तीर्थन वैली:
सफ़र एक सपनों की दुनिया का- भाग दो
दोस्तो, पिछली पोस्ट में आपने दिल्ली से तीर्थन वैली और फिर
जालोरी-पास तक के सफ़र की कहानी पढ़ी. जो पिछली पोस्ट नहीं पढ़ पाए वे पहले Tirthan Valley: A Hidden Paradise in Himachal पढ़ें
क्योंकि कहानी तो शुरू से सुनी जाती है. है ना?
तो आगे का किस्सा
ये है कि जालोरी पास पर स्नो-फॉल के उस जादुई मंजर को अपने दिल में कैद कर हमारा
काफिला वापिस एंगलर्स रिट्रीट की उसी छुपी-ढ़की दुनिया में लौट आया. हम एक बार फिर
इंटरनेट और मोबाइल सिग्नल के दायरों से बाहर और बहुत दूर थे. इंटरनेट से दूर रहने
की आदत नहीं थी सो पहले दिन बहुत अजीब लगा. हाथ बार-बार मोबाइल की स्क्रीन पर चला
जाता मगर स्क्रीन में ऊपर सिग्नल-बार को नदारद पाकर मायूस होकर लौट आता. बार-बार
लगता कि जैसे कोई मैसेज आया हो, किसी ने कुछ कहा हो या कुछ
देखने-पढ़ने लायक भेजा हो. पूरा एक दिन लगा इस बेचैनी को दूर करने में. मगर एक बार
जब ये बेचैनी दूर हो गई तो लगने लगा कि इंटरनेट की ये पुडि़या असल में है फालतू
ही. अब हम जिस दुनिया में थे वहां वास्तव में इस सबकी कोई जरूरत नहीं थी. हम आए
भी तो सुकून की तलाश में ही थे. कभी-कभी हमें इस बीमारी से दूर रहना भी चाहिए. सो
इस वक़्त मोबाइल केवल एक कैमरे का काम कर रहा था.
जालोरी और खनाग तक
की यात्रा में कुछ थकान भी हड्डियों में उतर आई थी. जिसे रिसॉर्ट की गर्म अदरक
वाली चाय ने हल्का कर दिया. इसके बाद शुरू हुआ रात में बोन-फायर का दौर जो देर
रात तक घुमक्कड़ों के किस्सों के साथ चलता रहा. ये रिसॉर्ट में हमारी आखिरी रात
थी और अगले दिन सुबह वापिस उसी आपाधापी भरी ‘सभ्यता’ की ओर लौटना था. यहां आते समय जिस गति से पांडे जी हमें लेकर आए उससे तय
था कि यदि सुबह आठ-नौ बजे निकले तो आधी रात में दिल्ली में प्रवेश करेंगे और फिर
रात 2-3 बजे के आस-पास दिल्ली में कहां भटकते? सो तय किया
कि प्रस्थान अब आराम से किया जाएगा. इससे कुछ और घंटे हमें तीर्थन में मिल गए.
