स्थित है और यही वह जगह है जिससे होकर पुराना गंगटोक-यातुंग-ल्‍हासा व्‍यापार मार्ग गुज़रता है. इसे ओल्‍ड सिल्‍क रूट भी कहते हैं. गंगटोक छोड़ कर जैसे ही गाड़ी ने नाथु-ला की ओर जाने वाले रास्‍ते पर थर्ड माइल की चेक पोस्‍ट पार की, नज़ारा बदलने लगा. 

गंगटोक से लेकर नाथु-ला तक के पूरे रास्‍ते की पहचान माइल से ही होती है. ये फौज का अपना तरीका है रास्‍ते का प्रबंध करने का. अब आगे का पूरा इलाका सेना के नियंत्रण में था. इस पूरे रास्‍ते पर सेना की भारी मौजूदगी देखकर मेरे लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि ये इलाका सामरिक दृष्टि से भारत के लिए कितना महत्‍वपूर्ण और संवेदनशील है. इस सबके बावजूद सेना ने नाथु-ला दर्रे को भारतीय पर्यटकों के लिए खोल रखा है. ये मेरे लिए एक अनुपम अवसर था उस इलाके को आंखों से देखने और महसूस करने का जहां 1967 में हमारे जवानों ने अजेय चीन का धूल चटा दी थी.
 
Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
नाथु-ला


क्‍या हुआ था 1967 में ?

दरअसल 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध के दौरान चीन ने भारत को नाथु-ला और जेलेप-ला दर्रे को खाली करने के लिए कहा. भारत के 17 माउंटेन डिविजन ने जेलेप-ला को तो खाली कर दिया लेकिन नाथु-ला पर भारत का कब्‍ज़ा बना रहा. आज भी जेलेप-ला चीन के कब्‍जे में है. लेकिन चीन की नज़र नाथु-ला पर बनी रही और रह-रह कर यह दर्रा दोनों देशों के बीच टकराव का कारण बनता रहा. चीन के पेट में दर्द की एक बड़ी वजह ये भी थी कि उस वक्‍़त सिक्क्मि में राजशाही थी और सिक्किम भारत गणराज्‍य का हिस्‍सा नहीं बना था (सिक्किम 16 मई, 1975 को भारत का हिस्‍सा बना). 

लेकिन इसके बावजूद भारत की फौज सिक्किम में चीन से लगती सीमाओं की सुरक्षा में लगी थी. 1967 के टकराव के दौरान नाथु-ला की सुरक्षा भारत की 2 ग्रेनेडियर्स बटालियन के हवाले थी और इस बटालियन की कमान लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह (बाद में ब्रिगेडियर बने) के हाथों में थी. और ये बटालियन माउंटेन ब्रिगेड के तहत वहां तैनात थी.
Brig Rai Singh, MVC, VSM (retd)
लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह (ब्रिगेडियर), महावीर चक्र
नाथु-ला दर्रे पर गश्‍त के दौरान अक्‍सर दोनों देशों के सैनिकों के बीच जुबानी बहसबाजी होना आम बात थी और यह जुबानी बहसबाजी कभी-कभी धक्‍कामुक्‍की में भी बदल जाती थी. ऐसी ही धक्‍कामुक्‍की की एक घटना 6 सितंबर, 1967 को नाथु-ला दर्रे पर हुई. इस घटना को गंभीरता से लेते हुए, भारतीय सेना ने तनाव को दूर करने के लिए नाथु-ला से लेकर सेबू-ला दर्रे तक तार बिछाने का निर्णय लिया. 

लेकिन यह चीन को नागवार गुज़रा और चीन के पॉलिटिकल कमीसार (राजनीतिक प्र‍तिनिधि) ने राय सिंह को तत्‍काल ही इस बाड़बंदी को रोकने के लिए कहा. फिर वही बहसबाज़ी. कुछ वक्‍़त बाद चीनी सैनिक अपने बंकर में चले गए और भारतीय इंजीनियरों ने तार डालना जारी रखा. लेकिन कुछ ही मिनटों बाद चीनी सैनिकों ने अपनी सीमा के अंदर से ही मीडियम मशीन गनों से गोलियां बरसाना शुरू कर दिया. भारतीय फौज को इस हमले का अंदेशा नहीं था.


