यायावरी yayavaree

शुक्रवार, 31 मई 2019

केरल का नियाग्रा: अथिरापिल्‍ली वाटर फॉल | Niagra Fall of Kerala-Athirappilli Fall.



कुछ समय पहले आई फिल्‍म बाहुबली के वो झरनों के दिल को चुरा लेने वाले दृश्‍य तो हम सभी को याद होंगे. ऐसे ऊंचे और भव्‍य जल प्रपात देखकर एक बारगी लगा था कि या तो ये दृश्‍य किसी विदेशी लोकेशन पर फिल्‍माया गया है या फिर कंप्‍यूटर की कलाकारी है. लेकिन आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि ये बेहद खूबसूरत वाटर फॉल भारत में ही है. दरअसल फिल्‍म में दिखाए गए दृश्‍य केरल में त्रिचुर से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित चालाकुडी नदी पर मौजूद अथिरापिल्‍ली और वाझाचल वाटर फॉल के हैं जो केरल के सबसे बड़े वाटर फॉल में शुमार हैं. अपनी खूबसूरती और ऊंचाई के कारण ही अथिरापिल्‍ली को केरल का नियागरा भी कहा जाता है. ये जानना दिलचस्‍प था कि यहां केवल बाहुबली ही नहीं बल्कि दिल से और गुरू जैसी लोकप्रिय बॉलीवुड फिल्‍मों की भी शूटिंग हो चुकी है. फिल्‍म दिल से का जिया जले...जान जलेवाला मधुर गीत भी यहीं फिल्‍माया गया है. विख्‍यात तमिल फिल्‍म निर्देशक मणिरत्‍नम का तो इस जगह से खास लगाव रहा है इसलिए उनकी तमाम तमिल फिल्‍मों की शूटिंग यहां हुई है. उनकी फिल्‍म Raavanan की तो पूरी शूटिंग ही इसी जगह पर हुई है. ये जगह है ही नैसर्गिक सौंदर्य से भरी हुई.
कुछ दिनों पहले कोच्‍ची-त्रिचूर-मुन्‍नार की यात्रा के दौरान किसी काम के सिलसिल में त्रिचूर जाना हुआ तो वहां स्‍थानीय लोगों ने सुझाव दिया कि यहां तक आए हैं तो अथिरापिल्‍ली वाटर फॉल ज़रूर देखिए. उस वक्‍़त शाम के 3.15 हो चुके थे. पिछले दो दिनों से एक स्‍थानीय ड्राइवर सिंडो हम लोगों के साथ था. सो  सिंडो से बात की तो उसने कहा कि कि अब देर हो चुकी है और फॉल तक पहुंचना मुश्किल है क्‍योंकि ये फॉल एक वन क्षेत्र का हिस्‍सा है जिसकी एंट्री शाम 4.45 पर बंद हो जाती है. लेकिन फिर अचानक न जाने उसे क्‍या सूझी और बोला कि जल्‍दी से गाड़ी में बैठिए मैं पहुंचा सकता हूं आपको. बस फिर क्‍या था अगले डेढ़ घंटा हम सड़क के साथ रेस लगाते रहे. एक नज़र घड़ी पर थी तो दूसरी गूगल मैप पर. हमने हाइवे पर 100 की रफ़्तार से आगे बढ़ना शुरू किया और जल्‍द ही गूगल मैप के अंदाजे से आगे चल रहे थे. लगने लगा था कि समय से 20 मिनट पहले ही पहुंच जाएंगे. तभी सिंडो ने बताया कि गाड़ी में तेल खत्‍म होने वाला है इसलिए पहले तेल डलवाना होगा. हमने उस दोपहर लंच नहीं किया था. लेकिन फॉल तक पहुंचने के उत्‍साह में भूख के साथ समझौता कर लिया. लेकिन गाड़ी कहां ये समझौता करने वाली थी. रिज़र्व की लाइट लाल हो चुकी थी. थोड़ी देर में एक पेट्रोल पंप पर तेल डलवाया. उम्‍मीद थी कि ज्‍यादा से ज्‍यादा 5 मिनट में काम हो जाएगा. लेकिन यहां लगे कम से कम 12 मिनट. एक बार फिर रोड़ पर उतरे तो मैप और हमारे टारगेट में केवल 6 मिनट का अंतर चल था और मंजिल 35 किलोमीटर दूर थी. मतलब ये था कि ज़रा भी कहीं चूक हुई तो हमें उतनी दूर जाकर भी खाली हाथ लौटना पड़ेगा. एक बार लगा कि समय पर नहीं पहुंच पाएंगे तो काफी वक्‍़त बबार्द होगा. ड्राइवर से एक बार और अपने मन की शंका साझा की. मगर सिंडो निश्चिंत था. बोला कि सीट बेल्‍ट बांध लीजिए. यहां से सिंगल रोड़ शुरू हो गई थी और ट्रैफिक आमने-सामने और इधर गाड़ी 100 से ऊपर बात कर रही थी. सिंडो ज़रा सा चूका तो अपन विंडो से बाहर हो सकते थे. लेकिन बरसों की यात्राओं के अनुभव से महसूस हो रहा था कि सिंडो की स्‍टेयरिंग पर पकड़ जबरदस्‍त थी. बस सिंडो से इतना ही कहा कि रिस्‍क लेने की ज़रूरत नहीं है...फॉल छूटता है तो छूटे. सिंडो को हिंदी और अंग्रेजी दोनों कम समझ आती हैं और मुझे मलयालन नहीं आती. मगर काम चल रहा था. सिंडो ने बात को समझ कर मुस्‍कुराते हुए सिर्फ ओके और नो टेंशन कहा और मैं सांस थामें बगल में बैठा रहा. खैर, ठीक 4.43 मिनट पर हम फॉरेस्‍ट रिज़र्व के टिकट काउंटर पर थे.

