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गुरुवार, 2 मई 2019

The Nizam's Jewels: रिज़र्व बैंक के तहखानों में आज भी सुरक्षित है बेशकीमती आभूषणों की धरोहर


आज़ादी से पहले के राजाओं, रजवाड़ों और रियासतों वाले हिंदुस्‍तान में शाही परिवारों की शान-ओ-शौक़त के कि़स्‍सों को हम बरसों से सुनते-सुनाते आए हैं। उत्‍तर में अगर अवध के नवाबों की रईसी रश्‍क़ करने लायक थी तो दक्‍कन में हैदराबाद के निज़ाम भी पीछे नहीं थे। इस इलाके में 200 वर्षों से अधिक तक राज करने वाले निज़ामों ने अपने शासन काल में धीरे-धीरे तमाम हीरे-जवाहरातों और एक से एक नायाब आभूषणों को अपने निजी खजाने में शामिल किया। आज इस खजाने का बड़ा हिस्‍सा देश की विरासत की अमूल्‍य धरोहर के रूप में भारत सरकार के पास सुरक्षित रखा है। इन आभूषणों के जरिए हम दक्‍कन के 200 वर्षों के इतिहास और उस समय के निज़ाम शासन की संपन्‍नता को बेहद करीब से देख और समझ सकते हैं। गोलकुंडा और कोलार की खान से निकले बेशकीमती हीरों सहित दुनिया के सबसे बड़े हीरों में गिना जाने वाला जैकब हीरा, बसरा मोतियों का सतलड़ा हार, कोलंबियाई पन्‍ने, बर्मा के माणिक्‍य व रूबी, हीरे जडि़त हार समेत कुल 173 आभूषणों का यह संग्रह उस दौर की याद दिलाता है जब भारत को सोने की चिडि़या कहा जाता था। सरकार अगर समय पर इन आभूषणों को न खरीदती तो यह अनमोल धरोहर देश के बाहर चली जाती। कभी निज़ामों के परिवार की निजी संपत्ति रहे इन आभूषणों की रिज़र्व बैंक के तहखानों तक पहुंचने की कहानी भी बड़ी दिलचस्‍प है।
सरपेच या कलगी

आसफ़ जाही सल्‍तनत की सात पीढि़यों ने समृद्ध किया खजाना:
हम जानते हैं कि 18वीं शताब्‍दी में मुगल सत्‍ता के कमज़ोर पड़ने पर अनेक छोटी-छोटी ताकतें देश के तमाम हिस्‍सों में उभर कर सामने आने लगीं। दक्षिण में निज़ाम सबसे शक्तिशाली शासकों के रूप में उभरे जिन्‍होंने 200 से अधिक वर्षों तक दक्‍कन क्षेत्र पर शासन किया। इस वंश के संस्‍थापक कमरुद्दीन चिंक्‍लीज खां ने दक्‍कन के वाइसराय के रूप में कार्यभार संभाला और धीरे-धीरे दक्‍कन में आसफ़ जाह वंश की नींव रखी। दरअसल, सन 1713 में मुग़ल शासक फ़र्रुखसियर ने उसे निज़ाम-उल-मुल्‍क फ़तेहजंग की उपाधी दी और 1725 में मुग़ल शासक मुहम्‍मद शाह ने आसफ़ जाह की उपाधी से नवाज़ा। बस इसके बाद सभी आसफ़ जाही शासकों ने अपने नाम के साथ निज़ामकी उपाधी लगानी शुरू कर दी। निज़ामों का यह सफ़र सातवें आसफ़ जाह मीर उस्‍मान अली खां (1911-1948) तक बदस्‍तूर चलता रहा। दक्‍कन में राज करने वाले निज़ाम शासक मुग़ल जीवन शैली से भी प्रभावित थे। संपत्ति के महत्‍व और खजाने के मूल्‍य को आंकना उन्‍हें बहुत कम उम्र में ही आ गया था। निज़ामों के इस दौर में जहां हैदराबाद शहर ने खूब तरक्‍की की वहीं हर निज़ाम शासक ने अपनी निजी संपत्ति और शाही खजाने को समृद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन आभूषणों में गोलकुंडा की खान और देश की अन्‍य तमाम खानों से निकले कीमती हीरों, रत्‍न आदि के साथ-साथ तमाम छोटी रियासतों, जागीरदारों, राजाओं आदि से नज़राने के रूप में प्राप्‍त कीमती गहने भी शामिल हैं।

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आम जनता के लिए दुर्लभ ही रहे हैं शाही आभूषण:
भारतीय राजा-महाराजाओं के आभूषण आम जनता की नज़रों से आम-तौर पर दूर ही रहे हैं। इन आभूषणों को केवल राजपरिवार के लोग या दरबारी ही देख पाते थे। इसीलिए भारतीय राजपरिवारों के आभूषण उनके महलों के खजानों में ही बंद रहे। इन आभूषणों को खास राजकीय समारोहों के अवसर पर ही पहना जाता था और खास लोग ही इन्‍हें देख पाते थे। अधिकांश निज़ाम आभूषणों का प्राप्ति स्रोत अज्ञात ही है क्‍योंकि निज़ामों का निजी जीवन और उनकी गतिविधियां आमतौर पर गोपनीय ही रहती थीं। 18वीं से 20वीं सदी के बीच के ये आभूषण अपने उत्‍कृष्‍ट शिल्‍प-सौंदर्य, पुरातनता व दुर्लभ रत्‍नों के कारण विश्‍वविख्‍यात हैं।

ट्रस्‍ट बनाकर की गई खजाने को बचाने की कोशिश:
हैदराबाद के अंतिम निज़ाम मीर उस्‍मान अली का एक विशाल परिवार था और 1000 से ज्‍यादा नौकर-चाकर। उधर आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल होने लगी थी। सो अपने परिवार के आर्थिक भविष्‍य को सुरक्षित करने के लिए निज़ाम ने अपनी संपत्ति को कई न्‍यासों (ट्रस्‍टों) में बांट दिया। स्‍वतंत्रता के बाद सन 1951 में निज़ाम ने एच.ई.एच. द निज़ाम ज्‍वैलरी ट्रस्‍टऔर 1952 में एक अन्‍य न्‍यास एच.ई.एच. निज़ाम सप्लिमेंटल ज्‍वैलरी ट्रस्‍टकी स्‍थापना की। लेकिन इन न्‍यासों के लिए शर्त थी कि इस संपत्ति का विक्रय केवल उस्‍मान अली और उसके बड़े बेटे आज़म जाह की मृत्‍यु के उपरांत ही किया जा सकता है। सरकारी सूची के अनुसार इन दोनों ही न्‍यासों में आभूषणों की कुल संख्‍या 173 है। आभूषणों के इस नायाब संग्रह में पगड़ी के सजाने वाले सरपेच, कलगी, हार, बाजूबंद, झुमके, कंगन, कमर-पेटी, बटन, कफलिंक, पायजेब, घड़ी की चेन, अंगूठियां और बहुमूल्‍य हीरों और पत्‍थरों से जड़ी बैल्‍ट आदि खास तौर पर शामिल हैं। एक खास बात ये है कि इन आभूषणों में बाजूबंदों की प्रमुखता है क्‍योंकि ये शाही लिबास और आभूषणों का अनिवार्य अंग था। 
हीरों से जड़ा कमरबंद या बैल्‍ट

