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बुधवार, 18 मई 2016

वाद्य यंत्रों का अनूठा मैलोडी वैक्‍स म्‍यूजियम - Melody Wax Museum with Musical Instruments

दुनिया में नायाब चीजों और धरोहरों को सहेज कर रखने के शौक ने संग्रहालयों को जन्‍म दिया. पूरी दुनिया में न केवल सरकारें और संस्‍थाएं बल्कि लोग भी अकेले ही अपने दम पर कलाओं, वस्‍तुओं और शिल्‍प को संग्रहालयों में सहेजते आ रहे हैं. 

मैं अब तक देश के विभिन्‍न राज्‍यों में तमाम संग्रहालयों का दौरा कर चुका हूं जहां हमारी लोक कलाएं, परिधान, उत्‍खनन से निकली वस्‍तुएं, युद्धों में इस्‍तेमाल किए जाने वाले हथियार, औजार, सिक्‍के, मिट्टी के बर्तन, आभूषणों आदि को उनके ब्‍यौरे के साथ बड़े प्‍यार से जगह दी गई है. इंसान की संग्रहालयों के लिए ये कवायद इसलिए है ताकि उसकी आने वाली पीढि़यां अपने इतिहास को और मानव सभ्‍यता के विकास क्रम को अपनी आंखों से देख कर महसूस कर सकें.

आज विश्‍व संग्रहालय दिवस पर मैं आपसे एक खास संग्रहालय की बात करना चाहता हूं जो दुनिया भर में शायद अपनी तरह का एकमात्र संग्रहालय है. मैं बात कर रहा हूं कर्नाटक के मैसूरू में मैलोडी वैक्‍स म्‍यूजियम की. 

मैलोडी इसलिए कि यहां दुनिया भर के म्‍यूजिकल इंस्‍ट्रूमेंट्स को प्रदर्शित किया गया है और वैक्‍स इसलिए कि इन म्‍यूजिकल इंस्‍ट्रूमेंट्स को बजाते हुए दिखाए गए लोग वैक्‍स से बनाए गए हैं. इस संग्रहालय की स्‍थापना 2010 में बैंगूलूरू के एक आईटी प्रोफैशनल श्रीजी भास्‍करन ने पूरी दुनिया के संगीत के प्रति सम्‍मान व्‍यक्‍त करने के लिए की थी।


मैंने इससे पहले सिर्फ लंदन के मैडम तुसाद वैक्‍स म्‍यूजियम से ही परिचित था. क्‍या खूब शौहरत पाई है मैडम तुसाद के म्‍यूजियम ने कि दुनिया का ताकतवर इंसान भी वहां खुद को मौम के पुतले के रूप में देखना चाहता है. वहां प्रेसीडेंट ओबामा अपनी मधुर मुस्‍कान लिए मौजदू है तो अब हाल ही में हमारे प्रधानमंत्री जी नरेन्‍द्र मोदी भी दुनिया की उन मौम से बनी नामचीन हस्तियों के बीच शामिल हो गए हैं.

खैर हम मैसूर के मैलोडी वैक्‍स म्‍यूजियम की बात कर रहे थे. इस म्‍यूजियम में कुल 19 गैलरियां मौजूद हैं जिनमें तकरीबन 110 आदम कद वैक्‍स के पुतले हैं और 300 से अधिक इंडियन और वैस्‍टर्न म्‍यूजिकल इंस्‍ट्रूमेंट्स दर्शकों का स्‍वागत करते हैं. कमाल की बात ये है कि अमूमन हर गैलरी में इन पुतलों और इंस्‍ट्रूमेंट्स को अलग-अलग बैंड और स्‍टेज पर परफॉर्म करते हुए दिखाया गया है जो अपने आप में एक प्रस्‍तुति को देखने का अहसास देता है. 

संगीत की इस वैक्‍स यात्रा में पाषाण युग से लेकर आज के आ‍धुनिक म्‍यूजिकल इंस्‍ट्रूमेंट्स मौजूद हैं. कुछ शानदार गैलरियों में इंडियन क्‍लासिकल हिंदुस्‍तानी और कारनाटिक, जैज, रॉक, भांगड़ा, हिप-हॉप, मध्‍य-पूर्व, दक्षिण भारतीय, चीनी आदि यहां तक कि कुछ एन्‍क्‍लोजर जनजातीय संगीत को भी दर्शाते हैं.



संगीत के वाद्य यंत्रों से सजी इन गैलरियों में संगीत से इतर सामाजिक संदेश देते हुए कुछ दृश्‍य बहुत आकर्षित करते हैं मसलन भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई. इनके अलावा मैसूर के पूर्वराजा नालवाडी कृष्‍णाराजा वाडियार का शानदार स्‍टैच्‍यू भी इस म्‍यूजियम की शान बढ़ा रहा है.


मैलोडी वर्ल्‍ड श्रीजी भास्‍करन की अनुपम कृति है हालां‍कि इससे पहले वे ऊटी में 2007 में पहला और 2008 में ओल्‍ड गोवा में दूसरा वैक्‍स म्‍यूजियम खोल चुके हैं और उनकी कुछ रचनाएं देश के अन्‍य वैक्‍स म्‍यूजियम की शान बढ़ा रही हैं। वैक्‍स म्‍यूजियम की हर रचना श्रीजी भास्‍करन की मेहनत और हुनर की खुद गवाही देती है.



