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गुरुवार, 27 अगस्त 2020

विरासत और कला का अनूठा संगम है माहेश्‍वरी साड़ी । Maheshwari Saree: An incredible mix of Heritage and Art

 विरासत और कला का अनूठा संगम है माहेश्‍वरी साड़ी


मध्‍य प्रदेश में इंदौर से तकरीबन 95 किलोमीटर दूर मौजूद महेश्‍वर न केवल नर्मदा तट पर मौजूद अपने एतिहासिक शिव मंदिर के कारण विख्‍यात है बल्कि अपनी माहेश्‍वरी साड़ियों से भी हैंडलूम की साडियों के कद्रदानों को लुभाता रहा है. कुछ दिनों पहले इंदौर जाना हुआ तो मालवा के इतिहास और संस्‍कृति को और करीब से समझने की तलब वहां से पहले मांडू और फिर महेश्‍वर तक ले गई. यूं सम‍झिए कि मांडू तक आकर अगर कोई बिना महेश्‍वर देखे लौट जाए तो उसने मालवा की आत्‍मा का साक्षात्‍कार नहीं किया.

नर्मदा के तट पर बसा महेश्‍वर पाँचवी सदी से ही हथकरघा बुनाई का केंद्र रहा है और मराठा होल्‍कर के शासन काल में जनवरी 1818 तक मालवा की राजधानी रहा है. ये महेश्‍वर के इतिहास का सुनहरा दौर था. यही वह समय था जब हथकरघा पर माहेश्‍वरी साड़ी अस्तित्‍व में आई. आज भी महेश्‍वर में और खासकर महेश्‍वर के शिव मंदिर के आस-पास छोटे-छोटे घरों से हथकरघों पर माहेश्‍वरी साड़ी को बुनते हुए देखा जा सकता है. रेहवा सोसायटी के बैनर तले आज भी सैकड़ों हथकरघों पर माहेश्‍वरी साड़ी का जादू बुना जा रहा है.

माहेश्‍वरी साड़़ी़ और हथकरघा बुनकर, Handloom weaver of Maheshwari Saree
माहेश्‍वरी साड़़ी़ और हथकरघा बुनकर
(PC: Veera Handlooms, Maheshwar)

अहिल्‍याबाई होल्‍कर के कारण अस्तित्‍व में आई माहेश्‍वरी साड़ी

माहेश्‍वरी साड़ी के अस्तित्‍व में आने के बारे में एक कहानी यहां की फिज़ाओं में तैर रही है. कहानी कहती है कि इंदौर की महारानी अहिल्‍या बाई होल्‍कर के दरबार में कुछ खास मेहमान आने वाले थे सो महारानी ने सूरत से कुछ खास बुनकरों के परिवारों को बुलाकर महेश्‍वर में बसाया और उन्‍हें उन मेहमानों के लिए खास वस्‍त्र तैयार का काम सौंपा. ये मेहमान कौन थे इसका साफ-साफ उल्‍लेख मुझे कहीं नहीं मिला. अलबत्‍ता वहां के एक गाइड ने एक दिलचस्‍प कहानी मुझे सुनाई. इस कहानी के मुताबिक मालवा की महारानी अहिल्‍याबाई (31 मई, 1725 – 13 अगस्‍त, 1795) के पति खांडेराव होल्‍कर की 1754 में कुम्‍हेर के युद्ध में मृत्‍यु के बाद उनके ससुर मल्‍हार राव होल्‍कर ने उन्‍हें सती नहीं होने दिया और अगले 12 वर्ष स्‍वयं इंदौर का राज-काज संभाला.

अहिल्‍याबाई होल्‍कर, Ahilya Bai Holkar
अहिल्‍याबाई होल्‍कर

फिर 1766 में मल्‍हार राव होल्‍कर की मृत्‍यु के बाद मल्‍हार राव के पोते और अहिल्‍याबाई के पुत्र खांडेराव ने गद्दी को संभाला लेकिन पुत्र की भी मृत्‍यु के बाद आखिरकार अहिल्‍याबाई ने शासन अपने हाथों में लिया. अपने शासन काल में उन्‍होंने न केवल महेश्‍वर बल्कि तमाम अन्‍य शहरों में भी घाटों, कुओं, मंदिरों का निर्माण करवाया. यहां तक कि काशी का विश्‍व प्रसिद्ध काशी विश्‍वनाथ का मंदिर भी रानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर द्वारा ही बनवाया गया था. उनके शासन काल को महेश्‍वर का स्‍वर्ण-काल माना गया. महेश्‍वर की जनता आज भी अपनी प्रिय रानी को बहुत सम्‍मान से याद करती है और उन्‍हें मॉं साहब कह कर याद करती है. बेशक अहिल्‍याबाई अपने विवेक और कौशल के साथ राज्‍य का संचालन कर रहीं थीं मगर अहिल्‍या चूंकि महिला थीं इसलिए स्‍वाभाविक रूप से आस-पास की रियासतों और मुग़ल शासकों की नज़रें इस राज्‍य पर पड़ने लगीं. अहिल्‍याबाई इस खतरे को साफ देख रहीं थीं.