कुछ ऐसे पहनी जाती थी हीरों से जड़ी बैल्‍ट
अगर सरकार न खरीदती तो देश के बाहर चली जाती यह धरोहर:
1970 में निज़ाम द्वारा इन न्‍यासों को विघटित कर इन आभूषणों को बेचने से प्राप्‍त धनराशि को विभिन्‍न उत्‍तराधिकारियों में बांटने का निर्णय लिया गया। निज़ाम के उत्‍तराधिकारियों द्वारा तत्‍कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को एक विज्ञप्ति पत्र भेजा गया। इस पत्र में निवेदन किया गया था कि हैदराबाद के निज़ाम के आभूषणों को भारत सरकार द्वारा खरीदने का विचार किया जाये ताकि यह धरोहर भारत में ही रहे। निज़ामों के वंशज इस खजाने को 350 मिलियन डॉलर में बेचना चाहते थे। काफी दिनों तक जद्दोजहद चलती रही। अंतत: 1991 में न्‍यायाधीश ए. एन. सेन की अध्‍यक्षता में बनी समिति के निर्णय के आधार पर भारत सरकार ने निज़ाम परिवार से कुल 173 उत्‍कृष्‍ट आभूषणों को 2,17,81,89,128 रुपए (दो सौ सत्रह करोड़ इक्‍यासी लाख नवासी हज़ार एक सौ अठ्ठाईस रुपए) में खरीद लिया। इस ऐतिहासिक, बहुमूल्‍य और अनुपम धरोहर का अधिग्रहण भारत के लिए गर्व का विषय था। तभी से यह खजाना रिज़र्व बैंक के पास सुरक्षित रखा है और सरकार समय-समय पर जनता के लिए इसकी प्रदर्शनी लगाती है जिसे देखने में देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर के लोगों की दिलचस्‍पी रहती है।

मुग़ल, दक्‍कनी और यूरोपीय शैली का सम्मिश्रण हैं निज़ाम-आभूषण:


हीरोंं मेंं छेद कर हार बनाने का नायाब नमूना 
निज़ामो के इन आभूषणों में दक्‍कनी-शिल्‍प और मुग़ल कला का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है। निज़ामों के दरबारों पर दिल्‍ली के मुग़ल शासकों के भारी प्रभाव के बावजूद उनके विभिन्‍न आभूषणों में स्‍थानीय कला का स्‍पष्‍ट प्रभाव दिखाई देता है। लटकन युक्‍त हीरे-पन्‍ने के लम्‍बे हारों में उत्‍तर व दक्षिण भारतीय कला का मिश्रण नज़र आता है। हैदराबाद के आभूषणों में सामने की ओर जड़ाई और पीछे की ओर मीनाकारी खूब प्रचलित थी। इसी प्रकार मुग़ल कला शैली की पराकाष्‍ठा को दर्शाने वाले और खिले फूल के डिजाइन वाले हीरे जड़े बाजूबंद मैसूर नरेश टीपू सुल्‍तान के हैं जिन्‍हें आसफ़ जाह द्वितीय ने टीपू सुलतान से लूटे गए सामान में प्राप्‍त किया। निज़ाम शासक अंग्रेजों के मददगार रहे। शायद इसी वजह से 19 वीं शताब्‍दी में उनके कुछ आभूषणों पर यूरो‍पीय शिल्‍प और डिजाइनों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। प्रदर्शनी में गाइड के रूप में मेरी मदद कर रहींं अनीता जी मुझे बताती हैं कि यहां एक हार बेहद खास है जिसमें हीरों में छेद कर धागा पिरोया गया है। हीरे जैसी चीज में छेद करने की कला वाकई अद्भुत थी। इस प्रकार निज़ाम-आभूषण मुग़ल, दक्‍कनी और यूरोपीय कला शैलियों का अद्भुत मिश्रण हैं।
 इन आभूषणों की कहानी बताते हुए अनीता जी