अब हम 6 बजे तक वाटर फॉल का आनंद उठा सकते थे. प्रवेश द्वार से जो रास्‍ता फॉल की ओर जाता हैं वहां से सबसे पहले चालाकुडी नदी ही नज़र आती है. 145 किलोमीटर लंबी ये नदी पश्चिमी घाट में अनामुदी की पहाडियों से शुरू होती है और अरब सागर में जा कर मिलती है. थोड़ा और नीचे उतरने पर दाईं ओर इस 80 फुट उँचे वाटर फॉल का पहला दृश्‍य देखते ही दिल में उतर जाता है. एक रास्‍ता दाईं ओर से नीचे की ओर उतरता है जहां से इस झरने के ठीक नीचे तक जाया जा सकता है. लेकिन हम लोगों ने पहले बाईं ओर नदी की तरफ बढ़ना पसंद किया. थोड़ी देर नदी की धारा का आनंद ले लें फिर झरने की खूबसूरती देखी जाएगी. दरअसल नदी की ये धारा पहाड़ी के उस किनारे जहां से नदी 80 फुट की गहराई में छलांग लगाती है, वहां से झरने की 3 धाराओं में बंट जाती है. कुल 330 फुट चौड़ाई वाला ये झरना बरसात के दिन में झूम कर गिरता है और यहां से 1 किलोमीटर दूर तक नदी का वेग जैसे सब कुछ बहा ले जाने की क्षमता रखता हो. 
यही नहीं अथिरापिल्‍ली और वाझाचल इलाके में बहुत सी खास वनस्‍पतियां और जीव-जंतु भी पाए जाते हैं. पश्चिमी घाट में ये अकेला ऐसा स्‍थान है जहां 4 लुप्‍तप्राय हॉर्नबिल प्रजातियां पाई जाती हैं. अपनी ऐसी ही खूबियों के कारण पश्चिमी घाट दुनिया के सबसे महत्‍वपूर्ण बायोडायवर्सिटी हॉट-स्‍पॉट में से एक हैं.
स्त्रोत: होलिडिफाई डॉट कॉम 
यहां पाई जाने वाली पक्षियों की विभिन्‍न प्रजातियों के कारण इंटरनेशनल बर्ड एसोसिएशन ने इस इलाके को महत्‍वपूर्ण पक्षी क्षेत्रघोषित किया है. उधर वाइल्‍डलाइफ ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया ने माना है कि इस क्षेत्र में हाथियों के संरक्षण के लिए सबसे बेहतर प्रयास किए गए हैं. इस इलाके में त्रिचूर जिला पर्यटन संवर्द्धन परिषद के द्वारा चालाकुडी से मालाक्‍कपाड़ा तक हर रोज जंगल सफारी भी कराई जाती है. ये जंगह हमेशा हरे भरे रहते हैं इसलिए यहां की सफारी का अपना ही आनंद होगा. 
कैसे पहुंचे: अथिराप्पिल्‍ली वाटर फॉल त्रिचूर से 60 किलोमीटर और कोच्चि से 76 किलोमीटर दूर है. दोनों जगहों से यहां तक के लिए अच्‍छी बस सर्विस मौजूद है. कोच्चि में यहां से सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा मौजूद है. 

कुछ तस्वीरें और...





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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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गुरुवार, 2 मई 2019

The Nizam's Jewels: रिज़र्व बैंक के तहखानों में आज भी सुरक्षित है बेशकीमती आभूषणों की धरोहर


आज़ादी से पहले के राजाओं, रजवाड़ों और रियासतों वाले हिंदुस्‍तान में शाही परिवारों की शान-ओ-शौक़त के कि़स्‍सों को हम बरसों से सुनते-सुनाते आए हैं। उत्‍तर में अगर अवध के नवाबों की रईसी रश्‍क़ करने लायक थी तो दक्‍कन में हैदराबाद के निज़ाम भी पीछे नहीं थे। इस इलाके में 200 वर्षों से अधिक तक राज करने वाले निज़ामों ने अपने शासन काल में धीरे-धीरे तमाम हीरे-जवाहरातों और एक से एक नायाब आभूषणों को अपने निजी खजाने में शामिल किया। आज इस खजाने का बड़ा हिस्‍सा देश की विरासत की अमूल्‍य धरोहर के रूप में भारत सरकार के पास सुरक्षित रखा है। इन आभूषणों के जरिए हम दक्‍कन के 200 वर्षों के इतिहास और उस समय के निज़ाम शासन की संपन्‍नता को बेहद करीब से देख और समझ सकते हैं। गोलकुंडा और कोलार की खान से निकले बेशकीमती हीरों सहित दुनिया के सबसे बड़े हीरों में गिना जाने वाला जैकब हीरा, बसरा मोतियों का सतलड़ा हार, कोलंबियाई पन्‍ने, बर्मा के माणिक्‍य व रूबी, हीरे जडि़त हार समेत कुल 173 आभूषणों का यह संग्रह उस दौर की याद दिलाता है जब भारत को सोने की चिडि़या कहा जाता था। सरकार अगर समय पर इन आभूषणों को न खरीदती तो यह अनमोल धरोहर देश के बाहर चली जाती। कभी निज़ामों के परिवार की निजी संपत्ति रहे इन आभूषणों की रिज़र्व बैंक के तहखानों तक पहुंचने की कहानी भी बड़ी दिलचस्‍प है।
सरपेच या कलगी

आसफ़ जाही सल्‍तनत की सात पीढि़यों ने समृद्ध किया खजाना:
हम जानते हैं कि 18वीं शताब्‍दी में मुगल सत्‍ता के कमज़ोर पड़ने पर अनेक छोटी-छोटी ताकतें देश के तमाम हिस्‍सों में उभर कर सामने आने लगीं। दक्षिण में निज़ाम सबसे शक्तिशाली शासकों के रूप में उभरे जिन्‍होंने 200 से अधिक वर्षों तक दक्‍कन क्षेत्र पर शासन किया। इस वंश के संस्‍थापक कमरुद्दीन चिंक्‍लीज खां ने दक्‍कन के वाइसराय के रूप में कार्यभार संभाला और धीरे-धीरे दक्‍कन में आसफ़ जाह वंश की नींव रखी। दरअसल, सन 1713 में मुग़ल शासक फ़र्रुखसियर ने उसे निज़ाम-उल-मुल्‍क फ़तेहजंग की उपाधी दी और 1725 में मुग़ल शासक मुहम्‍मद शाह ने आसफ़ जाह की उपाधी से नवाज़ा। बस इसके बाद सभी आसफ़ जाही शासकों ने अपने नाम के साथ निज़ामकी उपाधी लगानी शुरू कर दी। निज़ामों का यह सफ़र सातवें आसफ़ जाह मीर उस्‍मान अली खां (1911-1948) तक बदस्‍तूर चलता रहा। दक्‍कन में राज करने वाले निज़ाम शासक मुग़ल जीवन शैली से भी प्रभावित थे। संपत्ति के महत्‍व और खजाने के मूल्‍य को आंकना उन्‍हें बहुत कम उम्र में ही आ गया था। निज़ामों के इस दौर में जहां हैदराबाद शहर ने खूब तरक्‍की की वहीं हर निज़ाम शासक ने अपनी निजी संपत्ति और शाही खजाने को समृद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन आभूषणों में गोलकुंडा की खान और देश की अन्‍य तमाम खानों से निकले कीमती हीरों, रत्‍न आदि के साथ-साथ तमाम छोटी रियासतों, जागीरदारों, राजाओं आदि से नज़राने के रूप में प्राप्‍त कीमती गहने भी शामिल हैं।