निस्‍संदेह मालवा इतना शक्तिशाली नहीं था कि इन षड्यंत्रों का मुकाबला कर पाता. इसलिए ऐसे कठिन समय में अहिल्‍याबाई ने अपने भरोसेमंद पड़ौसी राज्‍यों और विश्‍वस्‍त लोगों को एक बहन की तरह रक्षा का अनुरोध किया. उन सभी लोगों ने भी बहन की रक्षा का वायदा किया और मालवा पधारने का कार्यक्रम बनाया. अहिल्‍याबाई ने इस अवसर को अपने पड़ौसियों के साथ अपने संबंधों को सुदृढ़ बनाने के अवसर के रूप में लिया और उन्‍होंने सूरत से खास बुनकरों को महेश्‍वर बुला कर भाईयों के लिए खास तरह की पगड़ी तैयार करने के लिए कहा. बुनकरों ने बेहद खूबसूरत पगड़ियाँ तैयार कीं.

नर्मदा के किनारे महेश्‍वर, Maheshwar in MP
नर्मदा के किनारे महेश्‍वर 

तभी किसी ने महारानी को सलाह दी कि उन्‍हें भाईयों की पत्नियों के लिए भी कुछ उपहार भेजने चाहिएं. महारानी ने काफी सोच-विचार के बाद तय किया वे भाभियों के लिए खास तरह की साड़ियां उपहार में भेजेंगी. बस फिर क्‍या था, बुनकरों को एक बार फिर बुलाया गया और उन्‍हें निदेश दिया गया कि भाभियों के लिए भी बेहद खूबसूरत साड़ियां तैयार की जानी हैं. ऐसी साड़ियां जिनमें महेश्‍वर की आन-बान और शान झलकती हो. बस यहीं से माहेश्‍वरी साड़ी ने जन्‍म लिया.

और यही नहीं, आप कहीं भी मां साहब अहिल्‍या बाई की तस्‍वीर या उनकी प्रतिमा को गौर से देखिएगा, जो सादगी उस देवी की सूरत में नज़र आती है वही सादगी और नफ़ासत माहेश्‍वरी साड़ी में भी आपको नज़र आएगी.

साड़ी में दिखती है महेश्‍वर की झलक

चूंकि साड़ी का नाम महेश्‍वर के नाम पर पड़ा इसलिए स्‍वाभाविक है कि इस साड़ी में महेश्‍वर की झलक अवश्‍य ही होगी. दरअसल माहेश्‍वरी साड़ी की पहचान है इसमें इस्‍तेमाल की गई डिजाइन हैं जो विशेष रूप से महेश्‍वर के विश्‍व-प्रसिद्ध शिव मंदिर और महेश्‍वर किले की दीवारों पर मौजूद विभिन्‍न आकृतियों से ली गई हैं. अगर आप महेश्‍वर किले के भीतर नर्मदा के तट पर स्थित मंदिर परिसर में शिव मंदिर की परिक्रमा करते हुए इसके चारों तरफ बनी आकृतियों पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि माहेश्‍वरी साड़ी के बुनकरों ने इन डिजाइनों को बहुत प्रमुखता से माहेश्‍वरी साड़ियों में स्‍थान दिया है

माहेश्वरी साड़ी अक्‍सर प्लेन ही होती हैं जबकि इसके बॉर्डर पर फूल, पत्ती, बूटी आदि की सुन्दर डिजाइन होती हैं. इसके बॉर्डर पर लहरिया (wave), नर्मदा (Sacred River), रुई फूल (Cotton flower), ईंट (Brick), चटाई (Matting), और हीरा (Diamond) प्रमुख हैं. पल्लू पर हमेशा दो या तीन रंग की मोटी या पतली धारियां होती हैं. इन साड़ियों की एक विशेषता इसके पल्लू पर की जाने वाली पाँच धारियों की डिजाइन – 2 श्वेत धारियाँ और 3 रंगीन धारियाँ (रंगीन-श्वेत-रंगीन-श्वेत-रंगीन) होती है. माहेश्‍वरी साड़ियों के आम तौर पर चंद्रकला, बैंगनी चंद्रकला, चंद्रतारा, बेली और परेबी नामक प्रकार होते हैं. इनमें से पहली दो प्‍लेन डिजाइन हैं जबकि अंतिम तीन में चेक या धारियां होती हैं.

रुेंहnd) iver)ेशा महेश्‍वर बलिकमूल माहेश्‍वरी साड़ी की एक खासियत और है और वो है इसकी 9 यार्ड की लंबाई और इसके पल्‍लू का रिवर्सिबल होना. पल्‍लू की इन खासियतों की वजह से ही अकेले पल्‍लू को तैयार करने में ही 3-4 दिन लग जाते हैं. वहीं पूरी साड़ी को तैयार करने में 3 से 10 दिन का वक्‍़त लग सकता है. आप इसे दोनों तरफ़ से पहन सकते हैं.

