विरासत और कला का अनूठा संगम है माहेश्वरी साड़ी
नर्मदा के तट पर बसा महेश्वर पाँचवी सदी से ही
हथकरघा बुनाई का केंद्र रहा है और मराठा होल्कर के शासन काल में जनवरी 1818 तक
मालवा की राजधानी रहा है. ये महेश्वर के इतिहास का सुनहरा दौर था. यही वह समय था
जब हथकरघा पर माहेश्वरी साड़ी अस्तित्व में आई. आज भी महेश्वर में और खासकर
महेश्वर के शिव मंदिर के आस-पास छोटे-छोटे घरों से हथकरघों पर माहेश्वरी साड़ी
को बुनते हुए देखा जा सकता है. रेहवा सोसायटी के बैनर तले आज भी सैकड़ों
हथकरघों पर माहेश्वरी साड़ी का जादू बुना जा रहा है.
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माहेश्वरी साड़़ी़ और हथकरघा बुनकर (PC: Veera Handlooms, Maheshwar) |
अहिल्याबाई होल्कर के कारण अस्तित्व में आई माहेश्वरी साड़ी
माहेश्वरी साड़ी के अस्तित्व में आने के बारे
में एक कहानी यहां की फिज़ाओं में तैर रही है. कहानी कहती है कि इंदौर की
महारानी अहिल्या बाई होल्कर के दरबार में कुछ खास मेहमान आने वाले थे सो
महारानी ने सूरत से कुछ खास बुनकरों के परिवारों को बुलाकर महेश्वर में बसाया और
उन्हें उन मेहमानों के लिए खास वस्त्र तैयार का काम सौंपा. ये मेहमान कौन थे
इसका साफ-साफ उल्लेख मुझे कहीं नहीं मिला. अलबत्ता वहां के एक गाइड ने एक दिलचस्प
कहानी मुझे सुनाई. इस कहानी के मुताबिक मालवा की महारानी अहिल्याबाई (31 मई, 1725 – 13 अगस्त, 1795) के पति खांडेराव होल्कर की 1754 में कुम्हेर के युद्ध में मृत्यु
के बाद उनके ससुर मल्हार राव होल्कर ने उन्हें सती नहीं होने दिया और
अगले 12 वर्ष स्वयं इंदौर का राज-काज संभाला.
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अहिल्याबाई होल्कर |
फिर 1766 में मल्हार राव होल्कर की मृत्यु के बाद मल्हार राव के पोते और अहिल्याबाई के पुत्र खांडेराव ने गद्दी को संभाला लेकिन पुत्र की भी मृत्यु के बाद आखिरकार अहिल्याबाई ने शासन अपने हाथों में लिया. अपने शासन काल में उन्होंने न केवल महेश्वर बल्कि तमाम अन्य शहरों में भी घाटों, कुओं, मंदिरों का निर्माण करवाया. यहां तक कि काशी का विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ का मंदिर भी रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा ही बनवाया गया था. उनके शासन काल को महेश्वर का स्वर्ण-काल माना गया. महेश्वर की जनता आज भी अपनी प्रिय रानी को बहुत सम्मान से याद करती है और उन्हें मॉं साहब कह कर याद करती है. बेशक अहिल्याबाई अपने विवेक और कौशल के साथ राज्य का संचालन कर रहीं थीं मगर अहिल्या चूंकि महिला थीं इसलिए स्वाभाविक रूप से आस-पास की रियासतों और मुग़ल शासकों की नज़रें इस राज्य पर पड़ने लगीं. अहिल्याबाई इस खतरे को साफ देख रहीं थीं.
