'द बंगाल क्लब'
हर यात्रा अपने साथ जाने-अनजाने शहरों में अलग-अलग जगहों पर ठहरने का अनुभव लेकर आती है। पांच या सात सितारा होटलों की
ऊब से दूर इस बार कोलकाता की यात्रा वहां ठहरने के मामले में एक यादगार अनुभव दे
गई। इस बार मौका मिला 189 साल पुराने और दुनिया के सबसे पुराने क्लबों की फेहरिस्त
में शुमार ‘द बंगाल क्लब’ में ठहरने
का।
इस बात में कोई शुबहा नहीं कि कोलकाता शहर ने बरसों पुराने इतिहास
को बड़ी नज़ाकत और मुहब्बत के साथ आज भी संजो कर रखा हुआ है। इसके चप्प-चप्पे
से इतिहास आज भी खुद हमारे सामने खड़ा होकर अपने किस्से बयां करता है। कुछ ऐसा ही
किस्सा देश के सबसे पुराने क्लब ‘द
बंगाल क्लब’ का भी है। 1 फरवरी, 1827
को कलकत्ता में स्थापित किया गया द बंगाल क्लब देश ही नहीं बल्कि दुनिया के
सबसे पुराने और आज भी जिंदा क्लबों में से एक है। इसके बाद द मद्रास क्लब (1831), द एथेनेअम (1824), द ऑक्सफोर्ड एंड कैम्ब्रिज
(1830), द गैरिक (1831), द कार्लटन (1832), और द रिफॉर्म (1837) का ही नाम लिया जा सकता है। 1827 देश के इतिहास का
वह दौर था जब ईस्ट इंडिया कंपनी धीरे-धीरे देश की हुकूमत की कमान अपने हाथों में
ले रही थी और कलकत्ता इस पूरी कवायद का केन्द्र बना हुआ था। यही वो समय था जब
साहिब लोग एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बना रहे थे जो 100 साल से ज्यादा चलने वाली
थी।
यकीनन ही इस क्लब का इतिहास ब्रिटिश हुकूमत के सबसे बड़े नामों से
ही रौशन रहा है और बरसों तक किसी भारतीय को इस क्लब में प्रवेश तक की भी इजाजत
नहीं थी। मगर आज के दौर में इस जीती जागती विरासत को भारतीयों द्वारा अपना लिए
जाने के बाद इसके इतिहास के पन्नों को पलटना लाजिमी हो जाता है।
क्लब के पहले अध्यक्ष और पहले संरक्षक ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज
के कमांडर इन चीफ ले. कर्नल जे फिंच थे जिनका 1829 का आदमकद पोट्रेट आज भी डाइनिंग
हॉल में पूरी शान से सजा हुआ है। उस दौर में क्लब के सदस्यों में केवल फौजी अफसर, आला दर्जे के प्रशासनिक अधिकारी और कुछ मेडिकल प्रोफेशन के प्रतिनिधि ही
शामिल थे। क्लब के अध्यक्षों में तमाम वायसराय और गर्वनर जनरल शामिल थे जिनमें
मेटकाफ, कोलविले, ग्रांट, कॉटन, आउट्राम आदि थे। 1842 से 1844 तक भारत के
गर्वनर जनरल लॉर्ड एलनबोरो और 11 वर्षों तक सर चार्ल्स मेटकाफ इसके अध्यक्ष रहे।
क्लब की शुरुआत चौरंगी में दो मंजिला किराए की बिल्डिंग से हुई थी। फिर वहां से ये एसप्लेनेड और बाद में टैंक स्क्वायर तक पहुंच गया। 1845 में क्लब उस जगह स्थानांतरित किया गया जहां लॉर्ड मैकाले सुप्रीम काउंसिल के लॉ आफिसर के रूप में भारत में 1834 से 1838 तक रहे थे। ये इमारत प्रख्यात बंगाली लेखक काली प्रसन्ना सिन्हा की थी। 1907 में क्लब एक लिमिटेड कंपनी के रूप में पंजीकृत हुआ। मगर बड़े खेद की बात है कि इस भव्य इमारत को क्लब की सख्त सदस्यता नीति के चलते खराब हुई आर्थिक हालत और एक हैरिटेज बिल्डिंग के प्रति प्रशासन की उदासीनता के कारण बचाया नहीं जा सका। क्लब कर्जे में डूब चुका था और इसे अपनी सामने की इमारत को छोड़ना पड़ा और आज ये क्लब रसेल स्ट्रीट पर क्लब की एनेक्सी में सिमट कर रह गया है। इतने उतार-चढ़ाव से गुज़रने के बावजूद भी आज भी क्लब अपने सुनहरे इतिहास के साथ अपना सफर तय कर रहा है।
इसके आज तक जीवित रहने की एक वजह
भी है, क्लब ने समय के साथ स्वयं के नियम और कायदों में
बदलाव किया। देश की राजधानी के दिल्ली स्थानांतरित हो जाने के बाद फौज और
प्रशासन के आला अधिकारी तो दिल्ली चले गए थे इसलिए अब क्लब ने वरिष्ठ व्यापारिक
लोगों, कानून, मेडिकल और अन्य व्यवसायों
के लोगों को क्लब में एंट्री देना शुरु कर दिया। 1947 में बंगाल का विभाजन होने
के बाद क्लब के नाम को लेकर सवाल उठा लेकिन तत्कालीन बंगाल के गर्वनर सर सी.