शुरुआत में इस साड़ी को केवल शाही परिवारों, राजे-रजवाड़ों के परिवारों में स्‍थान मिला लेकिन बाद में ये साड़ियाँ आम लोगों की भी प्रिय हो गईं. जहां शुरुआत में माहेश्‍वरी साड़ी को केवल कॉटन से तैयार किया जाता था वहीं अब रेशमी माहेश्‍वरी साड़ियाँ भी महिलाओं की प्रिय हो गई हैं. आजकल कोयंबटूर कॉटन और बेंगलूरू सिल्‍क को मिला कर मनमोहक साड़ियाँ  तैयार की जा रही हैं. शुरुआत में माहेश्‍वरी साडियों को प्राकृतिक रंगों से ही तैयार किया जाता था लेकिन तेज भागते दौर में अब इनमें कृत्रिम रंगों का ही प्रयोग होने लगा है.

 

महेश्‍वर के शिव मंदिर में डिजाइन, Shiv mandir of Maheshwar
महेश्‍वर के शिव मंदिर में डिजाइन

साड़ी के हैं बहुत से क़द्रदान

प्रतिभा राव इंस्‍टाग्राम पर yarnsofsixyards_et_al के नाम से साड़ियों पर केंद्रित एक दिलचस्‍प अकाउंट चला रही हैं. प्रतिभा के पास हिंदुस्‍तान में प्रचलित लगभग हर साड़ी मौजूद है. वो जब-तब इन साड़ियों के बारे में अपने अनुभव साझा करती रही हैं. जब हमने माहेश्‍वरी साड़ी के बारे में प्रतिभा से बात की तो उनका कहना था कि  

Pratibha Rao in Maheshwari Saree
रेहवा से खरीदी माहेश्‍वरी साड़ी में प्रतिभा

इस साड़ी के महीन से रंग, बॉर्डर पर ज़री का ख़ास किस्‍म का काम मुझे बहुत आकर्षित करता है. चटाई बॉर्डर मेरा पसंदीदा है. माहेश्‍वरी साड़ियों की एक ख़ास बात है. अपने रंगों की विविधता और डिजाइन की पेचीदगियों के चलते एक ही साड़ी साधारण और ख़ास दोनों मौकों पर पहनी जा सकती है. इन साड़ियों में नर्मदा की लहरों जैसी पवित्रता है. ऐसा लगता है जैसे नर्मदा घाट की भोर और गोधूली के सुंदर रंगों को संजोए माहेश्‍वरी साड़ियाँ एक बीते शाही कल की रोचक कहानी कहती हैं. संस्‍कृत में नर्मदा का अर्थ है- आनंदमयी, महेश्‍वर के सुंदर घाटों से उपजी ये साड़ियाँ भी इस अर्थ को चरितार्थ करती हैं

सोशल मीडिया और तकनीक ने बुनकरों और क़द्रदानों के बीच की दूरी को जैसे खत्‍म ही कर दिया है. इंस्‍टाग्राम पर ही ज़रा सा सर्च करेंगे तो दर्जनों अच्‍छे बुनकरों के अकाउंट मिल जाएंगे जो अपनी साड़ियों की तस्‍वीरों को यहां प्रस्‍तुत कर ग्राहकों से सीधे आर्डर ले रहे हैं.

रेहवा सोसायटी ने फिर से जिंदा किया इस परंपरा को

वक्‍़त के साथ बुनकर इस काम से दूर होते गए और माहेश्‍वरी साड़ियाँ जैसे गायब ही होती गईं. लेकिन 1979 में होल्‍कर वंश के रिचर्ड होल्‍कर और उनकी पत्‍नी सल्‍ली होल्‍कर ने जब रेहवा सोसायटी (एक गैर लाभकारी संगठन) की स्‍थापना की तो महेश्‍वर की गलियों में एक बार फिर करघे की खट-पट सुनाई देने लगी. कुल 8 करघों और 8 महिला बुनकरों के साथ शुरू हुई इस सोसायटी के साथ बुनकर जुड़ते गए और आज इस सोसायटी के दिल्‍ली और मुंबई में रिटेल आउटलेट हैं. चूंकि सोसायटी नॉन प्रोफिट संगठन है इसलिए इसके लाभ को बुनकरों और स्‍टाफ पर ही खर्च किया जाता है.

Rehwa Society

इन दिनों बुनकर संकट में हैं, इसीलिए रेहवा सोसायटी भी अपनी साइट के माध्‍यम से उनके लिए मदद मांग रही है. जिसमें आप आज किसी बुनकर के लिए फुल वैल्‍यू क्रेडिट खरीद सकते हैं और इस क्रेडिट से बाद में रेहवा की साइट से कपड़े खरीद सकते हैं. हमें ऐसे प्रयासों में अवश्‍य ही मददगार होना चाहिए. 