मगर तीर्थन छोड़ने
से पहले इस यात्रा का एक अनूठा सोपान अभी बाकी था. एक शाम पहले चाय पर फ्रांस से
आई हुई पॉलिन कैस से मुलाक़ात हुई. पॉलिन फ्रांस में योगा की स्टूडेंट हैं और
यहां वर्कअवे साइट के जरिए आई हुई हैं. वर्कअवे दरअसल दुनिया भर के उत्साही लोगों
को दुनिया में किसी जगह जाकर अपना मनपसंद काम करने और बदले में वहां रहने और
खान-पान की मुफ्त व्यवस्था में होस्ट और वॉलंटियर के बीच मध्यस्थ की भूमिका
निभाती है. आपके पास कोई खास हुनर हो या आप कोई काम जानते हों तो इस साइट पर वॉलंटियर
करने के लिए रजिस्टर कर दीजिए फिर जिसे जरूरत होगी...आपको होस्ट कर देगा. आप
किसी ग़रीब देश में बच्चों को पढ़ा सकते हैं, कंस्ट्रक्शन
में मदद कर सकते हैं, किसी परिवार के साथ रह कर उनके बच्चों
को गिटार सिखा सकते हैं, कोई नई भाषा सिखा सकते हैं, किसी ऑफ-बीट लोकेशन पर किसी छोटे रिसॉर्ट या रेस्तरां में कुकिंग कर
सकते हैं, कुल मिलाकर आप जो कुछ जानते हैं उसकी कहीं न कहीं
दरकार जरूर होगी...इसी तरह पॉलिन यहां योगा सिखा रही थीं. ये एक तरह का सांस्कृतिक
आदान-प्रदान है. ये खेल समझ आया तो मैं सोचने लगा कि एक दिन मौका लगा तो जरूर कहीं
वर्कअवे के सहारे ही निकल पडूंगा. अंग्रेजी-हिन्दी दोनों पढ़ा सकता हूं, थोड़ी बहुत कैरियर काउंसलिंग भी कर सकता हूं, स्कूल-कॉलेज
में पब्लिक स्पीकिंग के कारगर गुर सिखा सकता हूं. खैर फिलहाल पॉलिन ने योगा सीखने
के लिए आमंत्रित किया तो झट से हां कह दी. योगा के लिए सुबह 7 बजे का वक़्त तय
किया गया. ये बात बाद में पता चली कि अल्का जी और पुनीत जी को इस व्यवस्था का पहले
से पता था मगर इसे सरप्राइज के तौर पर सीक्रेट रखा गया था.
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PC: दो घुमक्कड़ |
PC: Alka Kaushik |
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पॉलिन ध्यान की मुद्रा मेें तस्वीर: तीर्थन एंंगलर्स रिट्रीट |
अगले दिन सुबह ठीक 7
बजे मैं बाहर मैदान में था. आस-पास खामोशी और पलाचन के शोर के सिवाय कुछ नहीं था. जो
साथी रात को योगा का वायदा करके गए थे शायद अभी नींद के आगोश में थे. तभी पॉलिन को
पास के एक घर से साजो-सामान के साथ रिसॉर्ट की ओर आते देखा. इस वक़्त वैली मौसम
का एक और ही रंग दिखा रही थी.
जो इलाका पिछले दो दिन से बादलों और बारिश के खेल
में डूबा था आज वो सुनहरी धूप में चमक रहा था. सूर्यदेव पहाड़ी के ऊपर आसमान में पूरे
तेज के साथ मुस्कुरा रहे थे. इस वक़्त हवा की ताजगी को मापने का कोई पैमाना होता
तो शायद टूट ही जाता. पॉलिन अपने साथ नए योगा मैट्स लेकर आई थीं. योगा करने वालों
ने अपने कपड़ों से मैच करते कलर के मैट चुन लिए और शुरू हुआ सूर्य नमस्कार का एक
शानदार सत्र. मैं काफी दिनों बाद योगा कर रहा था सो भूली हुई चीजों को पकड़ने में
थोड़ी देर लगी. हर आसन के साथ एक बात समझ आ रही थी कि योगा एक दिन और काम हो गया
वाली चीज नहीं है. इसका असल लाभ तभी मिलता है जब इसे जीवन में नियमित रूप से किया
जाए. आज तो बस सीखना था...यहां से लौट कर कितना दोहरा पाऊंगा ये तो समय ही बताएगा.
आधा घंटे के बाद शरीर का पुर्जा-पुर्जा खुल गया और फेंफड़ों में खूब ताजा हवा
पहुंची तो इस योग का जादू समझ आया. विदेशी लोग हमारे योग के दीवाने होते जा रहे
हैं और देसी लोग घर की मुर्गी दाल बराबर समझ कर योग को भूल ही चुके हैं. अच्छी
बात है कि देश में अब धीरे-धीरे योग के प्रति जागरूकता बढ़ रही है.