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आम जनता के लिए दुर्लभ ही रहे हैं शाही आभूषण:
भारतीय राजा-महाराजाओं के आभूषण आम जनता की नज़रों से आम-तौर पर दूर ही रहे हैं। इन आभूषणों को केवल राजपरिवार के लोग या दरबारी ही देख पाते थे। इसीलिए भारतीय राजपरिवारों के आभूषण उनके महलों के खजानों में ही बंद रहे। इन आभूषणों को खास राजकीय समारोहों के अवसर पर ही पहना जाता था और खास लोग ही इन्‍हें देख पाते थे। अधिकांश निज़ाम आभूषणों का प्राप्ति स्रोत अज्ञात ही है क्‍योंकि निज़ामों का निजी जीवन और उनकी गतिविधियां आमतौर पर गोपनीय ही रहती थीं। 18वीं से 20वीं सदी के बीच के ये आभूषण अपने उत्‍कृष्‍ट शिल्‍प-सौंदर्य, पुरातनता व दुर्लभ रत्‍नों के कारण विश्‍वविख्‍यात हैं।

ट्रस्‍ट बनाकर की गई खजाने को बचाने की कोशिश:
हैदराबाद के अंतिम निज़ाम मीर उस्‍मान अली का एक विशाल परिवार था और 1000 से ज्‍यादा नौकर-चाकर। उधर आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल होने लगी थी। सो अपने परिवार के आर्थिक भविष्‍य को सुरक्षित करने के लिए निज़ाम ने अपनी संपत्ति को कई न्‍यासों (ट्रस्‍टों) में बांट दिया। स्‍वतंत्रता के बाद सन 1951 में निज़ाम ने एच.ई.एच. द निज़ाम ज्‍वैलरी ट्रस्‍टऔर 1952 में एक अन्‍य न्‍यास एच.ई.एच. निज़ाम सप्लिमेंटल ज्‍वैलरी ट्रस्‍टकी स्‍थापना की। लेकिन इन न्‍यासों के लिए शर्त थी कि इस संपत्ति का विक्रय केवल उस्‍मान अली और उसके बड़े बेटे आज़म जाह की मृत्‍यु के उपरांत ही किया जा सकता है। सरकारी सूची के अनुसार इन दोनों ही न्‍यासों में आभूषणों की कुल संख्‍या 173 है। आभूषणों के इस नायाब संग्रह में पगड़ी के सजाने वाले सरपेच, कलगी, हार, बाजूबंद, झुमके, कंगन, कमर-पेटी, बटन, कफलिंक, पायजेब, घड़ी की चेन, अंगूठियां और बहुमूल्‍य हीरों और पत्‍थरों से जड़ी बैल्‍ट आदि खास तौर पर शामिल हैं। एक खास बात ये है कि इन आभूषणों में बाजूबंदों की प्रमुखता है क्‍योंकि ये शाही लिबास और आभूषणों का अनिवार्य अंग था। 
हीरों से जड़ा कमरबंद या बैल्‍ट

कुछ ऐसे पहनी जाती थी हीरों से जड़ी बैल्‍ट
अगर सरकार न खरीदती तो देश के बाहर चली जाती यह धरोहर:
1970 में निज़ाम द्वारा इन न्‍यासों को विघटित कर इन आभूषणों को बेचने से प्राप्‍त धनराशि को विभिन्‍न उत्‍तराधिकारियों में बांटने का निर्णय लिया गया। निज़ाम के उत्‍तराधिकारियों द्वारा तत्‍कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को एक विज्ञप्ति पत्र भेजा गया। इस पत्र में निवेदन किया गया था कि हैदराबाद के निज़ाम के आभूषणों को भारत सरकार द्वारा खरीदने का विचार किया जाये ताकि यह धरोहर भारत में ही रहे। निज़ामों के वंशज इस खजाने को 350 मिलियन डॉलर में बेचना चाहते थे। काफी दिनों तक जद्दोजहद चलती रही। अंतत: 1991 में न्‍यायाधीश ए. एन. सेन की अध्‍यक्षता में बनी समिति के निर्णय के आधार पर भारत सरकार ने निज़ाम परिवार से कुल 173 उत्‍कृष्‍ट आभूषणों को 2,17,81,89,128 रुपए (दो सौ सत्रह करोड़ इक्‍यासी लाख नवासी हज़ार एक सौ अठ्ठाईस रुपए) में खरीद लिया। इस ऐतिहासिक, बहुमूल्‍य और अनुपम धरोहर का अधिग्रहण भारत के लिए गर्व का विषय था। तभी से यह खजाना रिज़र्व बैंक के पास सुरक्षित रखा है और सरकार समय-समय पर जनता के लिए इसकी प्रदर्शनी लगाती है जिसे देखने में देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर के लोगों की दिलचस्‍पी रहती है।

मुग़ल, दक्‍कनी और यूरोपीय शैली का सम्मिश्रण हैं निज़ाम-आभूषण:


हीरोंं मेंं छेद कर हार बनाने का नायाब नमूना 
निज़ामो के इन आभूषणों में दक्‍कनी-शिल्‍प और मुग़ल कला का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है। निज़ामों के दरबारों पर दिल्‍ली के मुग़ल शासकों के भारी प्रभाव के बावजूद उनके विभिन्‍न आभूषणों में स्‍थानीय कला का स्‍पष्‍ट प्रभाव दिखाई देता है। लटकन युक्‍त हीरे-पन्‍ने के लम्‍बे हारों में उत्‍तर व दक्षिण भारतीय कला का मिश्रण नज़र आता है। हैदराबाद के आभूषणों में सामने की ओर जड़ाई और पीछे की ओर मीनाकारी खूब प्रचलित थी। इसी प्रकार मुग़ल कला शैली की पराकाष्‍ठा को दर्शाने वाले और खिले फूल के डिजाइन वाले हीरे जड़े बाजूबंद मैसूर नरेश टीपू सुल्‍तान के हैं जिन्‍हें आसफ़ जाह द्वितीय ने टीपू सुलतान से लूटे गए सामान में प्राप्‍त किया। निज़ाम शासक अंग्रेजों के मददगार रहे। शायद इसी वजह से 19 वीं शताब्‍दी में उनके कुछ आभूषणों पर यूरो‍पीय शिल्‍प और डिजाइनों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। प्रदर्शनी में गाइड के रूप में मेरी मदद कर रहींं अनीता जी मुझे बताती हैं कि यहां एक हार बेहद खास है जिसमें हीरों में छेद कर धागा पिरोया गया है। हीरे जैसी चीज में छेद करने की कला वाकई अद्भुत थी। इस प्रकार निज़ाम-आभूषण मुग़ल, दक्‍कनी और यूरोपीय कला शैलियों का अद्भुत मिश्रण हैं।
 इन आभूषणों की कहानी बताते हुए अनीता जी