बहुत मेहनत छुपी है साड़ी की खूबसूरती के पीछे

उस रोज़ इंदौर से महेश्‍वर के लिए निकलते वक्‍़त मैं ये सोच कर निकला था कि इन साड़ियों के बनने की पूरी प्रक्रिया को समझना है. इसीलिए इंदौर में मौजूद बुनकर सेवा केंद्र के अधिकारियों से महेश्‍वर के बुनकरों और हैंडलूम के शो रूम का पता जेब में लेकर निकला था. नर्मदा रिट्रीट में दोपहर का लंच करते हुए श्रवणेकर हैंडलूम के मालिक से बात हुई तो उन्‍होंने दुकान पर आ जाने के लिए कहा. नज़दीक ही थे हम. बस चंद पलों में मैं दर्जनों तरह की माहेश्‍वरी साड़ियों के सामने था. इन साड़ियों के बारे में विस्‍तार से बात हुई. फिर वर्कशॉप भी देखी गई जहां धागों की रंगाई हो रही थी. वहीं कुछ बुनकरों से बात करने पर पता चला कि उनका पूरा परिवार ही साड़ियों की बुनाई के काम से जुड़ा है. ये एक आदमी के बस का काम है भी नहीं. कच्‍चे माल के प्रबंध, धागों की रंगाई, रंगों को तैयार करने, हैंडलूम पर बुनाई से लेकर उनकी बिक्री तक बहुत काम होता है. सरकारी स्‍तर पर तमाम सुविधाओं और योजनाओं के बावजूद बुनकरों का मानना है कि उन्‍हें उनकी मेहनत का वाजिब हक़ नहीं मिल पाता है.

पावरलूम से मिल रही है बड़ी चुनौती

पावरलूम तो हमेशा से ही हैंडलूम के लिए एक स्‍थाई चुनौती बना ही हुआ है. कारीगर जो डिजाइन बड़ी मेहनत से हथकरघा के लिए तैयार करते हैं उन्‍हें पावरलूम का इस्‍तेमाल करने वाली मिलें और कं‍पनियां नकल करके धड़ल्‍ले से तैयार कर रही हैं. 

Maheshwari Saree in Maheshwar, माहेश्‍वरी साड़ी
श्रवणेकर हैंडलूम पर माहेश्‍वरी साड़ी


लेकिन हथकरघा के कद्रदान हमेशा रहे हैं और रहेंगे. शायद इसीलिए स्‍वयं में मालवा के राजसी वैभव, गौरवशाली इतिहास और कारीगरी की विरासत को संभालने वाली माहेश्‍वरी साड़ी आज भी लोगों के बीच प्रिय है. 

REWA SOCIETY की अपील
REWA SOCIETY की अपील (PC: REWA)


छोटे-छोटे ख्‍़वाब पंख फैला रहे हैं

महेश्‍वर में इस समय दर्जनों हैंडलूम ऐसे हैं जो अपने काम को इंटरनेट, ख़ासकर फेसबुक और इंस्‍टाग्राम के ज़रिए दुनिया तक पहुंचा रहे हैैंं. इंस्‍टाग्राम ही उनका शो रूम है जहाँ वे अपनी साड़ियों को प्रदर्शित कर ऑर्डर हासिल कर रहे हैं. महेश्‍वर में ही दो भाई राहुल चौहान और नीरज चौहान लगभग 50 करघों वाला वीरा हैंडलूम चला रहे हैं. वे बताते हैं कि हैंडलूम साडियों का काम उनका पुश्‍तैनी काम है जो 1950 से चला आ रहा है। पहले दादा, फिर पिता और अब हम दो भाई इस परंपरा को संभाल रहे हैं. ये हमारे लिए केवल एक पुश्‍तैनी या परिवार का बिजनेस नहीं है बल्कि हमें लगता है कि हम लोगों के ख्‍़वाबों को बुन रहे हैं. हमारे परिवार के हर सदस्‍य के खून में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के भीतर ये भावना चली आई है इसीलिए परिवार का हर सदस्‍य सपनों की बुनाई के इस काम में अपना योगदान देता है।



महेश्‍वर का शिव मंदिर


माहेश्‍वरी साडि़यों की वर्कशॉप, Colours for Maheshwari Sarees
माहेश्‍वरी साड़ियों की वर्कशॉप 

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यह भी पढ़ें: स्‍वदेशी आंदोलन की स्‍मृतियों को समर्पित है राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस



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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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यहां भी आपका स्‍वागत है:

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

कर्क रेखा : जहां साया भी साथ छोड़ दे | Tropic of Cancer in India.

कर्क रेखा : जहां साया भी साथ छोड़ दे 

Tropic of Cancer in India.

कर्क रेखा, Tropic of cancer passing through MP
हम और आप देश के आठ राज्यों से होकर गुज़रने वाली कर्क रेखा (Tropic of Cancer) के ऊपर से कई बार गुज़रे होंगे मग़र हमें शायद की कभी इसका अहसास हुआ हो. क्योंकि यह एक काल्पनिक रेखा है इसलिए हम कब इस रेखा के ऊपर से गुज़र गए, इसका पता चलना मुश्किल है. मग़र मध्यप्रदेश के रायसेन में दीवानगंज गांव के पास सड़क पर मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग ने लकीर खींच दी है और सड़क के दोनों ओर छोटे-छोटे स्मारक बना दिए हैं. सो इस जगह ठहरे बिना रहा ही नहीं जा सकता. मध्यप्रदेश के अलावा कच्छ के रण और पश्चिम बंगाल के नादिया जिले में सड़कों के किनारे छोटे-छोटे साइन बोर्ड इस रेखा के वहां से गुज़रने की गवाही दे रहे हैं. मग़र मुझे लगता है कि हमें ज्योग्राफ़ी के ऐसे दिलचस्प तथ्यों को सेलिब्रेट करना चाहिए ताकि बच्चे सिर्फ किताबों में कल्पनाओं के सहारे दिमाग में ये रेखाएं न खींचे बल्कि असल में ऐसे तथ्यों से रूबरू हो सकें. 