सबसे दिलचस्‍प है दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा हीरा जैकब डायमंड:
जैकब डायमंड
निज़ामों के इन आभूषणों में सबसे खास है 19वीं शताब्‍दी के अंत में दक्षिण अफ्रीका की किंबर्ली खान से निकला जैकब डायमंड। इंपीरियल, ग्रेट वाइट और विक्‍टोरिया नाम से प्रसिद्ध हुए इस हीरे की दास्‍तान बेहद दिलचस्‍प है। तराशने से पहले इसका वजन 457.5 कैरट था और उस समय इसे विश्‍व के सबसे बड़े हीरों में से एक माना जाता था। बाद में हीरा चोरी हो गया और हॉलैंड की एक कंपनी को बेच दिया गया। फिर हॉलैंड की महारानी के सामने इस हीरे को तराशा गया और इसका वजन घटकर 184.5 कैरट रह गया। 1890 में एलेग्‍जेंडर मैल्‍कम जैकब नाम के हीरों के व्‍यापारी ने इस हीरे को हैदराबाद के छठे निज़ाम महबूब अली खां पाशा को 1,20,00,000 रुपए में बेचने की पेशकश की। निज़ाम केवल 46,00,000 रुपए देने को तैयार हुआ। इसके लिए 23,00,000 रुपए का एडवांस तय हुआ। लेकिन निज़ाम ने इसके लिए कोई लिखित करार नहीं किया। इसका मतलब था कि निज़ाम को हीरा पसंद न होने पर वह मना भी कर सकता था। हुआ भी कुछ ऐसा ही।लंदन से चले हीरे के भारत पहुंचने के बाद निज़ाम का मन बदल गया और अपनी 23,00,000 रुपए की अग्रिम राशि वापिस मांग ली। दरअसल, अंग्रेजी सरकार इस सौदे से नाखुश थी क्‍योंकि इसकी खरीद के लिए अदा की जाने वाली रकम राजकोष पर उधार चढ़ जाती। उधर जैकब ने अग्रिम राशि निज़ाम को लौटाने से मना कर दिया और निज़ाम ने जैकब के खिलाफ कलकत्‍ता न्‍यायालय में मुक़द्मा दायर कर दिया। काफी दिनों तक मामला चलता रहा। आखि़रकार तंग आ‍कर निज़ाम ने अदालत के बाहर समझौता कर जैकब से वह हीरा प्राप्‍त कर लिया। इसी जैकब के नाम पर इस हीरे का नाम जैकब डायमंड पड़ा था। लेकिन इतनी फ़ज़ीहत के बाद हासिल हुए हीरे में अब निज़ाम की दिलचस्‍पी ख़त्‍म हो चुकी थी। महबूब अली की मृत्‍यु के बाद उसके पुत्र अर्थात् सातवें निज़ाम मीर उस्‍मान अली खां को यह हीरा चौमहल्‍ला पैलेस में अपने पिता के जूतों के अंदर जुराब में पड़ा मिला। इस कीमती हीरे को सातवें निज़ाम ने भी इज्‍़ज़त नहीं बख्‍़शी और वह भी जीवन भर इसका इस्‍तेमाल एक पेपरवेट के रूप में करते रहे। इस हीरे का आज दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा हीरा माना जाता है। कहते हैं कि अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में इस हीरे की कीमत 400 करोड़ रुपए के आस-पास है और इन दिनों यह हीरा निज़ामों के तमाम अन्‍य आभूषणों के साथ रिज़र्व बैंक के तहखानों में महफूज़ है। 
पायजेब
चाक-चौबंद सुरक्षा में रखे हैं ये अनमोल आभूषण:
निज़ामों के ये आभूषण इन दिनों दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संग्रहालय की एक खास प्रदर्शनी में रखे गए हैं। निज़ामों के इन आभूषणों की प्रदर्शनी वर्ष 2001 और 2007 में नई दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संग्रहालय और हैदराबाद के सालारजंग संग्रहालय में लगाई गई थी। ये तीसरा मौका है जब दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संग्रहालय में भारतीय आभूषण: निज़ाम आभूषण संकलन नाम से यह प्रदर्शनी एक बार फिर लगाई गयी है। इन आभूषणों के महत्‍व को देखते हुए इन्‍हें जेड कैटेगरी की सुरक्षा में रखा गया है। जिसमें दर्जनों हथियारबंद जवान दिन रात प्रदर्शनी हॉल की सुरक्षा कर रहे हैं। प्रदर्शनी कक्ष को बैंक के स्‍ट्रॉंग रूम की तरह सुरक्षित बनाया गया है जिसमें 65 कैमरे लगातार इन आभूषणों पर नज़र रखे हुए हैं। यहां लगाए गए जैमर के कारण प्रदर्शनी में प्रवेश करते ही फोन का सिग्‍नल बंद हो जाता है। ये इंतज़ाम देखने के बाद मुझे 80 के दशक की बॉलीवुड फिल्‍मों में ज्‍वैलरी की प्रदर्शनियों से हीरों को चुराने वाले दृश्‍य याद हो आते हैं। लेकिन, यहां की मुकम्‍मल व्‍यवस्‍था के आगे म्‍युजियम से इन हीरों को चुरा पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। अभी ये प्रदर्शनी पांच दिन और जारी रहेगी इसलिए वक्‍़त हो तो इसे देख आइये क्‍योंकि फिर न जाने कितने बरसों बाद इन नायाब आभूषणों को देखने का अवसर मिले।

अपडेट: राष्ट्रीय संग्रहालय में यह प्रदर्शनी 31 मई, 2019 तक चलेगी और सुबह 10 से सांय 6 बजे तक आयोजित की गई थी।
टिकट: संग्रहालय की टिकट 20 रुपए
प्रदर्शनी टिकट: 50 रुपए

इस लेख का  संपादित संस्‍करण प्रतिष्ठित पोर्टल द बेटर इंडिया पर प्रकाशित हुआ है।


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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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शुक्रवार, 8 जून 2018

चार मीनार के आस-पास बसी है बड़ी दिलचस्‍प दुनिया : सुबह-ए-चार मीनार 2


चार मीनार के आस-पास बसी है बड़ी दिलचस्‍प दुनिया : सुबह-ए-चार मीनार 2 


दोस्‍तो पिछली किस्‍त में आपने सुबह चार मीनार की यात्रा पर निकलने, ऑपरेशन पोलो की बदौलत हैदराबाद के भारत का अभिन्‍न अंग बनने की कहानीहैदराबाद के भाग्‍यनगर से हैदराबाद बनने का किस्‍सा, चार मीनार के बनने की वजह, आसफ़़ जाही सल्‍तनत की सात पुश्‍तों की कहानी, चार मीनार इलाके की सुबह का आलम और लाड बाज़ार में चूडि़यों की रौनक के बारे में पढ़ा. अब आगे.... 

नीमराह बेकरी के बिस्‍कुटों और चाय का जवाब नहीं 


Neemrah Cafe and Bakery at Char Minar, नीमराह बेकरी, चार मीनार
नीमराह बेकरी के बिस्‍कुट और चाय 
सुबह होटल से बिना कुछ खाए पिए निकल आने के बाद अब तक चाय की तलब हो उठी थी. सुबह की चाय के अनुभव को और ज्‍यादा यादगार बनाने के लिए मेरी मेजबान मित्र ने इसका ठिकाना पहले से सोच रखा था. कुछ ही देर में हम चार मीनार से चंद कदम के फ़ासले पर नीमराह बेकरी में थे. यहां बेकरी के ताजा बिस्‍कुटों के साथ ईरानी चाय का अपना अलग मज़ा है. 

चाय की चु‍स्कियों के साथ बेकरी के मालिक अहमद से थोड़ी गुफ्तगू हुई तो उन्‍होंने बताया कि उनके पुरखे ईरान से यहां आए थे और ये दुकान बहुत पुरानी है. अहमद ने हमें दर्जनों तरह के बिस्‍कुट दिखाए जिनमें से कोई सात-आठ किस्‍म के बिस्‍कुटों को हमने चखा. इनमें चांद बिस्‍कुट, उस्‍मानिया बिस्‍कुट, चोको बार, पिस्‍ता, काजू, स्‍टार काजू, ड्राई फ्रूट, ओट्स, डायमंड, रस्‍क केक शुमार थे. यहां बेहतरीन ब्रेड, बन और केक भी चखे जा सकते हैं. 

चाय के भी अपने किस्‍से हैं. यहां एक चाय है पौना. है न दिलचस्‍प नाम? जहां आम चाय 12 रुपए की है वहीं पौना 15 रुपए की. वैसे मामला सिर्फ इतना सा है कि इस चाय में दूध ज्‍यादा होता है. ये ज्‍यादा दूध वाली चाय के भी देश में अलग अलग नाम हैं. मैं जब लुधियाना में पोस्‍टेड था तो दफ़्तर में एक तो होती थी चाय और एक होती थी मिल्‍क टी. निखालिस खड़े दूध की चाय. अब एक चाय से मेरा क्‍या काम बनता...सो एक कप और पी गई. 