वैक्‍स से स्‍टैच्‍यू बनाने की प्रक्रिया बेहद पेचीदा है जिसमें कई स्‍तरों पर कलाकारी की जरूरत है. इसमें कम्‍प्‍यूटर से इमेजिंग, मोल्डिंग और स्‍कल्‍पटिंग आदि शामिल हैं. एक-एक वैक्‍स स्‍टैच्‍यू को बनाने के लिए लगभग 50 किलो तक वैक्‍स की जरूरत होती है और केवल एक ही स्‍टैच्‍यू को बनाने में ही लगभग 2 से 4 महीने का समय लग जाता है. 

ये काम कम खर्चीला भी नहीं है...कलाकृति की जरूरत और काम की बारीकी के हिसाब से एक वैक्‍स स्‍टैच्‍यू पर 3 से 15 लाख रु. तक का खर्च आ जाता है. स्‍टैच्‍यू तैयार होने के बाद उन्‍हें वास्‍तविक दिखने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है....रियल लाइफ लुक देने के लिए असली दिखने वाले दांत, बाल और आंखों का होना बहुत जरूरी है और साहब ये यकीनन बहुत टेढ़ा काम है. बात यहीं खत्‍म नहीं होती है...इन मौम के पुतलों के लिए कपड़े भी उनके नाप के सिलवाने पड़ते हैं. तब कहीं जाकर लाइफ-साइज स्‍टैच्‍यू तैयार होते हैं. इस सब से हम समझ सकते हैं कि एक आर्टिस्‍ट के लिए ये काम कितने धैर्य, समर्पण और रुचि का है.

म्‍यूजियम में घूमते हुए एक गैलरी में एक बोर्ड पर मेरी निगाह पड़ी. जिस पर लिखा था कि कनार्टक टूरिज्‍म ने इस म्‍यूजियम को रिकोग्‍नाइज नहीं किया है जबकि गोवा टूरिज्‍म ने इस संग्रहालय को रिकोग्‍नाइज किया हुआ है. 

इस संग्रहालय से जुड़े लोगों का दर्द वाजिब है. म्‍यूजियम के रख-रखाव और स्‍टाफ का खर्च टिकटों की बिक्री से चल रहा है. यदि इसे थोड़ा-बहुत सरकारी संरक्षण प्राप्‍त हो जाए तो ये संग्रहालय और अधिक पर्यटकों को आकर्षित कर सकता है. अभी तक तो ट्रिप एडवाइजर या ब्‍लॉग आदि पर पढ़ कर ही लोग यहां तक पहुंच रहे हैं.  मौम के पुतलों का ये संसार एक बार देखने लायक तो जरूर हैै और अगर आप संगीत प्रेमी हैं तो ये देखना और भी जरूरी हो जाता हैै. 







दर्शकों के लिए:

समय: ये म्‍यूजियम सुबह 9.30 से शाम 7.00 बजे तक खुलता है.
टिकट: 30 रुपए
स्टिल कैमरा फीस : 10 रु.

पता: विहार मार्ग, सिद्धार्थ ले आउट, मैसूरू 

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

एक बेहतरीन जायका....मैसूर का मद्दूर वडा - Maddur Vada

देश के कुछ बेहतरीन जायकों से मेरा परिचय अक्सर इत्तेफ़ाक़ से होता है. उस रोज बंगलोर एयरपोर्ट से मैसूर के लिए निकले घंटे हो चुके थे और लगातार बारिश और ठंडी हवा ने गाड़ी के अंदर ही हड्डियों में झुरझुरी सी भर दी थी. हमारी टीम के कुछ लोग कुछ महीने पहले इस रास्ते से गुज़र चुके थे सो उन्हें मंड्या के आस-पास किसी खूबसूरत रेस्तरां की याद थी जहां उन्हें स्वादिष्ट खाना-पीना मिल गया था. पर अब तो दरकार सिर्फ एक अदद चाय की थी. मंड्या में वो रेस्तरां भी मिल गया लेकिन ठीक उसी के सामने सड़क पर अपनी ओर ही एक ओर ढ़ाबे नुमा रेस्तरां था. हमें तो जल्दी से एक कप चाय पीनी थी सो गाड़ी किनारे लगा चाय ऑर्डर कर दी गई. मुझसे सूखी चाय गले से नीचे नहीं उतारी जाती...साथ में बिस्कुट या हल्का स्नैक चाहिए. पर इस रेस्तरां में बिस्कुट नाम की चिड़िया थी ही नहीं. फिर रेस्तरां के मालिक से पूछा कि ऐसा आपके पास क्या है जो चाय के साथ लिया जा सकता है. उन हज़रत ने मैसूर वड़ा के लिए सिफारिश की और इसकी रेसिपी पर दो लाइनों में चर्चा हुई और कुछ इस तरह मेरा एनकाउंटर हुआ "मैसूर वड़ा" के साथ. मैसूर-वड़ा नारियल चटनी के साथ परोसा गया था. हमें बाद में बताया गया कि इसे मद्दूर-वड़ा भी कहा जाता है और ये लाजबाव स्नैक मैसूर और बैंगलोर के बीच बहुत लोकप्रिय है. दरअसल हम बैंगलोर-मैसूर हाइवे पर थे और मद्दूर नाम की वो जगह पास ही थी जिसके नाम पर इसका नाम पड़ा. तो साहबमद्दूर या कहिए कि मैसूर वड़ा चावलमैदा के आटे से प्याजनारियलऔर खासतौर से दक्षिण भारतीय व्यंजनों में खास तौर से प्रचलित मसालों से तैयार किया जाता है. ये कर्नाटक का चखा जाने वाला पहला स्वाद था जो हमेशा याद रहेगा.
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