भोपाल के नज़दीक है ट्रोपिक ऑफ कैंसर का स्‍मारक

कुछ दिनों पहले भोपाल की यात्रा के दौरान मेरा सांची जाना हुआ. मुझे इस रेखा के बारे में पहले से पता था तो भोपाल से निकलते ही ड्राइवर को आगाह कर दिया था कि इस कर्क रेखा वाले स्‍मारक पर ज़रूर रुकना है. ये बात ड्राइवर से ही पता चली कि ये जगह असल में भोपाल-विदिशा हाईवे पर भोपाल से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर है. सड़क के दांई ओर दीवानगंज को जाने वाली सड़क निकल जाए तो सावधान हो जाएं. छोला नाम की छोटी सी जगह के निकलते ही ट्रोपिक ऑफ कैंसर का ये स्‍मारक नज़र आने लगता है. लेकिन यदि गाड़ी की रफ्तार तेज हुई तो इस जगह के चूकने में भी देर नहीं लगेगी. इसलिए जब भी इधर से गुज़रें तो दीवानगंज के निकलते ही सावधान हो जाएं.

भोपाल विदिशा राजमार्ग से गुज़रती कर्क रेखा, Tropic of Cancer passing near Bhopal
भोपाल विदिशा राजमार्ग से गुज़रती कर्क रेखा

चलिए अब ज़रा इस रेखा के महत्‍व और इससे जुड़े कुछ दिलचस्‍प तथ्‍यों को जानने की कोशिश करते हैं.

कैैैैसे बनते हैं सबसे बड़ेे और सबसे छोटे दिन  

दरअसल भूमध्‍य रेखा के उत्‍तर में 23.5° पर स्थित कर्क रेखा खगोलीय और वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है. यही वही रेखा है जिस पर 21 जून को सूरज की किरणें सीधी पड़ती हैं और यह वर्ष का सबसे बड़ा दिन (summer Solstice) हो जाता है. कुछ इसी तर्ज़ पर 21 दिसम्बर को कर्क रेखा पर सूरज की किरणें तिरछी पड़ती हैं सो यह वर्ष का सबसे छोटा दिन (Winter Solstice) बन जाता है. 

कहते हैं मुसीबत में अपना साया भी साथ छोड़ देता है. अब इस कहावत की शुरुआत कहाँ से हुई कहना मुश्किल है लेकिन मुझे लगता है कि हो न हो ये क़िस्सा 21 जून को कर्क रेखा के मंज़र से जुड़ा होगा. जहां दिन के 12 से 2 बजे के बीच हमारा साया हमारा साथ छोड़ देता है. बरसों पहले जब तक इस घटना के वैज्ञानिक कारण नहीं पता थे तो लोग इसे कोई बुरी घटना या दैवीय प्रकोप समझते थे मग़र इसकी असल वजह सूरज का ठीक हमारे सिर के ऊपर होना होता है. 

भारत से गुज़रती कर्क रेखा, Tropic of Cancer passing through India
Source: ABC Science

इस रेखा से जुड़े बेहद दिलचस्‍प तथ्‍य

क्या आप जानते हैं भारत वह कौन सी नदी है जो इसे दो बार पार करने की हिमाक़त करती है? ये है मध्यप्रदेश की माही नदी. यूं तो कर्क रेखा जिन आठ राज्यों गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और मिजोरम से गुज़रती है उनकी राजधानियां इस रेखा के आस-पास ही स्थित हैं मग़र उन सब में रांची इस रेखा के सबसे क़रीब है. और यदि कोई ये पूछे कि देश का कौन सा शहर इस रेखा के सबसे निकट है तो जवाब होगा त्रिपुरा का उदयपुर शहर. 

भारत से गुज़रती कर्क रेखा, Tropic of Cancer passing through India
भारत के राज्‍यों से गुज़रती कर्क रेखा, Tropic of Cancer passing through India
Source: Quora

फ़्लाइट को राउंड द वर्ल्ड स्पीड के रिकॉर्ड के लिए कितनी दूरी तय करनी है ज़रूरी

ट्रोपिक ऑफ कैंसर से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि फेडरेशन एयरोनॉटिक इंटरनेशनल के नियमों के मुताबिक किसी फ़्लाइट को राउंड द वर्ल्ड स्पीड के रिकॉर्ड के लिए कम से कम ट्रॉपिक ऑफ कैंसर की लम्बाई के बराबर, मतलब कुल 36,788 किलोमीटर की यात्रा करनी ही होगी. हाँ, एक दिलचस्प तथ्य और है कि ये रेखा लगातार अपनी जगह बदलते हुए हर साल लगभग 15 मीटर दक्षिण की ओर खिसक रही है. अलबत्ता इस तथ्य के बारे में मुझे सटीक जानकारी नहीं मिल पाई है. 
विश्‍व के तमाम देशों से गुज़रती कर्क रेखा, Tropic of Cancer passing through Various Countries
विश्‍व के तमाम देशों से गुज़रती कर्क रेखा, Tropic of Cancer passing through Various Countries