हैदराबाद की कराची बेकरी भी कम नहीं

मैं यहां से घर के लिए कुछ लिए बिना ही निकल आया. मगर ये अफ़सोस शाम तक दूर हो गया. एयरपोर्ट के लिए निकलते वक्‍़त कराची बेकरी मिल गई. अब कराची बेकरी की तारीफ़ में क्‍या शब्‍दों को जाया करना. एक से एक बेहतरीन बिस्‍कुट और कुकीज यहां मौजूद हैं. मुझे यहां का फ्रूट बिस्‍कुट बेहद पसंद है. आपको कहीं दिख जाए तो चूकिएगा मत. और दिल्‍ली से हों तो एक डिब्‍बा मेरे लिए भी लेते आइएगा.
Neemrah Cafe and Bakery at Char Minar, नीमराह बेकरी, चार मीनार
ग़ज़ब हैदराबादी लहज़े में  नीमराह बेकरी के अहमद भाई 

बदल रही हैै चार मीनार इलाके की शक्‍ल-ओ-सूरत

Neemrah Cafe and Bakery at Char Minar
चार मीनार का तसव्‍वुर और ईरानी चाय 
खैर, चाय की चुस्कियों के बाद नीमराह बेकरी से बाहर निकले तो देखा कि चार मीनार के चारों तरफ फर्श पर टाइलें बिछाने का काम जोरों पर चल रहा है. कुछ दिनों पहले भी मैंने अंग्रेज़ी अखबार द हिन्‍दू में एक रिपोर्ट पढ़ी थी कि इस चार मीनार के आस-पास चल रहे काम में जमीन से कुछ फुट नीचे पानी की पाइपें बिछाई जा रही हैं जिससे सीपेज की स्थिति में इमारत के ढ़ाचे को नुकसान पहुंचने की संभावना है. 

पुरातत्‍व विभाग ने खूब हो हल्‍ला किया मगर शायद इसे अनसुना कर दिया गया है. ईश्‍वर विभागों को सद्बुद्धि दे. साथ ही चार मीनार के आस-पास के पूरे इलाके को टाइलों से पाटने वालों को यहां कुछ पेड़ लगाने के बारे में भी सोचना चाहिए था. अब तक नहीं सोचा तो अब सोच लें. किसी भी ऐसी परियोजना में ग्रीन बेल्‍ट अनिवार्य हिस्‍सा होनी चाहिए. पर होता यही है कि पहले बिना ज्‍यादा सोचे-विचारे निर्माण कार्य किया जाता है फिर किसी रोज नींद खुलने पर उस निर्माण को उधेड़ कर फिर कुछ नया किया जाता है. पहले कुआ खोदो फिर कुआ भरो. यही नियती है देश की.

Makka Maszid, Char Minar
मक्‍का मस्जिद 

चर्चा में है मक्‍का मस्जिद 

इसके बाद हमने कुछ कदम दूर मौजूद मक्‍का मस्जिद का रुख़ किया. ये हैदराबाद की सबसे पुरानी और देश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है. ये इत्‍तेफ़ाक़ ही था कि कोई हफ़्ता भर पहले ये मस्जिद एक बार फिर सुर्खियों में थी. दरअसल यहां 18 मई, 2007 को हुए एक बम धमाके में दर्जन भर लोग मारे गए और लगभग 60 लोग जख्‍़मी हुए थे. अब हैदराबाद में ही एनआईए की अदालत ने इस मामले के पांचों आरोपियों को रिहा कर दिया है जिनमें स्‍वामी असीमानंद भी शामिल हैं. 

इसी मामले के बाद से बरसों तक देश में हिंदुत्‍व आतंकवाद की थ्‍योरी पर बहसें होती रही हैं. मगर एनआईए अदालत ने सबको चौंकाते हुए सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को रिहा कर दिया है. पूरे देश में खलबली है और इसीलिए इन दिनों मक्‍का मस्जिद के आस-पास सुरक्षा बढ़ा दी गई है. 

क्‍यों कहते हैं इसे मक्‍का मस्जिद

दरअसल इस मस्जिद का निर्माण कुतुब शाही सल्‍तनत के पांचवे शासक मुहम्‍मद कुली कुतुब शाह ने मक्‍का की मिट्टी से ईंटें बनवा कर किया. इसीलिए इसका नाम मक्‍का मस्जि़द रखा गया. 

इसका सामने का तीन मेहराबों वाला हिस्‍सा ग्रेनाइट के अकेले बड़े पत्‍थर से बनाया गया है. कहते हैं इसे बनाने में 500-600 कारीगरों को पांच साल का वक्‍़त लगा. यहां आसफ़ जाही शासकों की क़ब्रों सहित निज़ाम और उनके परिवार के लोगों के मक़बरे भी मौजूद हैं. मुख्‍य मस्जिद परिसर 75 फुट ऊंचा है और इसकी तरफ पांच-पांच मेहराबों वाली दीवारें हैं और चौथी दीवार मिहराब यानि कि किबला (मक्‍का में काबा की दिशा) की दिशा बताती है. इस मस्जिद में एक बार में 10,000 से ज्‍यादा लोग नमाज़ अदा कर सकते हैं. रमजान के दिनों में चार-मीनार के भीतर और बाहर का नज़ारा देखने लायक होता है. हजारों लोग अंदर और बाहर सड़क पर एक साथ नमाज़ अदा करते हैं. और हां, यहां के बाजारों में इफ्तार की दावत की रौनक भी देखने लायक है. 

उस रोज मेरे पास ज्‍यादा वक्‍़त नहीं था सो अंदर तक जाकर नहीं देख पाया. लकिन मुख्‍य द्वार से प्रवेश करने के बाद वहां दाना चुग रहे कबूतरों के पास कुछ वक्‍़त ज़रूर बिताया. यहां छोटे बच्‍चों को दाना खिलाते देखना बड़ा सुकून भरा अनुभव था. डॉक्‍टर लोग कहते हैं कि कबूतरों को दाना खिलाना एक तरह से थैरेपी का काम करता है. एक तरह की मेडीटेशन भी है. आप करके देखिए...मज़ा आएगा. कभी-कभी कबूतरों के झुंड में से आप एक कबूतर की आरे ध्‍यान करके दाना डालते हैं. मगर बाकी कबूतर दानों पर झपट्टा मारते हैं और वो शरीफ़ज़ादा पीछे हट जाता है. आप फिर कोशिश करते हैं कि पगले खा ले. इस खेल में आप कब कबूतरों में गुम हो जाते हैं पता ही नहीं चलता.