जनरल सगत सिंह की दिलेरी ने फतेह कराई जंग

दरअसल उस वक्‍़त सभी सैनिक खुले में आकर बाड़बंदी का काम कर रहे थे. उधर चीनियों ने ऊंचाई से आकर जब फायर किया तो उन्‍हें संभलने का भी मौका नहीं मिला. इस हमले में राय सिंह जख्‍मी हो गए और दो अधिकारी शहीद हो गए. भारतीय सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी ने चीनी सैनिकों का डटकर मुक़ाबला किया लेकिन अगले 10 मिनट में लगभग 70 जवान शहीद हो गए और कई घायल हुए. 

‘लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी’ Leadership in the Army Book
लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी किताब के लेखक पूर्व मेजर जनरल वी. के. सिंह किताब में जिक्र करते हैं कि कमांड ने उस इलाके की कमान संभाल रहे जनरल सगत सिंह (ये वही जनरल सगत सिंह थे जिन्‍होंने पहले गोआ को आज़ाद कराया और 1971 में पूर्वी पाकिस्‍तान में लगभग असंभव से काम को संभव बनाकर ढ़ाका को फतेह कर दिखाया था) को नाथु-ला को खाली करने का आदेश दिया. 

लेकिन सगत सिंह ने कहा कि नाथु-ला का मोर्चा छोड़ना बहुत बड़ी बेवकूफी होगी. क्‍योंकि ऐसा करने पर चीनी सैनिक ऊंचाई पर आ जाएंगे जहां से वे पूरे सिक्किम पर नज़र रख सकते थे. जबकि इसके भारत के कब्‍जे में रहने से हम ऊंचाई से चीन पर नज़र रख सकते हैं. इसलिए नाथु-ला का मोर्चा नहीं छोड़ा गया.




जनरल सगत सिंह, General Sagat Singh
जनरल सगत सिंह
फिर उस रोज़ नाथु-ला पर हुई लड़ाई में भारतीय सैनिकों की क्षति को देखते हुए जनरल सगत सिंह ने तोपखाने का मुंख खोलने के आदेश दे दिए. दिलचस्‍प बात है कि उस वक्‍़त तोपखाने को चलाने का आदेश देने का अधिकार केवल प्रधानमंत्री के पास ही था. यहां तक कि सेनाध्‍यक्ष भी ये फैसला नहीं ले सकते थे. लेकिन ऊपर से कोई आदेश समय पर नहीं आया तो जनरल सगत सिंह ने आर्टिलरी फायर के आदेश दे दिए.

इसके बाद भारत ने जो जवाबी कार्रवाई की उसने चीनी फौज को खदेड़ कर रख दिया. आर्टिलरी फायर में चीन के कई बंकर तबाह कर दिए गए और लगभग 300 चीनी सैनिक मारे गए. भारत की ओर से लगातार तीन दिन तक चौ‍बीसों घंटे फायरिंग की गई. चीन की पूरी मशीनगन यूनिट तबाह कर दी गई थी और ये चीन को करारा सबक था कि वो 1962 वाली गलती दोबारा दोहराने की हिमाकत न करे.
 
1967 का भारत-चीन युद्ध
1967 का भारत-चीन युद्ध


चो-ला में फिर किया चीन ने दुस्‍साहस

लेकिन इसके 15 ही दिनों बाद 1 अक्‍तूबर, 1967 को चीन ने सितंबर के संघर्ष विराम को तोड़ते हुए सिक्किम के ही एक और दर्रे चो-ला पर फिर से दुस्‍साहस किया. दरअसल सर्दियों में भारत और चीन दोनों ओर की फौज ऊंचाई पर मौजूद अपनी चौकियों को खाली कर नीचे की ओर चली जाती थीं. चीन ने सोचा कि भारतीय फौज भी अपनी चौकियों को खाली कर नीचे लौट गई होगी. 

लेकिन दूध के जले तो छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रहे थे. भारतीय सैनिकों ने अपनी चौकियों को खाली नहीं किया था. सो चीनी सैनिकों ने धोखे से हमला करने की कोशिश की तो इस बार भी मुंह-तोड़ जवाब दिया गया. एक जबरदस्‍त भिडंत के बाद इस बार भारतीय सेना ने चीनी फौज को 3 किलोमीटर चीन की ओर धकेल दिया.