ट्राेेपिक्‍स पर क्‍यों पाए जाते हैं सबसे बड़े रेगिस्‍तान 

मोटे तौर पर अगर हम सोचें तो लगेगा कि भूमध्‍य रेखा के सूरज की किरणों की सीध में होने के कारण यहां तापमान सबसे ज्‍यादा रहता होगा और इस रेखा के पास मौजूद इलाके रेगिस्‍तान होते होंगे. मगर ऐसा नहीं है. दरअसल सूरज की तीखी किरणों से जो गरमी पैदा होती है उससे वाष्‍प बनता है और बादल बनकर बरसते हैं. मगर ऐसा दोनों ट्रोपिक्‍स यानि कि ट्रोपिक ऑफ कैंसर (कर्क रेखा) और ट्रोपिक ऑफ कैप्रिकोन (मकर रेखा) पर नहीं होता है. ये दुनिया के सबसे गरम इलाके हैं. इसीलिए दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्‍तान इन्‍हीं ट्रोपिक्‍स के आस-पास पाए जाते हैं। मसलन, ट्रोपिक ऑफ कैंसर (कर्क रेखा) के पास सहारा मरुस्‍थल, ईरानी मरुस्‍थल, थार मरुस्‍थल और उत्‍तरी अमेरिका का मरुस्‍थल और ट्रोपिक ऑफ कैप्रिकोन (मकर रेखा) के पास नामिब, कालाहारी, अटाकामा और ऑस्‍ट्रेलियाई मरुस्‍थल.

अब आखिर में एक और दिलचस्‍प बात से अपनी बात को समाप्‍त करता हूं कि इस कर्क रेखा के उत्‍तर में रहने वाले लोगों के सिर पर कभी भी सूरज सीध में नहीं आएगा और दक्षिण में रहने वाले लोगों के सिर पर साल में दो बार. है न दिलचस्‍प ? इसका कारण आप खुद पता लगाइए और मुझे बताइए. ज़रा ताज़ा कीजिए अपने भूगोल के ज्ञान को. यक़ीन मानिए आपको मज़ा आएगा.

भोपाल के निकट से गुज़रती कर्क रेखा
भोपाल के निकट से गुज़रती कर्क रेखा

संभव है आप भी कभी न कभी इस रेखा से गुज़रे हों और आपने वहां तस्‍वीरें ली होंगी. यदि आप अपनी तस्‍वीरें भी इस ब्‍लॉग पोस्‍ट में शामिल करना चाहते हैं तो मुझे authorsaurabh@gmail.com पर भेज दें. मुझे बड़ी खुशी होगी उन्‍हें यहां पोस्‍ट करते हुए.  

#tropicofcancer #madhyapradesh 

बुधवार, 24 जनवरी 2018

Indore: A Tale of Cleanest City of India

कहानी सबसे स्‍वच्‍छ शहर इंदौर की
अपने देश में जहां शहरों में गंदगी, कूड़े के ढ़ेर, सड़कों पर बहता नालियों का पानी और सीवरों का जाम होना आम बात हो वहीं इसी देश में एक ऐसा शहर भी है जो वर्ष 2017 में क्‍लीनेस्‍ट सिटी चुना गया और 2018 में भी सबसे स्‍वच्‍छ शहर का खिताब अपने नाम करने के लिए इस वक्‍़त पूरी शिद्दत से जुटा हुआ है। 

स्‍वच्‍छता के लिए एक दीवानगी सी पूरे शहर में नज़र आती है मानो इस शहर के प्रशासन और इसके नागरिकों की जि़ंदगी का सबसे ज़रूरी काम शहर को स्‍वच्‍छ रखना है। आप चाहे चाट-खौमचे के अड्डे छप्‍पन चले जाएं या देर रात गुलज़ार होने वाले सर्राफ़ा की तंग गलियों पर नज़र डालें...मजाल है कि ज़रा भी गंदगी कहीं नज़र आ जाए।

राजवाड़ा के ठीक सामने स्‍वच्‍छता का संदेश
मैंने ख़ुद रात 11 बजे भी सफ़ाई कर्मचारियों को सड़कों को बुहारते और गाडियों को कचरा उठाते देखा है। शहर के हर इलाके में कचरे वाली गाडि़यों के आने का समय तय है। अगर गाड़ी तय वक्‍़त पर नहीं आती है तो ज्‍यादा से ज्‍यादा 15 मिनट इंतज़ार करने के बाद आपको सिर्फ एक नंबर पर मिस कॉल देनी है. इसके बाद नियंत्रण कक्ष खुद आपसे संपर्क करेगा और दूसरी गाड़ी मौक़े पर भेजी जाएगी। कचरा उठाना एक बात है मगर गीले, सूखे और घरेलू जैव कचरे का अलग-अगल वेस्‍ट मैनेजमेंट करना दूसरी। कचरे के प्रबंधन की भी बेहतरीन व्‍यवस्‍था सुनिश्चित की गई है। 