चूड़ियों और ज़ारदोज़ी के काम के लिए मशहूर है लाड़ बाज़ार 

मक्‍का मस्जिद से निकल कर एक बार फिर हम चार मीनार की तरफ लौट पड़े. लाड़ बाजार अभी भी सोया हुआ था सो हम इस बाज़ार से जुड़ी संकरी गलियों में ज़ारदोज़ी के कारीगरों का हुनर देखने के लिए जा पहुंचे. ज़ारदोज़ी जानते हें न? ये कला खासतौर पर ईरान, तुर्की, सेंट्रल एशिया के देशों में प्रचलित है जिसमें ज़ार का मतलब है सोना और दोज़ी का मतलब है काम. ये थोड़ा मंहगा काम है इसलिए हिंदुस्‍तान में इसके पहले कद्रदान शाही परिवार, राजे-रज़वाड़े बने. इसमें सोने या चांदी के तारों के साथ नगों का काम होता है मगर अब आम लोगों के बीच इस कला की मांग बढ़ने के साथ ही कारगीर तांबे के तारों पर सोने या चांदी की पॉलिश के साथ ये काम करने लगे हैं. 

प्रिंस मार्केट की ऐसी ही एक दुकान में हमने एक कारीगर से बातचीत की तो उसने बताया कि यहां हैदराबाद में ज़री के काम की बहुत मांग है और उसके ग्राहक वाट्सएप के जरिए ही काम भेज रहे हैं. हिंदुस्‍तान में पारसी और खासकर मुस्लिम परिवारों में जारदोज़ी के काम की बहुत मांग है. नोटबंदी की मार यहां के धंधे पर खूब पड़ी मगर अब काम पटरी पर आने लगा है. इस दुकान से निकल कर गली में आए तो देखा कि गली मक्‍का मस्जिद के एकदम पीछे जाकर खुलती है. वही किबला वाली दीवार के पीछे. यहां आसिफ़ा के लिए न्‍याय के बैनर हवा में झूल रहे हैं. आसिफ़ा के लिए तो पूरा देश ही न्‍याय चाहता है. अभी ज्‍यादा दुकानें नहीं खुली थीं सो यहां से लौटना पड़ा.

Zardozi artist near Char Minar
कोई नृप होऊ....हमें तो ज़ारदोज़ी का काम भला
इस इलाके को खंगालते हुए काफी देर हो चुकी थी और अकेली चाय भला बैटरी को कितनी देर तक चार्ज रख सकती थी. ये मेरी किस्‍मत थी कि मेजबान मित्र ऊषा जी एक उम्‍दा फूड ब्‍लॉगर भी हैं सो यहां की गलियों में छिपे नायाब जायकों की थाह रखती थीं. इनके काम को आप इंस्‍टाग्राम पर @travelkarmas या फिर @foodkarma_ पर देख सकते हैं. 

गोविंद भाई के डोसा कॉर्नर को न भूल जाना 

अब एक बार फिर मेरा सामना एक नए अनुभव से होने जा रहा था. ये था गाविंद भाई का डोसा कॉर्नर. गोविंद कहने को तो रेहडी पर अपना ठिया जमाए हुए हैं मगर उनके जायके के तलबगार दूर-दूर से यहां आते हैं. आएं भी क्‍यों ना? यहां डोसा और इडली बनाने का तरीका जो एकदम अलग है. मैंने इतना स्‍वाद भरा डोसा और इडली शायद ही कहीं और खाई हो. ये कहते हुए बता दूं कि दुनिया की सबसे बेहतरीन इडली श्रीमती जी घर पर बनाती हैं. सो गोविंद भाई की इडली दूसरे नंबर पर ही आएगी. हां, गोविंद भाई का डोसा जरूर नंबर 1 है. मगर उसमें जमकर प्रयोग किए गए मक्‍खन को पचाने के लिए शरीर को थोड़ी ज्‍यादा मशक्‍कत की जरूरत होगी. गोविंद अब धीरे-धीरे ब्रांड बनते जा रहे हैं इसीलिए खुद और उनके ठेले पर काम करने वाले लड़के गोविंद डोसा लिखी नारंगी टी-शर्ट पहने हुए थे. यहीं आस-पास ऐसे ही एक ठिए पर डोसा बेचने वाले साहब तो इतना कमाते हैं कि मर्सीडीज़ रखे हुए हैं.

Govind Dosa at Char minar
तेल रोक के ...मक्‍खन ठोक के...गोविंद भाई का डोसा 
घड़ी में सवा दस बज चुके थे और अब तक पूरा चार-मीनार का इलाका लोगों की आवाजाही से आबाद हो चुका था. इधर पेट फुल हो चुका था और अभी चौमहल्‍ला पैलेस और सालार जंग म्‍यूजियम भी देखने बाकी था. उधर कुछ और मित्रों से चार-मीनार पर मुलाक़ात का वक्‍़त तय था सो मेजबान मित्र से विदा लेकर मैं एक बार फिर चार-मीनार की ओर चल पड़ा.

अब तक चार-मीनार के आस-पास सैकड़ों छोटी-छोटी दुकानें ऐसे उग आईं थी जैसे वो अभी-अभी जमीन से बाहर निकल आई हों. फल, पूजा-पाठ की सामग्री, सजावटी सामाज और खासकर चूडियां ही चूडियां चारों तरफ़. मित्रों के साथ मिलकर एक बार फिर चूडियां खरीदी गईं. अब तक चार-मीनार की पहली मंजिल के लिए एंट्री खुल चुकी थी. सो इसकी पहली मंजिल पर चढ़कर आस-पास के इलाके को देखने की तमन्‍ना भी पूरी करनी थी...सो वही किया. यक़ीनन यहां से आस-पास का नज़ारा बेहद खूबसूरत दिखता है. चूंकि ये इमारत अब पुरातत्‍व विभाग की देख-रेख में है इसलिए ये सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक ही उपलब्‍ध है. रात के वक्‍़त रौशनियों में नहाए चार-मीनार का जलवा अलग ही होता है. इ‍सलिए कभी हैदाराबाद आएं तो एक बार रात में जरूर इस इलाके को देखें. इस यात्रा में तो मुझे ये मौक़ा नसीब नहीं हुआ मगर अगली बार शाम-ए-चार मीनार देखने जरूर आउंगा.