निस्संदेह मालवा इतना शक्तिशाली नहीं था कि इन
षड्यंत्रों का मुकाबला कर पाता. इसलिए ऐसे कठिन समय में अहिल्याबाई ने अपने
भरोसेमंद पड़ौसी राज्यों और विश्वस्त लोगों को एक बहन की तरह रक्षा का अनुरोध
किया. उन सभी लोगों ने भी बहन की रक्षा का वायदा किया और मालवा पधारने का
कार्यक्रम बनाया. अहिल्याबाई ने इस अवसर को अपने पड़ौसियों के साथ अपने संबंधों को
सुदृढ़ बनाने के अवसर के रूप में लिया और उन्होंने सूरत से खास बुनकरों को महेश्वर
बुला कर भाईयों के लिए खास तरह की पगड़ी तैयार करने के लिए कहा. बुनकरों ने बेहद
खूबसूरत पगड़ियाँ तैयार कीं.
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नर्मदा के किनारे महेश्वर |
तभी किसी ने महारानी को सलाह दी कि उन्हें
भाईयों की पत्नियों के लिए भी कुछ उपहार भेजने चाहिएं. महारानी ने काफी सोच-विचार
के बाद तय किया वे भाभियों के लिए खास तरह की साड़ियां उपहार में भेजेंगी. बस फिर
क्या था, बुनकरों को एक बार फिर बुलाया गया और उन्हें निदेश
दिया गया कि भाभियों के लिए भी बेहद खूबसूरत साड़ियां तैयार की जानी हैं. ऐसी साड़ियां
जिनमें महेश्वर की आन-बान और शान झलकती हो. बस यहीं से माहेश्वरी साड़ी ने जन्म
लिया.
और यही नहीं, आप
कहीं भी मां साहब अहिल्या बाई की तस्वीर या उनकी प्रतिमा को गौर से देखिएगा, जो सादगी उस देवी की सूरत में नज़र आती है वही सादगी और नफ़ासत माहेश्वरी
साड़ी में भी आपको नज़र आएगी.
साड़ी में दिखती है महेश्वर की झलक
चूंकि साड़ी का नाम महेश्वर के नाम पर पड़ा इसलिए स्वाभाविक है कि इस साड़ी में महेश्वर की झलक अवश्य ही होगी. दरअसल माहेश्वरी साड़ी की पहचान है इसमें इस्तेमाल की गई डिजाइन हैं जो विशेष रूप से महेश्वर के विश्व-प्रसिद्ध शिव मंदिर और महेश्वर किले की दीवारों पर मौजूद विभिन्न आकृतियों से ली गई हैं. अगर आप महेश्वर किले के भीतर नर्मदा के तट पर स्थित मंदिर परिसर में शिव मंदिर की परिक्रमा करते हुए इसके चारों तरफ बनी आकृतियों पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि माहेश्वरी साड़ी के बुनकरों ने इन डिजाइनों को बहुत प्रमुखता से माहेश्वरी साड़ियों में स्थान दिया है.
माहेश्वरी साड़ी अक्सर प्लेन ही होती हैं जबकि इसके बॉर्डर पर फूल, पत्ती, बूटी आदि की सुन्दर डिजाइन होती हैं. इसके बॉर्डर पर लहरिया (wave), नर्मदा (Sacred River), रुई फूल (Cotton flower), ईंट (Brick), चटाई (Matting), और हीरा (Diamond) प्रमुख हैं. पल्लू पर हमेशा दो या तीन रंग की मोटी या पतली धारियां होती हैं. इन साड़ियों की एक विशेषता इसके पल्लू पर की जाने वाली पाँच धारियों की डिजाइन – 2 श्वेत धारियाँ और 3 रंगीन धारियाँ (रंगीन-श्वेत-रंगीन-श्वेत-रंगीन) होती है. माहेश्वरी साड़ियों के आम तौर पर चंद्रकला, बैंगनी चंद्रकला, चंद्रतारा, बेली और परेबी नामक प्रकार होते हैं. इनमें से पहली दो प्लेन डिजाइन हैं जबकि अंतिम तीन में चेक या धारियां होती हैं.