सबसे दिलचस्‍प है दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा हीरा जैकब डायमंड:
जैकब डायमंड
निज़ामों के इन आभूषणों में सबसे खास है 19वीं शताब्‍दी के अंत में दक्षिण अफ्रीका की किंबर्ली खान से निकला जैकब डायमंड। इंपीरियल, ग्रेट वाइट और विक्‍टोरिया नाम से प्रसिद्ध हुए इस हीरे की दास्‍तान बेहद दिलचस्‍प है। तराशने से पहले इसका वजन 457.5 कैरट था और उस समय इसे विश्‍व के सबसे बड़े हीरों में से एक माना जाता था। बाद में हीरा चोरी हो गया और हॉलैंड की एक कंपनी को बेच दिया गया। फिर हॉलैंड की महारानी के सामने इस हीरे को तराशा गया और इसका वजन घटकर 184.5 कैरट रह गया। 1890 में एलेग्‍जेंडर मैल्‍कम जैकब नाम के हीरों के व्‍यापारी ने इस हीरे को हैदराबाद के छठे निज़ाम महबूब अली खां पाशा को 1,20,00,000 रुपए में बेचने की पेशकश की। निज़ाम केवल 46,00,000 रुपए देने को तैयार हुआ। इसके लिए 23,00,000 रुपए का एडवांस तय हुआ। लेकिन निज़ाम ने इसके लिए कोई लिखित करार नहीं किया। इसका मतलब था कि निज़ाम को हीरा पसंद न होने पर वह मना भी कर सकता था। हुआ भी कुछ ऐसा ही।लंदन से चले हीरे के भारत पहुंचने के बाद निज़ाम का मन बदल गया और अपनी 23,00,000 रुपए की अग्रिम राशि वापिस मांग ली। दरअसल, अंग्रेजी सरकार इस सौदे से नाखुश थी क्‍योंकि इसकी खरीद के लिए अदा की जाने वाली रकम राजकोष पर उधार चढ़ जाती। उधर जैकब ने अग्रिम राशि निज़ाम को लौटाने से मना कर दिया और निज़ाम ने जैकब के खिलाफ कलकत्‍ता न्‍यायालय में मुक़द्मा दायर कर दिया। काफी दिनों तक मामला चलता रहा। आखि़रकार तंग आ‍कर निज़ाम ने अदालत के बाहर समझौता कर जैकब से वह हीरा प्राप्‍त कर लिया। इसी जैकब के नाम पर इस हीरे का नाम जैकब डायमंड पड़ा था। लेकिन इतनी फ़ज़ीहत के बाद हासिल हुए हीरे में अब निज़ाम की दिलचस्‍पी ख़त्‍म हो चुकी थी। महबूब अली की मृत्‍यु के बाद उसके पुत्र अर्थात् सातवें निज़ाम मीर उस्‍मान अली खां को यह हीरा चौमहल्‍ला पैलेस में अपने पिता के जूतों के अंदर जुराब में पड़ा मिला। इस कीमती हीरे को सातवें निज़ाम ने भी इज्‍़ज़त नहीं बख्‍़शी और वह भी जीवन भर इसका इस्‍तेमाल एक पेपरवेट के रूप में करते रहे। इस हीरे का आज दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा हीरा माना जाता है। कहते हैं कि अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में इस हीरे की कीमत 400 करोड़ रुपए के आस-पास है और इन दिनों यह हीरा निज़ामों के तमाम अन्‍य आभूषणों के साथ रिज़र्व बैंक के तहखानों में महफूज़ है। 
पायजेब
चाक-चौबंद सुरक्षा में रखे हैं ये अनमोल आभूषण:
निज़ामों के ये आभूषण इन दिनों दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संग्रहालय की एक खास प्रदर्शनी में रखे गए हैं। निज़ामों के इन आभूषणों की प्रदर्शनी वर्ष 2001 और 2007 में नई दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संग्रहालय और हैदराबाद के सालारजंग संग्रहालय में लगाई गई थी। ये तीसरा मौका है जब दिल्‍ली के राष्‍ट्रीय संग्रहालय में भारतीय आभूषण: निज़ाम आभूषण संकलन नाम से यह प्रदर्शनी एक बार फिर लगाई गयी है। इन आभूषणों के महत्‍व को देखते हुए इन्‍हें जेड कैटेगरी की सुरक्षा में रखा गया है। जिसमें दर्जनों हथियारबंद जवान दिन रात प्रदर्शनी हॉल की सुरक्षा कर रहे हैं। प्रदर्शनी कक्ष को बैंक के स्‍ट्रॉंग रूम की तरह सुरक्षित बनाया गया है जिसमें 65 कैमरे लगातार इन आभूषणों पर नज़र रखे हुए हैं। यहां लगाए गए जैमर के कारण प्रदर्शनी में प्रवेश करते ही फोन का सिग्‍नल बंद हो जाता है। ये इंतज़ाम देखने के बाद मुझे 80 के दशक की बॉलीवुड फिल्‍मों में ज्‍वैलरी की प्रदर्शनियों से हीरों को चुराने वाले दृश्‍य याद हो आते हैं। लेकिन, यहां की मुकम्‍मल व्‍यवस्‍था के आगे म्‍युजियम से इन हीरों को चुरा पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। अभी ये प्रदर्शनी पांच दिन और जारी रहेगी इसलिए वक्‍़त हो तो इसे देख आइये क्‍योंकि फिर न जाने कितने बरसों बाद इन नायाब आभूषणों को देखने का अवसर मिले।

अपडेट: राष्ट्रीय संग्रहालय में यह प्रदर्शनी 31 मई, 2019 तक चलेगी और सुबह 10 से सांय 6 बजे तक आयोजित की गई थी।
टिकट: संग्रहालय की टिकट 20 रुपए
प्रदर्शनी टिकट: 50 रुपए

इस लेख का  संपादित संस्‍करण प्रतिष्ठित पोर्टल द बेटर इंडिया पर प्रकाशित हुआ है।


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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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शनिवार, 13 अप्रैल 2019

100 बरस बाद भी एक माफ़ी के इंतज़ार में है जलियांवाला बाग | Jalianwala Bagh.