इस तरह निगम प्रशासन ने शहरवासियों को एक मुकम्‍मल इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर मुहैया करवाया है और अब शहरवासी उसकी कद्र करते हुए इस पूरे अभियान को सिर-माथे उठा कर आगे चल रहे हैं। इस पूरी कवायद में बच्‍चों का जुड़ जाना इस अभियान की सार्थकता और इसकी जीवंतता का परियाचक है। लोगों का कहना है कि, ‘साहब अब तो बच्‍चे हमें टोकने लगे हैं कि पापा गन्‍दगी करना बुरी बात है और खुद ही हमारे गिराए हुए पॉलिथीन या लिफ़ाफ़े को उठा लेते हैं

बसें बस एक ही संदेश दे रही हैं इन दिनों 
छप्‍पन का व्‍यस्‍ततम इलाका...मगर गंदगी नदारद है
शहर में सैकड़ों सार्वजनिक शौचालय बनाए गए हैं। मैंने पिछले चार दिनों में किसी को दीवारों पर मूत्र विसर्जन करते नहीं देखा। पूरे शहर में जहां कहीं भी जगह मिली वहीं दीवारों, बाउंड्रियों, खंबों, दुकान के शटरों, बसों, ऑटो और यहां तक कि मंदिरों में भी हर जगह को स्‍वच्‍छता के संदेशों से रंग दिया गया है। शहर में हर सड़क के किनारे अलग-अलग तरह के कचरे के लिए डस्‍टबिन लगे हैं और कार चालकों को सस्‍ते कार डस्‍टबिन भी दिए जा रहे हैं। इसके लिए बाकायदा विक्रय केन्‍द्र भी खोले गए हैं। आप लोकेटर की मदद से नज़दीकी शौचालय ढूंढ सकते हैं और तमाम सुविधाओं के लिए हेल्‍पलाइन नंबर 1969 पर संपर्क कर सकते हैं। मोबाइल एप भी खूब लोकप्रिय हो रहा है। 

प्‍लास्टिक कचरे को रीसाइकल करने की मशीन
रीसाइकल योग्‍य प्‍लास्टिक कचरे को रीसाइक्लिंग मशीनों में डालने पर गिफ्ट वाउचर्स मिलते हैं। हालांकि छप्‍पनके बाज़ार में लगी एक ऐसी मशीन मुझे बंद हालात में मिली। संभव है हाल-फिलहाल में खराब हुई हो। चीजों को दुरुस्‍त रखना अपने-आप में एक चुनौती है। किसी भी व्‍यवस्‍था को शुरू करना आसान है मगर उसे बनाए रखना बहुत कठिन होता है। फिर भी कमोबेश स्थिति बेहतर नज़र आती है। 

कुछ लोग इस कवायद का श्रेय निगम कमिश्‍नर मनीष सिंह को देते हैं तो कुछ लोग इस अभियान की सूत्रधान यहां की महापौर श्रीमती मालिनी गौड़ को मानते हैं। एक महानगर जैसे शहर को लगातार साफ़ रखना यकीनन आसान काम नहीं है। चुनौतियां लगातार सामने आती हैं। इन चुनौतियों में एक चुनौती है धार्मिक जुलूसों आदि में होने वाली गंदगी से निपटना और आयोजकों को सफ़ाई के प्रति संजीदा बनाना। निगम इसके लिए कोई रियायत नहीं बरतता है। कुछ स्‍थानीय मित्रों ने बताया कि अभी हाल में निगम ने एक धार्मिक समुदाय के जुलूस से हुई गंदगी के लिए 50,000 का दंड लगाया तो वहीं दूसरे धार्मिक समुदाय द्वारा जलाशयों को गंदा करने पर मोटा जुर्माना ठोका है। शहर में किसी भी तरह की गंदगी फैलाने वालों को बख्‍शा नहीं जा रहा है। रेहड़ी खौमचे वालों को सख्‍़त हिदायत है। इस तरह इंदौर तमाम शहरों के लिए रोल मॉडल बन सकता है। 




स्‍वच्‍छता के लिए प्रेरित करने का सबसे रोचक अंदाज़ मुझे यहां के खजराना मंदिर में मिला जहां स्‍वयं भगवान की ओर से संदेश दीवारों पर चस्‍पा हैं कि मैं आपका घर गंदा नहीं करता हूं, आप मेरा घर गंदा न करें। बात सीधी सी है और यही बात शहर पर भी लागू होती है। हम अपना घर साफ रखना चाहते हैं तो शहर को क्‍यों गंदा करते हैं ? हम जब पूरे शहर को अपना घर मानेंगे तभी हम शहर को स्‍वच्‍छ रख पाएंगे। अन्‍यथा स्‍वच्‍छता अभियान केवल एक फोटो अपॉर्चुनिटी बन कर रह जाएगा। 
खजराना मंदिर परिसर