चार मीनार की इफ़्तार, Iftar party at Char Minar
इफ़्तार और चार मीनार             Pic Courtesy : @denny_simon 
हैदराबाद पहली मुलाक़ात में ही दिल में उतर गया है. शायद यहां की एतिहासिक विरासतों, यहां के मोतियों, यहां की स्‍ट्रीट आर्ट, शानदार आईटीसी काकातिया, हैदराबाद में मेरे साथ रहे ड्राइवर इस्‍माइल भाई, की वजह से था...और सबसे बड़ी वजह थीं ऊषा  जी. जिन्‍होंने दिल से अपना शहर दिखाया. शायद उन्‍हीं की वजह से यात्रा के आखि़री पड़ाव पर लगने लगा था कि कोई अपना इस शहर में है सो ये शहर भी अपना सा ही है. तुमसे फिर जल्‍दी मिलूंगा मेरे दोस्‍त हैदराबाद.   

आपको कैसी लगी चार मीनार की ये सुबह, मुझे जरूर बताइएगा. 

  
कुछ और तस्‍वीरें सुबह-ए-चार मीनार से ...

मक्‍का मस्जिद, हैदराबाद


गोविंद डोसा, चार मीनार, हैदराबाद
गोविंद भाई केे यम्‍मी डोसा 


Neemrah Bakery, नीमराह बेकरी

Neemrah Bakery, नीमराह बेकरी

कराची बेकरी के बिस्‍कुट, Karachi Backery
कराची बेकरी के स्‍वाद भरे फ्रूट बिस्‍कुट

Laad bazar near Char Minar, लाड़ बाज़़ार, चार मीनार
दुकानें अभी सोई हुई हैं...
ज़ारदोज़ी
पिन कोड 500002.... बोले तो चार मीनार 
मैं और ट्रेवल कर्मा ...ऊषा जी

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गुरुवार, 7 जून 2018

सुबह-ए-चार मीनार : A morning with Char Minar -1

सुबह-ए-चार मीनार

A morning with Char Minar 

कहते हैं किसी शहर को ठीक से समझना हो तो उसके साथ नींद से जागो, उसे महसूस करने के लिए उसके साथ ही सुबह की ताज़ा हवा में सांस लो. वरना दिन चढ़ने के साथ ही शहर बहरूपिया हो जाता है. ये देखना बेहद दिलचस्‍प होता है कि एक अलसाया हुआ, देर तक करवटें बदलता हुआ 400 साल पुराना शहर जब उठता है तो अपने बिस्‍तर की सिलवटें कैसे हटाता है? सुबह के उन कुछ घंटों में शहर जैसे रात की खामोशी के शून्‍य से बाहर निकल कर एक बार फिर बहुत तेजी से खिल जाना चाहता है. यही वो वक्‍़त है जब आप शहर की सही नब्‍ज़ को टटोल सकते हैं. यूं तो ये बात हर शहर पर लागू होती है मगर बात हैदराबाद और वो भी पुराने हैदराबाद के चार मीनार इलाके की हो तो और भी ज्‍यादा सटीक बैठती है.

Char Minar, Hyderabad
अप्रैल की उस एक सुबह चार-मीनार दिखाने की जिम्‍मेदारी ब्‍लॉगर मित्र @travelkarmas ने ले ली. इससे बेहतर क्‍या हो सकता था कि एक हैदराबादी की नज़र से उसका शहर देख सकूं. 

तय हो गया था कि चार-मीनार इलाके का दौरा सुबह-सुबह किया जाएगा. हैदराबाद की यात्रा के दौरान मेरा ठिकाना बेगमपेट इलाके में होटल आईटीसी, काकातिया था. ये हैदराबाद में आखिरी दिन था और सुबह होटल से निकलते-निकलते 7 बज गए. खैर, अभी भी वक्‍़त था. हमने चार-मीनार जाने के लिए सिकंदराबाद की ओर से चार-मीनार की तरफ़ जाने का रास्‍ता चुना. इस तरह हम हुसैन सागर लेक की परिक्रमा कर रहे थे. 

सिकंदराबाद और हैदराबाद थे तो दो अलग-अलग शहर मगर दोनों एक साथ मिलकर अब एक महानगर का अहसास कराते हैं. विकास कुछ इस तरह हुआ है कि अब इस महानगर को मोतियों का शहर, नवाबों का शहर, बिरयानी का शहर या साइबराबाद के नाम से भी जाना जाता है. शहर के तमाम इलाकों की सूरत और सीरत दोनों ही लखनऊ से बहुत मिलते हैं. किसी अनजान शख्‍़स को यदि आंख बंद कर शहर के बीचों-बीच छोड़ दिया जाए तो उसे लखनऊ में होने का मुग़ालता हो सकता है. 

हम धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रहे थे और रास्‍ते में हैदराबाद के पुराने इलाके एक-एक कर अपने किस्‍से कहने के लिए आंखों के आते रहे. हम हैदराबाद में सरदार पटेल मार्ग देखकर चौंके कि सरदार पटेल की कर्मभूमि तो आम-तौर पर गुजरात और उत्‍तर भारत ही रही है फिर हैदराबाद में सरदार पटेल मार्ग क्‍यों? जवाब जानने की बेचैनी में चलती गाड़ी में ही इस सवाल के उत्‍तर के लिए गूगल बाबा को खंगाल डाला और जो जवाब मिला वो बेहद दिलचस्‍प था.

Old Map of Hyderabad
हैदराबाद का नक्‍शा Pic: Madras Courier  
दरअसल हुआ यूं कि भारत की आज़ादी के समय लॉर्ड मांउटबेटन ने भारत की 565 रियासतों को भारत या पाकिस्‍तान के साथ जुड़ने का विकल्‍प दिया और उनमें से ज्‍यादातर बिना किसी ज्‍यादा हील-हुज्‍ज़त के अपने मुस्‍तक़बिल का फैसला इधर या उधर होकर कर रहे थे. मगर हैदराबाद के आखिरी निज़ाम उस्‍मान अली खान के मन में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी. वो ना तो हिंदुस्‍तान के साथ आना चाहता था और ना ही पाकिस्‍तान के साथ. ये बात सभी जानते हैं कि निज़ाम के राज में हैदराबाद एक दौलतमंद राज्‍य था जिसमें उसकी अपनी फौज़, अपना हैदराबादी रुपया चलता था और निज़ाम दुनिया का सबसे अमीर आदमी था. फैसला लेने के लिए और वक्‍़त के नाम पर निज़ाम एक साल तक मामले को लटकाता रहा. उस समय के गृह मंत्री सरदार पटेल निज़ाम के मंसूबों को भांप चुके थे. 

ये जाहिर हो चुका था कि निज़ाम के ख्‍़वाब ओस्‍मानिस्‍तान नाम का अलग देश बनाने के हैं और उसकी नज़दीकी और हमदर्दी पाकिस्‍तान के साथ है. यही नहीं राजाकारों के रूप में वहां कट्टर इस्‍लामी ताकतें भी अपना सिर उठा रही थीं. हिंदुस्‍तान के बीचों-बीच एक कट्टर इस्‍लामी देश भला कैसे बनने दिया जा सकता था. बस अब सरदार पटेल का धैर्य जवाब दे गया और हैदराबाद के भारत में विलय के लिए फौज़ को हैदराबाद को कब्‍जे में लेने का आदेश दे दिया गया. 