इसीलिए जब-जब नाथु-ला और चो-ला का जि़क्र आता है, चीन बेचैन हो उठता है. दरअसल ये चीन की वो दुखती रग है जिसे वो चाह कर भी कभी नहीं भुला पाएगा. इस जंग में बहादुरी के लिए घायल कर्नल राय सिंह को महावीर चक्र और शहादत देने के लिए कैप्‍टन डागर को वीर चक्र और मेजर हरभजन सिंह को महावीर चक्र से सम्‍मानित किया गया था।

आज भी जज्‍़बा बुलंद है

उस रोज़ जब मैं उस जबरदस्‍त ठंड में धीरे-धीरे नाथु-ला पास पर बनी पोस्‍ट पर सबसे ऊंची जगह पहुंचा तो वहां माइनस 14 डिग्री में मेरे लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा था. लेकिन मैं ये देख कर हैरान था कि वहां खड़े जवानों के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं. मेरे पास खड़े एक जवान से ऐसे ही  हल्‍की-फुल्‍की बातें होने लगीं. उस जवान का नाम तो सुरक्षा कारणों से मैं यहां नहीं लूंगा लेकिन उससे बहुत दिलचस्‍प बातें हुईं. जवान का हौसला देखने वाला था. मैंने पूछा कि ये चीनी फौजी आप लोगों को तंग तो नहीं करते? तो उसने मूंछों को ताव देते हुए कहा कि
ये बौने क्‍या हमें तंग करेंगे साब, मैं अकेला ही 10-10 के लिए काफी हूं’.
फिर जब पता लगा कि वो जैसलमेर से है तो मैं पूछ बैठा कि जैसलमेर की भाड़ जैसी गरमी के बाद नाथु-ला की बर्फीली हवाओं में कैसे एडजस्‍ट करते हैं? तो उसका कहना था कि साहब

ये भी तो अपना ही देश है न, कोई न कोई तो इसकी हिफाज़त के लिए यहां खड़ा होगा ही. कोई फ़र्क नहीं पड़ता...हम जैसलमेर वालों की हड्डियां तो वैसे भी तपा फौलाद हैं


फिर हम दोनों ने एक ठहाका लगाया. जवान ने मुझे वहीं से चीनी पोस्‍ट और चीनी झंडा दिखाया और कुछ उनकी हरकतों के बारे में भी. मैंने जवान से हाथ मिलाकर उसे सैल्‍यूट कहा और पोस्‍ट से नीचे उतर आया. वाकई जिस मौसम में आम आदमी का 15 मिनट भी ठहरना मुश्किल हो वहां महीनों तक रहने वाले फौजी भाई हमारी हर आती-जाती सांस के साथ सलाम के हक़दार हैं.
Nathu-La Border, नाथु-ला दर्रा, नाथु-ला बॉर्डर
नाथु-ला बॉर्डर पर वो यादगार लम्‍हा


ये भी पढ़ें: जब नाथु-ला पास (Nathu-La Pass) बना जी का जंजाल और सेना ने किया रेस्‍क्‍यू 


बहुत कीमती है ये आज़ादी

इस तरह भारत के वीर सपूतों ने अपने प्राणों का बलिदान देकर भी कई-कई बार अपने देश की सीमाओं की रक्षा की. हमारी एक-एक सांस उन वीर सपूतों की ऋणी है. ये जिस आज़ाद हवा में आज अपने मुल्‍क में हम सांस ले रहे हैं इसकी बहुत बड़ी कीमत शहीदों ने चुकाई है. हमें इसका मोल भी समझना होगा. जाति, धर्म और बिरादरी के संकुचित दायरों में सिमटे लोगों के लिए उन शहीदों ने अपने प्राण नहीं गंवाए हैं. वे यकीनन ऐसा हिंदुस्‍तान नहीं चाहते थे जैसा हमने आज बना दिया है. अभी भी वक्‍़त है....हमें एक सजग नागरिक बन इस आज़ादी की कीमत अदा करनी है. अपने देश से प्रेम का अर्थ इसके सभी नागरिकों से प्रेम करना और न्‍याय के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करना भी होता है. 


नाथु-ला दर्रा, Nathu-La Pass
दिसंबर महीने मे नाथु-ला की ओर


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दिसंबर के महीने में नाथु-ला की डगर
फोटो साभार: @lestweforget 

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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 

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