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तस्वीर: दो घुमक्कड़ |
जाने से पहले रिसॉर्ट के मालिक दिलशेर से पूछ बैठा
कि दुनिया के इस कौने में इतनी शानदार मेहमान-नवाजी में किन चुनौतियों का सामना करना
पड़ता है? तो दिलशेर ने बताया कि कुछ दिक्क्तें तो आती हैं, मसलन हर चीज के लिए बंजार या गुशैणी के बाजारों पर निर्भर रहना पड़ता है.
कभी-कभी रास्ता खराब होने की वजह से किसी चीज की सप्लाई नहीं हो पाती तो दिक्कत
आती है. कभी-कभी गेस्ट किसी खास चीज की फरमाइश कर बैठते हैं जिसे पूरा करना संभव नहीं
होता है. दिलशेर मुस्कुराते हुए कहते हैं कि वे अपनी तरफ़ से गेस्ट को सरप्राइज़
करने की पूरी कोशिश करते हैं, हां, किसी
चीज का वायदा नहीं कर सकते. उनकी इस बात की गवाही पिछले दो दिनों का मेन्यू दे रहा
था जिसमें बेहद स्वादिष्ट मगर घर जैसा खाना तमाम विविधताओं के साथ परोसा गया था.
कुछ और समस्याएं दिलशेर के सामने आती हैं मगर उन्होंने उनका हल ढूंढ़ रखा है सिवाय
मौसम की अड़चनों के. दिलशेर का मेहमान बनना भी अपने आप में काफी-कुछ सीखने और समझने
का अवसर था. इंसान अगर जिंदादिल हो तो जंगल में भी मंगल कर सकता है. दिलशेर तीर्थन
में वही कर रहे हैं.
अब योग भी हो चुका था और तकरीबन 11.30 बजे तक वापसी के लिए
प्रस्थान भी. अब लगा कि यात्रा का किस्सा पूरा हो चुका है. अब सिर्फ वापसी ही
होगी. मगर ये यात्रा हर कदम पर चौंका रही थी. अभी हमें नागिनी गांव में हिमाचल का
प्रसिद्ध व्यंजन सिड्डू का भी जायका लेना था. हमारे ग्रुप में साथ चल रही मेधावी
यहीं एक होमस्टे में रहती हैं. दुनिया घूमने और एक शांत जिंदगी की खोज में वे
अपनी नौकरी और दीन-दुनिया को छोड़कर पिछले कई महीनों से यहीं आ बसी हैं. मेधावी ने
हिमालय में तमाम शानदार ट्रैक किए हैं और अब तक उनकी एमएच12 नंबर की कार इस इलाके
में उनकी पहचान बन चुकी है. सो होमस्टे की मालिक कविता जी ने हम सबके लिए सिड्डू
तैयार किए हुए थे. सिड्डू दरअसल मैदा से बनने वाली डिश है जिसमें पिसे हुए
ड्राई-फ्रूट और प्याज वगैरह से स्टफिंग की जाती है और इसे देसी घी और हरी चटनी
के साथ खाया जाता है. साथ में गर्म चाय के कप ने इसके स्वाद को और बढ़ा दिया था.
यहीं मुझे हाथ से बुने हुए खूबसूरत मोजे भी मिल गए. कुछ देर बिष्ट निवास से पास
में बहती तीर्थन के निहारने के बाद मेधावी को अलविदा कहकर हम अपनी मंजिल दिल्ली
की ओर लौट पड़े. किसी भी सफ़र से लौटते वक़्त हम असल में लौट ही कहां पाते हैं, हमारा मन जो पीछे रह जाता है. बस साथ चली आती हैं तो स्मृतियां...जो
बार-बार उस दुनिया की ओर फिर से उड़ चलने का न्यौता देती रहती हैं.
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तस्वीर: दो घुमक्कड़ |
अलविदा....फिर मिलेंगे किसी और सफ़र पर. यायावरी पढ़ने के लिए अपना वक़्त देने का बहुत शुक्रिया. एक बार फिर शुक्रिया TCBG का इस ख़ूबसूरत सफ़र के लिए.
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