मूल माहेश्वरी साड़ी की एक खासियत और है और वो है इसकी 9 यार्ड की लंबाई और इसके पल्लू का रिवर्सिबल होना. पल्लू की इन खासियतों की वजह से ही अकेले पल्लू को तैयार करने में ही 3-4 दिन लग जाते हैं. वहीं पूरी साड़ी को तैयार करने में 3 से 10 दिन का वक़्त लग सकता है. आप इसे दोनों तरफ़ से पहन सकते हैं.
शुरुआत में इस साड़ी को केवल शाही परिवारों, राजे-रजवाड़ों के परिवारों में स्थान
मिला लेकिन बाद में ये साड़ियाँ आम लोगों की भी प्रिय हो गईं. जहां शुरुआत में
माहेश्वरी साड़ी को केवल कॉटन से तैयार किया जाता था वहीं अब रेशमी माहेश्वरी साड़ियाँ
भी महिलाओं की प्रिय हो गई हैं. आजकल कोयंबटूर कॉटन और बेंगलूरू सिल्क को मिला कर
मनमोहक साड़ियाँ तैयार की जा रही हैं. शुरुआत में माहेश्वरी साडियों को प्राकृतिक रंगों से ही तैयार
किया जाता था लेकिन तेज भागते दौर में अब इनमें कृत्रिम रंगों का ही प्रयोग होने
लगा है.
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महेश्वर के शिव मंदिर में डिजाइन |
साड़ी के हैं बहुत से क़द्रदान
प्रतिभा राव इंस्टाग्राम
पर yarnsofsixyards_et_al के नाम से साड़ियों पर केंद्रित एक
दिलचस्प अकाउंट चला रही हैं. प्रतिभा के पास हिंदुस्तान में प्रचलित लगभग हर
साड़ी मौजूद है. वो जब-तब इन साड़ियों के बारे में अपने अनुभव साझा करती रही हैं. जब
हमने माहेश्वरी साड़ी के बारे में प्रतिभा से बात की तो उनका कहना था कि
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रेहवा से खरीदी माहेश्वरी साड़ी में प्रतिभा |
‘इस साड़ी के महीन से रंग, बॉर्डर पर ज़री का ख़ास किस्म का काम मुझे बहुत आकर्षित करता है. चटाई बॉर्डर मेरा पसंदीदा है. माहेश्वरी साड़ियों की एक ख़ास बात है. अपने रंगों की विविधता और डिजाइन की पेचीदगियों के चलते एक ही साड़ी साधारण और ख़ास दोनों मौकों पर पहनी जा सकती है. इन साड़ियों में नर्मदा की लहरों जैसी पवित्रता है. ऐसा लगता है जैसे नर्मदा घाट की भोर और गोधूली के सुंदर रंगों को संजोए माहेश्वरी साड़ियाँ एक बीते शाही कल की रोचक कहानी कहती हैं. संस्कृत में नर्मदा का अर्थ है- आनंदमयी, महेश्वर के सुंदर घाटों से उपजी ये साड़ियाँ भी इस अर्थ को चरितार्थ करती हैं
सोशल मीडिया और
तकनीक ने बुनकरों और क़द्रदानों के बीच की दूरी को जैसे खत्म ही कर दिया है. इंस्टाग्राम पर ही ज़रा सा सर्च करेंगे तो दर्जनों अच्छे
बुनकरों के अकाउंट मिल जाएंगे जो अपनी साड़ियों की तस्वीरों को यहां प्रस्तुत कर
ग्राहकों से सीधे आर्डर ले रहे हैं.