ऑपरेशन का कोड नेम था ऑपरेशन पोलो  और 13 सितंबर, 1948 को भारतीय फौज़ ने हैदराबाद में प्रवेश किया. निज़ाम टेढ़ी खीर था सो हैदराबादी फौज़ और राजाकारों के साथ भारतीय फौज़ से टक्‍कर ली. मगर 100 घंटों तक चली जंग के बाद निज़ाम ने हथियार डाल दिए और रेडियो पर आकर सीज़फायर की गुहार लगाई और कुछ दिनों बाद पटेल से मुलाक़ात में निज़ाम ने भारतीय संघ सरकार के साथ पूरी वफ़ादारी निभाने का वायदा किया. इस तरह हैदराबाद हिंदुस्‍तान का हिस्‍सा बना.

हैदराबाद का आखिरी निज़ाम सरदार पटेल के सामने सरेंडर करते हुए
सरदार पटेल के सामने सरेंडर करते हुए आखिरी निज़ाम      Pic Courtesy: Quora.com 
निज़ाम की हेकड़ी के किस्‍से जितने दिलचस्‍प हैं उतने ही उसकी रईसी और निज़ामत के दौर के. कुछ और इलाकों से गुज़रते हुए हम आखिरकार चार मीनार इलाके में आ पहुंचे. चारों तरफ बाज़ार ही बाज़ार. अब ये जानना भी एक दिलचस्‍प बात थी कि इस भरे-पूरे बाज़ार के अधिकांश हिस्‍से निज़ाम के समय से चले आ रहे हैं और निज़ाम ने अपने लोगों को ये दुकानें मुहैया कराई थीं. अभी सुबह का वक्‍़त था सो पूरा बाज़ार बंद था बस जहां-तहां पटरी पर अपना कारोबार करने वाले लोग अपना ठिया जमाने में लगे थे. बस कोई दो घंटे बाद ही इस जगह को भीड़ से भर जाना था. गाड़ी किनारे लगा हमने चार-मीनार का रुख़ किया. चार मीनार के बनने की कहानी को समझने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा और पीछे जाना होगा. 

दरअसल 1463 में कुली कुतुब-उल-मुल्‍क ने आज के हैदराबाद के पश्चिम में 8 किलोमीटर दूर गोलकोंडा किले का निर्माण किया और तेलंगाना क्षेत्र के विद्रोह को दबा दिया. नतीज़तन मुग़लिया सल्‍तनत द्वारा उसे इस क्षेत्र का सूबेदार या प्रशासक बना दिया गया. मगर, 1518 तक वह बहमनी सल्‍तनत से स्‍वतंत्र हो गया और खुद को सुल्‍तान घोषित कर दिया और कुली कुतुब शाह के नाम पर कुतुब शाही सल्‍तनत की नींव रख दी. गोलकोंडा में पानी की बहुत कमी थी इसलिए 1589 में कुली कुतुब शाह के पोते मुहम्‍मद कुली कुतुब शाह ने अपनी राजधानी को गोलकोंडा से आज के हैदाराबाद स्‍थानांतरित करने का फैसला लिया. फिर 1591 में चार मीनार का निर्माण शुरू हुआ. 

कहते हैं कि चार मीनार दरअसल ख़ुदा का शुक्रिया अदा करने के लिए बनवाई गई थी. गोलकोंडा में पानी की कमी से हैजा फैल गया था और हजारों लोग मारे गए थे. इस दौरान मुहम्‍मद कुली कुतुब शाह हैदराबाद में एक जगह पर इस महामारी को रोकने के लिए रोज अल्‍लाह से प्रार्थना करता रहा और जल्‍दी ही अल्‍लाह ने उसकी प्रार्थना सुन भी ली. जिस जगह मुहम्‍मद कुली कुतुब शाह प्रार्थना करता था ठीक उसी जगह उसने ख़ुदा का शुक्रिया अदा करने के तौर पर इस मीनार का निर्माण करवाया. 

इस तरह चारमीनार हैदराबाद की पहली इमारत थी. कुछ ऐसा ही दिलचस्‍प किस्‍सा हैदराबाद शहर के नामकरण का भी है. माना जाता है कि हैदराबाद शहर का नाम मुहम्‍मद कुली कुतुब शाह और स्‍थानीय तेलगु वेश्‍या भागमती के इश्‍क से पैदा हुआ. हुआ यूं कि शाह ने भागमती के नाम पर शहर का नाम भाग्‍यनगर कर दिया. बाद में भागमती ने इस्‍लाम अपना लिया और अब उसका नाम हैदर महलहो गया. अब एक बार फिर शाह ने शहर का नाम बदलकर हैदराबादकर दिया. हालांकि इतिहासकारों में इस किस्‍से की सत्‍यता को लेकर मतभेद है.

चार मीनार
और जैसा कि इतिहास में हमेशा होता रहा है, कोई एक सल्‍तनत हमेशा के लिए नहीं होती. कुतुब शाही सल्‍तनत भी 1687 में मुगल बादशाह औरंगज़ेब द्वारा हैदराबाद पर कब्‍जा करने के साथ ही ख़त्‍म हो गई. औरंगजेब ने अपने अपने गवर्नर को इस इलाके का शासक नियुक्‍त कर दिया और उसे निज़ाम-उल-मुल्‍क का नाम दिया. मुग़लिया सल्‍तनत भी कौन सी हमेशा के लिए ताक़तवर रहने वाली थी. 1734 में कमज़ोर होती मुग़लिया सल्‍तनत से निज़ाम आसफ़ जाह ने आज़ादी हासिल कर ली. 

कहते हैं कि एक बार किसी शिकार अभियान पर निज़ाम को एक संत मिले जिन्‍होंने निज़ाम को कुलचे दिए और कहा कि जितने खा सकते हों खा लें. निज़ाम केवल 7 खा पाए. तब संत ने भविष्‍यवाणी की कि उसकी सल्‍तनत 7 पीढियों तक चलेगी. हुआ भी बिल्‍कुल ऐसा ही. निज़ाम की सात पीढियों ने हैदराबाद पर राज किया. संत की इसी बात के सम्‍मान में निज़ामों के झंडों में कुलचे देखे जा सकते हैं. फिर 1763 में मराठाओं से हारकर और मैसूर के शासक टीपू सुल्‍तान के डर से हैदराबाद ने अंग्रेजों के साथ संधी कर प्रिंसली स्‍टेट का दर्जा हासिल कर लिया. 