कुछ घटनाएं देश की सामूहिक चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ जाती हैं. जलियांवाला बाग का नरसंहार भी एक ऐसी ही घटना थी जिसने न केवल पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया था बल्कि पूरी दुनिया के सामने ब्रिटिश हुकूमत के निकृष्‍टतम रूप को उजागर कर दिया था. समय का पहिया घूम कर 13 अप्रैल, 2019 को ठीक सौ साल बाद उसी जगह आ पहुंचा है जहां इस दर्दनाक घटना ने स्‍वतंत्रता संग्राम की दिशा और दशा दोनों को बदल कर रख दिया था. अमृतसर में अब तक बहुत कुछ बदल चुका है मगर जलियांवाला बाग (Jallianwala bagh) की दीवारों पर आज भी गोलियों के निशान बाकी हैं जो इतिहास की इस वीभत्‍स घटना की गवाही दे रहे हैं. मैंने आज से तकरीबन तीन साल पहले पहली बार जलियांवाला बाग को देखा और महसूस किया था. इत्‍तेफ़ाक से चंद रोज़ पहले एक बार फिर अमृतसर आना हुआ और मैं जलियांवाला बाग से लगती एक गली के होटल में ठहरा था. उस रोज़ भी अमृतसर में नींद जल्‍दी खुल गई तो सुबह की सैर के लिए मैं जलियांवाला बाग ही आ पहुंचा. बाग में घूमते हुए ही मुझे अचानक इस बात का ख्‍़याल आया कि इस 13 अप्रैल को इस घटना को ठीक 100 बरस हो जाएंगे. मैं अचानक से उस घटना को और करीब से महसूस करने लगा था.
Statue of Shaheed Udham Singh at Jallianwala Bagh
दरअसल जलियांवाला बाग की घटना को समझने के लिए हमें आज से 100 साल पहले उन दिनों अमृतसर और इसके आस-पास के इलाके में घट रही घटनाओं को समझना पड़ेगा. ये वो वक्‍़त था जब गांधी जी चंपारन, अहमदाबाद और खेड़ा में अपने सफल सत्‍याग्रह से उत्‍साहित थे और फरवरी, 1919 में उन्‍होंने अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रस्‍तावित रॉलेट एक्‍ट के खिलाफ देशव्‍यापी विरोध का आवाहन किया था. रॉलेट बिल वास्‍तव में आतंकवादी घटनाओं पर रोक लगाने की आड़ में भारतीयों की नागरिक स्‍वतंत्रता पर बंदिशें लगाने वाला कानून था और चुने हुए प्रतिनिधियों के विरोध के बावजूद जल्‍दबाज़ी में विधान परिषद में प्रस्‍तुत कर दिया गया था. पूरे देश को सरकार की ये हिमाक़त भारतीय जनता का अपमान लग रही थी और ये भी एक ऐसे वक्‍़त में जब विश्‍व युद्ध की समाप्ति के बाद यहां की जनता ब्रिटिश सरकार से कुछ संवैधानिक रिआयतों की उम्‍मीद कर रही थी. राजनेताओं के विरोध के संवैधानिक तौर-तरीके विफल हुए तो गांधी जी ने सत्‍याग्रह का प्रस्‍ताव रखा. इस प्रस्‍ताव का होम रूल लीग के लोगों ने समर्थन किया और गांधी जी के साथ आ गए. अब रातों रात होम रूल लीग के लोगों से संपर्क साधा जाने लगा और तय किया गया कि एक राष्‍ट्रव्‍यापी हड़ताल की जाएगी और उपवास और प्रार्थनाएं की जाएंगी. और ये भी तय किया गया कि कुछ खास कानूनों के विरोध में सविनय अवज्ञा भी की जाएगी. सत्‍याग्रह के लिए 6 अप्रैल का दिन तय किया गया मगर देश में इससे पहले ही आंदोलन छिड़ गया और जगह-जगह हिंसा भी होने लगी. पंजाब तो पहले ही अंग्रेजी जुल्‍मों का शिकार था. अमृतसर और लाहौर में विरोध बहुत तीखा हुआ जिसने ब्रिटिश सरकार को डरा दिया. गांधी जी ने खुद पंजाब जाकर इस आग को शांत करने की कोशिश की लेकिन सरकार ने गांधी जी को जबरन मुंबई भेज दिया. वहां पहले ही आग लगी थी सो उन्‍होंने वहीं रहकर लोगों को शांत करने का फैसला किया.

पंजाब के हालात लगातार बिगड़ रहे थे और अमृतसर में 10 अप्रैल को दो राष्‍ट्रीय नेताओं डाॅ. सत्‍यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के बाद टाउन हॉल और पोस्‍ट ऑफिस पर हमला किया गया, टेलीग्राफ की लाइनें काट दी गईं और कुछ यूरोपियन लोगों पर भी हमला हुआ. अब सरकार ने फौज़ को बुलाया और शहर की कमान जनरल डायर के हाथों में सौंप दी गई. कुछ इतिहासकार बताते हैं कि जनरल डायर ने शहर भर के लिए तकरीबन 21 आदेश जारी किए थे जिसमें एक जगह चार से ज्‍यादा लोगों का इकट्ठा न होना भी शामिल था लेकिन ये आदेश लोगों तक ठीक से नहीं पहुंचे. 13 अप्रैल को रविवार के दिन ही डायर ने किसी भी तरह की सभा के आयोजन को भी प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया लेकिन ये आदेश भी लोगों तक नहीं पहुंच सका. हर बार की तरह बैसाखी के दिन (13 अप्रैल) अमृतसर के आस-पास के इलाकों से लोग बैसाखी मनाने अमृतसर आ पहुंचे और अपने नेताओं की गिरफ्तारी के प्रति विरोध जताने के लिए जलियांवाला बाग में बुलाई गई एक शांतिपूर्ण सार्वजनिक सभा में शरीक़ होने लगे.
जलियांवाला तब. स्‍त्रोत: विकीपीडिया 