रेहवा सोसायटी ने फिर से जिंदा किया इस परंपरा को
बहुत मेहनत छुपी है साड़ी की खूबसूरती के पीछे
उस रोज़ इंदौर से महेश्वर के लिए निकलते वक़्त मैं ये
सोच कर निकला था कि इन साड़ियों के
बनने की पूरी प्रक्रिया को समझना है. इसीलिए इंदौर में मौजूद बुनकर सेवा केंद्र
के अधिकारियों से महेश्वर के बुनकरों और हैंडलूम के शो रूम का पता जेब में लेकर
निकला था. नर्मदा रिट्रीट में दोपहर का लंच करते हुए श्रवणेकर हैंडलूम के
मालिक से बात हुई तो उन्होंने दुकान पर आ जाने के लिए कहा. नज़दीक ही थे हम. बस
चंद पलों में मैं दर्जनों तरह की माहेश्वरी साड़ियों के सामने था. इन साड़ियों के बारे में विस्तार से बात हुई. फिर वर्कशॉप भी देखी
गई जहां धागों की रंगाई हो रही थी. वहीं कुछ बुनकरों से बात करने पर पता चला कि
उनका पूरा परिवार ही साड़ियों की
बुनाई के काम से जुड़ा है. ये एक आदमी के बस का काम है भी नहीं. कच्चे माल के
प्रबंध,
धागों की रंगाई,
रंगों को तैयार करने,
हैंडलूम पर बुनाई से लेकर उनकी बिक्री तक बहुत काम होता है. सरकारी स्तर पर तमाम
सुविधाओं और योजनाओं के बावजूद बुनकरों का मानना है कि उन्हें उनकी मेहनत का
वाजिब हक़ नहीं मिल पाता है.
पावरलूम से मिल रही है बड़ी चुनौती
पावरलूम तो हमेशा से ही हैंडलूम के लिए एक स्थाई चुनौती बना ही हुआ है. कारीगर जो डिजाइन बड़ी मेहनत से हथकरघा के लिए तैयार करते हैं उन्हें पावरलूम का इस्तेमाल करने वाली मिलें और कंपनियां नकल करके धड़ल्ले से तैयार कर रही हैं.
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श्रवणेकर हैंडलूम पर माहेश्वरी साड़ी |
लेकिन हथकरघा के कद्रदान हमेशा रहे हैं और रहेंगे. शायद इसीलिए स्वयं में मालवा के राजसी वैभव, गौरवशाली इतिहास और कारीगरी की विरासत को संभालने वाली माहेश्वरी साड़ी आज भी लोगों के बीच प्रिय है.
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REWA SOCIETY की अपील (PC: REWA)छोटे-छोटे ख़्वाब पंख फैला रहे हैंमहेश्वर में इस समय दर्जनों हैंडलूम ऐसे हैं जो अपने काम को इंटरनेट, ख़ासकर फेसबुक और इंस्टाग्राम के ज़रिए दुनिया तक पहुंचा रहे हैैंं. इंस्टाग्राम ही उनका शो रूम है जहाँ वे अपनी साड़ियों को प्रदर्शित कर ऑर्डर हासिल कर रहे हैं. महेश्वर में ही दो भाई राहुल चौहान और नीरज चौहान लगभग 50 करघों वाला वीरा हैंडलूम चला रहे हैं. वे बताते हैं कि हैंडलूम साडियों का काम उनका पुश्तैनी काम है जो 1950 से चला आ रहा है। पहले दादा, फिर पिता और अब हम दो भाई इस परंपरा को संभाल रहे हैं. ये हमारे लिए केवल एक पुश्तैनी या परिवार का बिजनेस नहीं है बल्कि हमें लगता है कि हम लोगों के ख़्वाबों को बुन रहे हैं. हमारे परिवार के हर सदस्य के खून में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के भीतर ये भावना चली आई है इसीलिए परिवार का हर सदस्य सपनों की बुनाई के इस काम में अपना योगदान देता है। |
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महेश्वर का शिव मंदिर |
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सौरभ आर्य, को यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्योंकि यात्राएं ईश्वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. © इस लेख को अथवा इसके किसी भी अंश का बिना अनुमति के पुन: प्रकाशन कॉपीराइट का उल्लंघन होगा। यहां भी आपका स्वागत है: Twitter: www.twitter.com/yayavaree Instagram: www.instagram.com/yayavaree/ facebook: www.facebook.com/arya.translator |