राजगोपालाचारी के सुझाव पर इसका नाम यही रहने दिया गया।
आश्चर्य की बात ये है कि केवल
1959 में ही भारतीयों को इस क्लब में प्रवेश की इजाज़त मिली और महिलाओं को 1990
में। क्लब का सख्त ड्रेस कोड भी समय के साथ-साथ बदलता रहा मगर आज भी इसका सख्ती
से यहां पालन किया जा रहा है। मसलन पहली मंजिल पर ओरिएंटल हॉल में लोग केवल फॉर्मल
ड्रेस में ही जा सकते हैं, चप्पल, स्लिपर्स और जींस
पेंट पहनने की इजाज़त नहीं है। एक रात डिनर के वक़्त मुझे भी सैंडल पहने होने के
कारण ऑरिएंटल हॉल से लौटना पड़ा। शुरु में थोड़ा अजीब लगा मगर परंपरा और कायदे का
मैं भी मुरीद रहा हूं सो शेष दिनों में इसका पालन किया। हां,
इसका एक फायदा भी हुआ। नीचे ग्राउंड फ्लोर पर चाइनीज रेस्त्रां में लजीज चाइनीज
भोजन का जमकर लुत्फ़ लिया। वहां किसी प्रकार का ड्रेस कोड नहीं है।
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शक़ील खां सुना रहे हैं क्लब के किस्से |
क्लब का खान-पान दूर देशों तक
मशहूर है। यहां सदस्यों की पसंद के हिसाब से व्यंजनों की एक लंबी फेहरिस्त हर वक़्त
उपलब्ध रहती है। बंगाल में हों और बंगाली
खाना न खाया तो क्या खाया? सो क्लब में बंगाली बफे ने ये
हसरत भी पूरी कर दी। बेगुनी, बंगाली परोठा, कोफ्ते, पंचसब्ज, घी-चावल और
सबसे खास वो मीठी चटनी जिसका कोई मुकाबला नहीं। हिन्दुस्तान के जायके और स्वाद भी
अनुपम हैं...एक भारतीय के लिए ही सभी से परिचय हो पाना मुश्किल है तो किसी विदेशी
मेहमान का अभिभूत हो जाना स्वाभाविक ही है। अतिथियों की सेवा और खान-पान की बड़ी
बारीकी से देख-रेख कर रहे शकील खान साहब से एक रोज रात के खाने पर तफ़सील से क्लब
के बारे में बात हुई। शकील खान के वालिद यहां बरसों पहले आए थे और उनके बाद खुद शकील
यहीं के होकर रह गए और अब उन्होंने अपने ग्रेजुएट बेटे को भी यहीं काम पर लगा दिया
है। शकील खान का पुश्तैनी घर वाराणसी के पास है जहां वे बीच-बीच में जाते रहते हैं।
बकौल शकील इस क्लब में उन्होंने कलकत्ता की नामचीन हस्तियों को उनकी पसंद का खाना
खिलाया है। शकील सच ही कह रहे थे क्योंकि उस वक़्त मेरी टेबल पर जो खाना परोसा गया
था वो खुद बात की गवाही दे रहा था। यहां जो दही बनाई जाती है वैसी मैंने अब तक कहीं
नहीं खाई थी। शकील ने बताया कि एक ग्वाला रोज दूध लेकर यहां इसे मिट्टी के बर्तनों
में जमा कर जाता है। अब वो इसमें और कया जादू करता है ये क्लब का अपना सीक्रेट है।
शकील साहब से जब मैंने इस क्लब के इतिहास के बारे में कुछ जानना चाहा तो एक अजीब सा
दर्द उनके चेहरे पर उभर आया। शकील बोले कि साहब एक वक़्त था जब इंडियन्स को इस क्लब
के आस-पास फटकने की भी इजाज़त नहीं थी, गोरे लोग भारतीयों के