दीवारों पर लगे गोलियों के निशान
जलियांवाला बाग असल में एक 6 से 7 एकड़ का खुला मैदान था जिसके चारों तरफ तकरीबन 10 फुट ऊंची दीवारें थीं. इस बाग में प्रवेश के लिए चार-पांच रास्‍ते थे लेकिन ज्‍यादातर पर ताला लगा हुआ था. बीच में एक कुआं और एक समाधी. उस रोज़ अमृतसर में व्‍यापारियों का पशुओं की खरीद एक मेला भी लगा हुआ था जो दोपहर दो बजे तक खत्‍म हो गया. लोग रास्‍ते में जलियांवाला से होकर गुज़रने लगे. हजारों लोग पास ही हरमंदिर साहब से दर्शन करके लौटते हुए यहां आ पहुंचे. उधर जनरल डायर को लगा कि लोग उसके आदेश की जानबूझकर अवमानना कर रहे हैं. डायर ने बाग के ऊपर से हवाई जहाज भेज कर पता लगाया कि यहां तकरीबन 6,000 लोग जमा हो चुके हैं. बाद में हंटर कमीशन ने ये आंकड़ा 20,000 तक बताया था. बस फिर क्‍या था जनरल डायर ने 29वें गोरखा, 54सिख और 59सिंध राइफल्‍स के 303 ली एनफील्‍ड राइफलों वाले कुल 90 सिख, बलूची और राजपूत जवानों के साथ जलियांवाला बाग में प्रवेश किया और बाग में प्रवेश और निकलने के एक मात्र रास्‍ते को घेर कर निहत्‍थे लोगों पर पूरे दस मिनट तक गोलियां बरसाईं. जनरल ने लोगों को बाग खाली करने की कोई चेतावनी भी नहीं दी. बाद में खुद डायर ने अपने बयान में कुबूला था कि उसका मक़सद बाग को खाली करना नहीं बल्कि हिंदुस्‍तानियों को सबक सिखाना था. गोलियां तब तक चलती रहीं जब तक असलाह खत्‍म नहीं हो गया. लोग जिधर जान बचाने के लिए भागते उधर ही गोलियां बरसाई जातीं. बच्चों, बूढ़े और जवान सबकी लाशें बिछने लगीं. कुछ ही लोग दीवार फांद पाए. ऐसे ही कुछ लोगों ने बाद में वहां का मंज़र बयां किया. लोग जान बचाने के लिए कुंए में भी कूद गए. बाद में उस कुंए से 120 लाशें निकलीं. जो लोग गोलियों से जख्‍़मी हुए वे बाद में भी बाग से बाहर नहीं निकल सके. क्योंकि रात में पूरे शहर में करफ्यू लगा दिया गया था. शहर का पानी और लाइट काट दिए गए. सरकार ने एलान कर दिया था कि जो लोग बाग़ में थे उन्होंने सरकार से गद्दारी की है. अब लोग कैसे बताते कि उनका कौन सगा-सम्बन्धी बाग में मर रहा है. उधर लोगों को बाग में जाने की मनाही थी सो घायलों को भी बाहर नहीं निकाला जा सका. इससे मरने वालों की संख्या में और इज़ाफ़ा हुआ. लोग मरते रहे और बेरहम डायर तमाशा देखता रहा. बताया जाता है कि डायर मशीनगन जैसे हथियारों से लैस दो मोटर गाडियां भी साथ लाया था जो बाग के संकरे रास्‍ते के कारण अंदर नहीं पहुंच सकीं. खुद जनरल डायर के बयान के मुताबिक उस रोज़ जलियांवाला में 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं. उस समय की ब्रिटिश सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार कुल 379 लोग मारे गए और लगभग 1100 लोग जख्‍़मी हुए जबकि इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मरने वालों की संख्‍या लगभग 1,000 और जख्मियों की संख्‍या 1500 बताई थी. इस नृशंसता ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था और उधर लंदन में हाउस ऑफ लॉर्ड्स से शुरूआत में जनरल डायर को मिली तारीफ़ ने आग में घी का काम किया और इस आक्रोश की परिणति 1920-22 के असहयोग आंदोलन में हुई.
जहां से लोगों पर गोलियां चलाई गईं  

लेकिन जुलाई, 1920 में हाउस ऑफ कॉमन्‍स ने जनरल डायर की निंदा की और उसे जबरन सेवानिवृत कराया गया. रबिंद्रनाथ टैगोर इस हत्‍याकांड से इतने व्‍यथित हुए कि उन्‍होंने अपनी नाइटहुड की उपाधी लौटाते हुए लिखा कि "such mass murderers aren't worthy of giving any title to anyone". इस हत्‍याकांड के तीन महीने बाद जुलाई, 1919 में अधिकारियों ने मरने वाले लोगों की ठीक पहचान के लिए स्‍थानीय लोगों की मदद मांगी. लेकिन इन हालातों में कौन सच बताता. ऐसे में मरने वालों के संबंधियों की पहचान जाहिर होने का खतरा था. उधर पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ने जनरल डायर की करतूत का समर्थन किया और शाबासी दी.

इस घटना के बाद भारतीयों ने अपने-अपने तरीकों से ब्रिटिश सरकार को चोट पहुंचानी शुरू कर दी. ब्रिटिश सरकार के तमाम चहेतों ने सरकार से अपना नाता तोड़ लिया और दूसरी तरफ क्रांतिकारी इस हत्‍याकांड का बदला लेने की योजना बनाने लगे. इस हत्‍याकांड के गवाह और इस घटना में खुद जख्‍़मी होने वाले सुनाम के रहने वाले उधम सिंह के दिल में ये आग बरसों धधकती रही. जनरल डायर की 1927 में मृत्‍यु हो चुकी थी. उधम सिंह का मानना था कि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे पंजाब का तत्‍कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ही है. सो उधम सिंह मौके की तलाश करते रहे और अपने इरादे को अमलीजामा पहनाने के लिए लंदन तक जा पहुंचे. आखिरकार, 13 मार्च, 1940 को ऊधम सिंह ने लंदन के कैक्‍सटन हॉल में गोली मार कर माइकल ओ डायर की हत्‍या कर दी. इस घटना के बाद का घटनाक्रम भी बड़ा दिलचस्‍प था. दुनिया भर के अखबारों ने इस घटना को छापा और ऊधम सिंह के कृत्‍य को उचित ठहराया. ऊधम सिंह को 31 जुलाई, 1940 को फांसी दे दी गई. उस समय पंडित नेहरू और गांधी जी ने इस हत्‍याकांड की निंदा की. लेकिन बाद में 1952 में पंडित जवाहर लाल नेहरू (तत्‍कालीन प्रधानमंत्री) ने ऊधम सिंह को शहीद का दर्जा दिया और कहा,
‘I salute Shaheed-i-Azam Udham Singh with reverence who had kissed the noose so that we may be free’