अब हुकूमत अंग्रेजों के अधीन थी. इस तरह आज तक शहर का नाम हैदराबाद चला आ रहा है. शहर को ग्रिड प्‍लान पर बसाया भी बड़े सलीक से गया था. इसीलिए फ्रेंच ट्रेवलर जीन-बैप्‍टाइज़ टैवर्निअर ने हैदराबाद की तुलना ओरलिअंस से की थी. और बाद में हैदराबाद के चार मीनार की तुलना पेरिस के आर्क डि ट्रायम्‍फ से की गई और इसे आर्क डि ट्रायम्‍फ ऑफ ईस्‍ट के नाम से भी जाना गया.

तो उस रोज मैं आर्क डि ट्रायम्‍फ ऑफ ईस्‍ट यानि कि चार मीनार के ठीक सामने खड़ा था. इस इमारत को देखने की ख्‍वाहिश बरसों से थी. जब भी इसका जि़क्र हुआ आस-पास के लोगों ने इस इलाके को भीड-भड़क्‍के वाला और चार मीनार को सिर्फ चार खंभों की इमारत कहकर इसे तवज्‍़जो नहीं दी. मगर मुझे ऐसी विरासतें हमेशा से अपनी ओर खींचती रही हैं क्‍योंकि वे एक लंबे इतिहास के जीते-जागते गवाह के रूप में हमारे शहरों के बीचों-बीच खड़ी हैं. 

चार मीनार हैदराबाद शहर के बीचों-बीच बनाई गई एक चौकोर इमारत है जिसकी हर साइड 20 मीटर है और बड़े मेहराब चार अलग-अलग रास्‍तों की ओर खुलते हैं. इसके चारों कौनों पर चार मीनारें हैं जो 56 मीटर उँची हैं जिनके ऊपर छोटे छोटे गुंबद हैं. इन मीनारों के भीतर ऊपर चढ़ने के लिए सीढि़यां हैं. इन दिनों पर्यटक केवल पहली मंजिल तक ही जा सकते हैं. बाहरी दीवारों पर सुंदर नक्‍काशी आकर्षित करती है. अन्‍य खास इस्‍लामी इमारतों से अलग इसकी मीनारें मुख्‍य ढ़ांचे के अंदर ही बनी हैं. मीनार मेंं 149 सीढियां हैं. ये इमारत भारतीय-इस्‍लामी वास्‍तुकला का अनुपम उदाहरण है जिस पर पर्शियन प्रभाव भी साफ-साफ देखा जा सकता है. जहां मेहराब और गुंबद इस्‍लामी प्रभाव को दर्शाते हैं वहीं मीनारें पर्शियन कला से प्रेरित हैं. छतों में फूलों की आकृतियां, झरोखे और बाहरी दीवारों पर हिंदू प्रभाव देखे जा सकते हैं.


तो साहब, सुबह के ठीक साढ़े सात बज चुके थे और चार-मीनार के आस-पास हलचल आहिस्‍ता-आहिस्‍ता बढ़ चली थी. हांलाकि अभी ज्‍यादा लोग यहां नहीं थे फिर भी अकेले चार मीनार को कैमरे में कैद करने के लिए बहुत जद्दोज़हद करनी पड़ रही थी. हमें पास ही पहली मंजिल पर एक दुकान तक जाती सीढि़यां नज़र पड़ीं. यहां से पूरा चार-मीनार कै़द किया जा सकता था. मग़र हवा में लटकती तारों का ताम-झाम यहां भी तस्‍वीर के मिजाज़ को बिगाड़ रहा था. 

इस वक्‍़त मैं अपने दो कैमरों के साथ- साथ @travelkarma के मिरर लैस सोनी कैमरे पर भी हाथ आजमा रहा था. अच्‍छा कैमरा है. गरमियों के दिनों में हैदराबाद का आसमान आग उगलता है मग़र सुबह के इस वक्‍़त में थोड़ी मासूमियत अभी भी बाकी थी. मैं अलग-अलग कैमरों से तस्‍वीरें लेता रहा. इसी दौरान चार मीनार के चारों ओर दुकानें जैसे नींद से जागने लगी थीं.

चार-मीनार से लगता हुआ लाड बाजार चूडियों पर नायाब कारीगरी के हजारों तरीकों के साथ ग्राहकों को लुभाता है. और दाम...बस वो मत पूछिए....जी करता है कि पूरा बाज़ार खरीद लें. 

एक चूड़़ी बेचने वाले बुजुर्ग ने अपनी ओर बुलाया तो उधर ही जा खड़ा हुआ. वो रंग-बिरंगी चूडियां मन मोह रही थीं सो आधा दर्जन खरीद लीं. हां, मोल-भाव यहां भी है तो साहब जितना दाम बताया जाए...मोलभाव के लिहाज़ से सीधा आधा कर दें और फिर बात पौने पर तय कर सौदा पक्‍का कर लें. चार-मीनार के आस-पास बरसातियों के नीचे आबाद होने वाली चूडि़यों की सैकड़ों अस्‍थाई दुकानें हैं जहां 75 रुपए से लेकर सौ-सवा सौ में हाथ के सुंदर कड़े और चूडि़यों के सैट मिल सकते हैं. इनमें थोड़ी और बेहतर क्‍वालिटी और सफाई का काम चाहिए तो लाड़-बाजार की दु‍कानों का जायजा लें. चूडियों से निपट लें तो लाड बाजार और मोती चौक के बीच परफ्यूम मार्केट से इत्र की एकाध शीशी लेना न भूलें. इस बाजार में कुछ दुकानें तो सैकड़ों साल पुरानी हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी यूं ही चली आ रही हैं.




तब तक कुछ और तस्‍वीरें चार-मीनार से... 


और हां, जाने से पहले बताते जाइएगा कि पोस्‍ट कैसी लगी :)  

चार मीनार के पास चूडियां  

अल सुबह बाज़ार बस खुलने से कुछ वक्‍़त पहले 

Morning at Char Minar
चलो शुरू करें जिंदगी का एक और दिन 
चलो जम गई दुकान...आपको क्‍या चाहिए साहिबान 

कुछ ऐसी खामोशी से उठता है शहर 

पहली मंजिल से गुंबद का भीतरी भाग

Beautiful Char Minar from Inside, चार मीनार अंदर से
गुंबद के भीतर छत में भारतीय वास्‍तुकला की छाप 

Beautiful Char Minar from Inside, चार मीनार अंदर से

Beautiful Char Minar from Inside, चार मीनार अंदर से
गुंबद का भीतरी भाग

पहली मंजिल की ओर ले जाने वाली सीढियां 


View of Makka Maszid from Char Minar
चार मीनार की पहली मंजिल से मक्‍का मस्जिद का विंहगम दृश्‍य

चलो चलें काम पर


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