इंदौर रहेगा नंबर 1
कैसे चुना जाता है सबसे स्‍वच्‍छ शहर ?
क्‍लीनेस्‍ट शहरों का चयन शहरी विकास मंत्रालयभारत सरकार और केन्‍द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा प्रकाशित की जाने वाली नेशनल सिटी रेटिंग के आधार पर किया जाता है। स्‍वच्‍छ भारत अभियान सर्वेक्षण 2017 में कुल 500 शहरों को शामिल किया गया है और पूरे देश को पांच जोन में बांट कर हर शहर को कुल 19 मानकों पर परखा गया है। शहरी विकास मंत्रालय द्वारा Quality Council of India को यह सर्वेक्षण करने के लिए अधिकृत किया गया है। इसका सर्वेक्षण का उद्देश्‍य शहरों के बीच प्रतिस्‍पर्धा को बढ़ावा देना और उन्‍हें अपनी स्‍वच्‍छता का स्‍तर जानने का अवसर प्रदान करना है। हर शहर के प्रदर्शन को
·        म्‍युनिसिपल सोलिड वेस्‍ट – झाडू लगाना, कचरे का संग्रहण और ढुलाई
·        म्‍युनिसिपल सोलिड वेस्‍ट – प्रसंस्‍करण और ठोस कचरे का निस्‍तारण
·        खुले में शौच से मुक्‍त होना/ शौचालयों की व्‍यवस्‍था
·        क्षमता निर्माण और इलैक्‍ट्रॉनिक माध्‍यमों से ज्ञान का प्रसार
·        सार्वजनिक और सामु‍दायिक शौचालयों का प्रावधान
·        सूचनाशिक्षा और संचार तथा व्‍यवहारगत परिवर्तन आदि बिन्‍दुओं की कसौटी पर परखा जाता है।

स्‍वच्‍छता सर्वेक्षण 2017 ने इंदौर को सबसे स्‍वच्‍छ शहर चुना है और ये भी आश्‍चर्य की बात है कि मध्‍यप्रदेश का ही एक दूसरा सुंदर शहर भोपाल इस सर्वेक्षण में दूसरे स्‍थान पर रहा है। अब इंदौर अपने खिताब को बचाने के लिए जी-जान से जुटा हुआ है। शहर में हर ओर बस एक ही नारा हैइंदौर फिर बनेगा नंबर 1। ये एक अच्‍छी शुरूआत है। यदि इसी तरह सभी शहर आपस में प्रतिस्‍पर्धा करने लगें तो पूरा देश स्‍वच्‍छ होने में देर नहीं लगेगी। 

ये कार्य केन्‍द्र के स्‍तर पर किया जा रहा है। इसी तरह राज्‍य सरकारों द्वारा भी अपने-अपने स्‍तर पर सबसे स्‍वच्‍छ शहरजिलातहसील और ग्राम पंचायतों को चुना जा सकता है। अगर इंदौर कर सकता है तो बाकी शहर क्‍यों नहीं? वर्ष 2017 के स्‍व्‍च्‍छता सर्वेक्षण में निचले पायदानों पर रहे भोपाल, मैसूरसूरतविशाखापट्टनम इस बार ऊपर आने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
वर्ष 2017 के शीर्ष 15 स्‍वच्‍छ शहरों में ये शहर शामिल हुए :

स्वच्छता सर्वेक्षण रैंक
शहर
राज्य / संघ शासित प्रदेश
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
15




















ये इत्‍तेफाक ही है कि जिन दिनों मैं इंदौर में हूं उन्‍हीं दिनों स्‍वच्‍छता सर्वेक्षण 2018 चल रहा है। हो सकता है कि शहर इन दिनों पहले से ज्‍यादा सतर्क और मुस्‍तैद हो मगर यहां के स्‍थानीय लोगों से बातचीत करने से पता चलता है कि स्‍वच्‍छता अब यहां का वर्ष भर चलने वाला कार्यक्रम बन चुका है और अब धीरे-धीरे ये शहर की संस्‍कृति में घुल-मिल गया है। मेरे इंदौर में आने और शहर छोड़ने तक हर तरफ़ स्‍वच्‍छता अभियान की छाप नज़र आई. मैं इंदौर को 2018 में भी सबसे स्‍वच्‍छ शहर बनने की शुभकामनाएं देता हूं और पाठक मित्रों से आग्रह करूंगा कि मौका मिले तो एक बाद इंदौर जरूर जाएं और कुछ नहीं तो एक स्‍वच्‍छ शहर देखने के लिए ही सही. 

17 अप्रैल, 2018 की अपडेट: 
इंदौर को वर्ष 2018 में भी सबसे स्‍वच्‍छ शहर के रूप में चुुुुना गया है। इंदौर को बहुत ये खिताब बहुत मुबारक :)

कुुछ और तस्‍वीरें इन्‍दौर से:












छप्‍पन की रौनक 


सर्राफ़ा
देर रात 11 बजे भी सफाई जारी है 

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