आज इस घटना को 100 वर्ष बीत गए हैं लेकिन हिंदुस्‍तान की जनता के दिलों में ये ज़ख्म आज भी ताज़ा है. जिन परिवारों के लोग इस घटना में शहीद हो गए वो कैसे इसे भुला सकते हैं. अबकी अमृतसर यात्रा में मैंने जलियांवाला बाग में एक परिवर्तन देखा था. बाग के मुख्‍य द्वार के नज़दीक जिस दीवार पर जलियांवाला बाग लिखा होता था वहां अब शहीद उधम सिंह की प्रतिमा भी लगाई गई है. शहीद उधम सिंह के बिना जलियांवाला का इतिहास अधूरा ही था. उधर इस घटना के बाद से लगातार ये मांग उठती रही है कि ब्रिटिश सरकार इस घटना के लिए आधिकारिक रूप से माफ़ी मांगे. लेकिन ऐसा आज तक नहीं हुआ है. हांलाकि 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा था,

"A deeply shameful event in British history, one that Winston Churchill rightly described at that time as monstrous. We must never forget what happened here and we must ensure that the UK stands up for the right of peaceful protests”

लेकिन माफी शब्‍द यहां भी नहीं था. इस हत्‍याकांड के 100वें वर्ष में ये घटना एक बार फिर हमारे जख्‍मों को कुरेद रही है और दुनिया भर से लंदन पर इस घटना के लिए माफी मांगने का दबाव बनाया जा रहा है,  लेकिन ब्रिटिश सरकार शायद अभी तक इस घटना के लिए अपने दोष को स्‍वीकार नहीं करना चाहती. वर्तमान ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे का ताज़ा बयान आ चुका है,
“The tragedy of Jallianwala Bagh in 1919 is a shameful scar on British Indian history. As her majesty the Queen said before visiting Jallianwala Bagh in 1997, it is a distressing example of our past history with India”

इस बयान पर सिर्फ अफसोस किया जा सकता है. ब्रिटेन की माफी से इतिहास तो नहीं बदल जाएगा. लेकिन इतना ज़़रूर है कि हमारे जख्‍़म कुछ हद तक भर जाएंगे. जन अधिकारों और लोकतंत्र की दुहाई देने वाली ब्रिटेन की सरकार को जलियांवाला हत्‍याकांड के सौ वें वर्ष में आधिकारिक रूप से माफी मांगने का ये अवसर नहीं गंवाना चाहिए. 







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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

जोश और जुनून से लबरेज़ है अटारी-वाघा बॉर्डर की रिट्रीट सेरेमनी | Retreat Ceremony at Wagah-Atari Border.


अमृतसर के नज़दीक अटारी-वाघा बॉर्डर की रिट्रीट सेरेमनी को देखना हिंदुस्‍तान के कुछ चुनिंदा और अनूठे अनुभवों में से एक है. दुनिया में शायद ही किन्‍हीं और दो देशों की सरहद पर इस तरह के जोश और जुनून से लबरेज़ रिट्रीट कार्यक्रम होता होगा जहां न केवल सीमा पर तैनात फौजी अपने-अपने अंदाज़ में सीमा पार खड़े दूसरे देश के फौजियों को अपनी भाव-भंगिमाओं से चेतावनी देते नज़र आते हैं बल्कि दोनों तरफ़ दो देशों के लोग अपने नारों की बुलंद आवाजों से ही एक दूसरे को हराने की कोशिश करते हों. जब हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान के रिश्‍ते आम-तौर पर तनाव से ही गुज़रते रहते हों, ऐसे में अटारी जैसी सरहद की फि़ज़ा में बिगड़ते रिश्‍तों की तपिश आसानी से महसूस की जा सकती है. यूं तो भारत की कुल 3323 किलोमीटर की सीमा पाकिस्‍तान से लगती है मगर लोग इस बार्डर को सड़क मार्ग से सिर्फ अटारी-वाघा बार्डर से ही पार कर सकते हैं. कुछ ही दिनों पहले इसी बार्डर से विंग कमांडर अभिनंदन की वतन वापसी के वक्‍़त की तस्‍वीरें हम सबके जेहन में ताज़ा होंगी. पिछले सप्‍ताह की अपनी अमृतसर यात्रा के दौरान मैंने इस सेरेमनी का एक बार फिर आनंद लिया. मैं तीन साल पहले जून, 2016 में पहली बार यहां आया था. लेकिन जितनी बार देखो, हर बार नया ही अनुभव होगा और मेरा मानना है कि हर हिंदुस्‍तानी को अपने जीवन में एक बार यहां ज़रूर आना चाहिए. वो समां कुछ और ही होता है जब रगों में दौड़ता खून उबाल मारने लगता है और  पाकिस्‍तान की आंख में आंख डालकर भारत माता की जय और हिंदुस्‍तान जिंदाबाद के नारे दिल की गहराइयों से निकलते हैं. सीमा पर रिट्रीट सेरेमनी का ये सिलसिला भारत की बॉर्डर स्क्यिोरिटी फोर्स (बीएसएफ) और पाकिस्‍तान की पाकिस्‍तान रेंजर्सके द्वारा 1959 से हर दिन यूं ही चला आ रहा है. ये दो मुल्‍कों की आपसी रंजिश के साथ-साथ भाईचारे और आपसी सहयोग का भी प्रतीक है. कुछ इसी तरह की परेड़ का आयोजन फ़ाजिल्‍का के नज़दीक सादिकी बॉर्डर और फिरोजपुर में हुसैनीवाला बार्डर पर भी होता है.

ये तो मुल्‍क के बंटवारे ने लोगों को बांट दिया वरना हमारे लिए तो लाहौर भी वैसा ही प्‍यारा शहर था जैसे अमृतसर. आज़ादी तक तो इन दोनों शहरों का नाम भी एक साथ लिया जाता था जैसे अपने चंडीगढ़-मोहाली हैं वैसे ही लाहौर-अमृतसर के ट्विन सिटी हुआ करते थे. सब वक्‍़त की बात है, जमीन पर एक लकीर क्‍या खिंची, सब अलग हो गया. साझा इतिहास और विरासत वाले लोग एक दूसरे के खून के प्‍यासे हो गए. बंटवारे के दर्द की दास्‍तां जितनी कही जाए कम है.