साथ कुत्तों जैसा व्यवहार करते थे। अपने देश की गुलामी के इतिहास से मैं खूब वाकिफ
था। फिर थोड़ी ही देर में उनके चेहरे पर मुस्कुराहट लौट आई और बोले कि अब सब बदल गया
है सिवाय साहिबी तौर-तरीकों और ड्रेस कोड़ के। उन्होंने एक ही सांस में क्लब के मौजूदा
नामचीन सदस्यों के नाम गिनवा दिए जिनमें से मुझे बाद में सौरव गांगुली और कपिल देव
का नाम ही याद रहा।
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बंगाली भोज |
इतिहास में ये क्लब वायसराय, कमांडर इन चीफ, गर्वनरों, प्रधानमंत्रियों और मुख्य मंत्रियों के
मिलने जुलने की खास जगहों में से एक था। 183 साल पुराने इस क्लब में आज भी उस दौर
की हवा महसूस की जा सकती है। एक सदी पुराने नागराज बार में खनकते वाइन ग्लास आज
भी उसी दौर की याद दिलाते हैं। यहां तक कि यहां लकड़ी के स्टूलों को भी नहीं बदला
गया है। क्लब की सभी मंजिलों पर गलियारों में उस दौर के कलकत्ता की तस्वीरों को
बड़े करीने से फ्रेम कर लगाया गया है जो एक तरह से विंटेज तस्वीरों की एक
प्रदर्शिनी ही बन गई है। पुरानी लिफ्ट, रेड कार्पेट सीढीयां, ओरिएंटल हॉल के आदमकद पोट्रेट, तमाम एंटीक वस्तुएं
सब मिलकर एक जादुई माहौल तैयार करते हैं जिसमें हम समय में यात्रा करते हुए प्रतीत
होते हैं।
हां, एक खास बात जो हर विजिटर को कौतुहल में डालती है वो है यहां चारों तरफ कोबरा
का प्रतीक चिन्ह होना। क्लब के नागराज बार से लेकर क्लब के फर्श, यहां के बर्तनों, प्लेटों और कपड़ों तक पर ये निशान
रहस्यमयी सा नज़र आता है। मेरे रूम के बार ड्यटी पर तैनात एक कर्मचारी से मैंने इस
बारे में पूछा तो उसने कहा कि सर, इस बारे में पक्का तो नहीं
पता मगर ऐसा सुना है कि जब क्लब की आधारशिला रखी जा रही थी तो पत्थर को रखने के लिए
खोदे गए गड्ढ़े से एक कोबरा बाहर निकल आया। पूजा करा रहे पुजारी ने कहा कि इस सर्प
को दूध दिया जाए और आधारशिला केवल तभी रखी जाएगी जब ये सर्प दूध को स्वीकार कर ले।
ऐसा ही हुआ...सर्प ने दूध ग्रहण किया और इसी के बाद यहां नागराज बार का नाम पड़ा और
ये निशान क्लब का ऑफिशियल एम्बलैंम बन गया।
क्लब का हर कौना और तमाम कमरे इतिहास
के कई महत्वपूर्ण पड़ावों की आज भी याद दिलाते हैं। मसलन 1927 में यहां क्लब का शताब्दी
वर्ष मनाया गया और 1977 में 150वां। इस 150 वें वर्ष के समारोह के लिए शानदार
प्राइवेट डाइनिंग रूम, रूम 150 को सजाया गया। बाद में, कलकत्ता के 300 वें वर्ष को मनाने के लिए रूम
300 का नामकरण किया गया। आज भी हर साल 1 फरवरी को द बंगाल क्लब फाउंडर
डे मनाया जाता है।
इस क्लब में ठहराना अपने आप में इतिहास
के एक हिस्से की एक मुकम्मल यात्रा था।
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