Pic Courtesy: Scoopwhoop 
खैर, सीमा के इस तरफ पूरा कार्यक्रम तयशुदा तरीके से चलता है जिसमें भीड़ में गर्मजोशी पैदा करने वाले देशभक्ति के गीत, सड़क पर तिरंगा लेकर दौड़ती हिंदुस्‍तानी युवतियां, बीएसएफ के आमंत्रण पर सड़क पर आकर देशभक्ति के गीतों पर नाचने और झूमने उतरी महिलाओं का सैलाब, बीएसएफ के फौजियों की परेड़, बीएसएफ के फौजियों का अपनी मूंछों को ताव देना, पाकिस्‍तानी रेंजरों की आंखों में घूरना, सिर की उँचाई तक किक मारना और हिंदुस्‍तान जिंदाबाद के नारे...सब कुछ जैसे धीरे-धीरे खून की गरमी बढ़ाता है. बड़े तैश में दोनों और के फौजी बार्डर के उसे गेट को खोलते हैं, बूटों की धमक जैसे बताती है कि कौन कितने जोश में है, पहले आंखों में आंखे डाली जाती हैं, फिर हाथ मिलते हैं और फिर ढ़लते सूरज के साये में दोनों ओर की सेनाएं अपने-अपने ध्‍वज का सम्‍मान करने के लिए ध्‍वज को उतारती हैं. बीएसएफ के उस जवान की भी दाद देनी पड़ेगी जो एक तरह से हज़ारों की इस भीड़ की भावनाओं को कोरियोग्राफ करता है. आप ताली बजाने या नारा लगाने में ज़रा सा ढ़ीला पड़े नहीं कि उसकी नज़र आपको पकड़ लेगी. ये जवान लगातार जोश बढ़ाने की कोशिश में नज़र आता है और धीरे-धीरे दर्शकों का जोश बढ़ता जाता है, मुठ्ठियां भिंचने लगती हैं, सांसें गरम होने लगती हैं और वतन के लिए जज्‍़बात चरम पर होते हैं...एक साथ हज़ारों लोग जब जय हिंद का नारा लगाते हैं तो हवा तक कांपती है. 


इस बार सीमा पर इस आयोजन की सूरत बदली-बदली नज़र आ रही थी. मैं जब पिछली बार यहां आया था तो दर्शक दीर्घा में काफी बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य चल रहा था. इस बार तो यहां 50,000 की क्षमता वाला एक छोटा सा स्‍टेडियम जैसा पैवेलियन तैयार हो चुका है. दरअसल पिछले कुछ वर्षों में इस सेरेमनी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती रही है सो पहले के इंतज़ाम नाकाफी साबित हो रहे थे. दिलचस्‍प बात ये है कि सीमा-रेखा के उस पार पाकिस्‍तान की दर्शक-दीर्घा बहुत छोटी है और वो भी पूरी भरी नहीं होती. पता नहीं ये बात कितनी सही है कि पाकिस्‍तान में रेंजर्स ने आस-पास के गांव वालों को इस आयोजन में नियम से हाजि़र होने का हुक्‍म सुनाया हुआ है. खैर, जो भी हो, बॉर्डर के इस आयोजन में दोनों मुल्‍कों के समाज के खुलेपन और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अंतर की हल्‍की सी झलक देखने को मिलती है. सीमा के इस तरफ जहां महिलाएं सड़क पर आकर देशभक्ति के गीतों पर जी भर कर झूमती और गाती नज़र आती हैं वहीं पाकिस्‍तान की ओर की दर्शक दीर्घा में पसरी सुस्‍ती साफ़ नज़र आती है. ले दे कर दो चार ढ़ोल वाले ढ़ोल पीटते नज़र आते हैं. उस तरफ़ के उत्‍सव में महिलाएं जैसे शामिल ही नहीं हैं. उधर का हाल देखकर इधर की महिलाएं अपने आजाद ख्‍़याल मुल्‍क पर इतराती नज़र आती हैं.


हालात तो इस बार पूरे बॉर्डर के ही बदले-बदले नज़र आते हैं. अटारी का रेलवे स्‍टेशन सुनसान पड़ा है और इंटीग्रेटेड चेक पोस्‍ट भी वीरान नज़र आती है. हमारी गाड़ी का ड्राइवर अटारी गांव का ही रहने वाला है. वो कहता है कि साहब, जब से सरकार ने पाकिस्‍तान के साथ कारोबार पर पाबंदियां या सख्तियां की हैं इधर का माल इधर और उधर का माल उधर है. और सबसे ज्‍यादा बुरी हालत पाकिस्‍तान के कारोबारियों की है. वहां बॉर्डर के उस तरह हजारों ट्रक सामान ट्रकों में लदा पड़ा है. मार इधर भी पड़ी है मगर देश के लिए इतना तो जरूरी ही था.  

बॉर्डर के इस अद्भुत आयोजन में कोई भी आम आदमी बिना किसी टिकट के शामिल हो सकता है. ये कार्यक्रम गर्मियों में 5.30 बजे शुरू होता है और पैवेलियन का गेट 3 बजे खोल दिया जाता है. इसलिए लोग आगे की पंक्तियों में बैठने के लिए 3 बजे से जाकर अपनी जगह ले लेते हैं. हां, बीएसएफ या भारतीय सीमा शुल्‍क के विशेष अतिथियों के लिए यहां विशेष व्‍यवस्‍था है जिसमें यदि आपका नाम पहले से बीएसएफ अधिकारियों के पास दर्ज है तो आपके वाहन को वीआईपी पार्किंग तक आने दिया जाएगा अन्‍यथा आयोजन स्‍थल से तकरीबन एक किलोमीटर दूर ही वाहर छोड़ने होंगे. वीआईपी अतिथियों के लिए बॉर्डर के बिल्‍कुल नज़दीक कुर्सियों की व्‍यवस्‍था है जहां से पूरी सेरेमनी बहुत नज़दीक से और इत्‍मीनान से देख पाते हैं. कैमरा, मोबाइल, पानी की बोतल के अलावा आयोजन स्‍थल पर कुछ न लेकर जाएं. वहां अंदर भी पानी, कोल्‍ड ड्रिंक्‍स और चिप्‍स आपकी सीट पर आप प्रिंट रेट पर खरीद सकते हैं.

समय: 5.30 से 6.30 बजे (गरमियों में) 5.00 से 6.00 बजे (सर्दियों में)

प्रवेश शुल्‍क: नि:शुल्‍क

कैसे पहुंचें: अटारी बॉर्डर अमृतसर से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर है. यदि परिवार साथ हो तो अमृससर से टैक्‍सी लेना ही बेहतर है. अन्‍यथा गोल्‍डन टेंपल, जलियांवाला बाग़ और घोड़े वाले चौक के पास से ऑटो भी यहां तक आते हैं जो प्रति सवारी 50 से 60 रुपया लेते हैं.







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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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