यायावरी yayavaree

शनिवार, 11 जुलाई 2020

रौशनियों और ख़्वाहिशों का उत्‍सव है तानाबाता (Tanabata Festival) : जापान की पहली चिट्ठी

रौशनियों और ख़्वाहिशों का उत्‍सव है तानाबाता (Tanabata Festival)


भारत और जापान के रिश्‍ते हमेशा से गहरी मित्रता वाले रहे हैं और भारत और जापान के लोगों के बीच सदियों से सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान होता आया है. इसकी एक खास वज़ह बौद्ध धर्म भी है जो चीन और कोरिया के रास्‍ते जापान तक पहुंचा. बौद्ध धर्म की इस अनूठी विरासत के साथ-साथ इन दोनों देशों के बीच साझी सांस्‍कृतिक प‍रंपराएं हैं और ये दोनों देश लोकतंत्र, सहिष्‍णुता, बहुलवाद और स्‍वतंत्र समाज के आदर्शों में अटूट आस्‍था रखते हैं.

एशिया के ये दो सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतंत्रात्‍मक देश आज सबसे बड़े आर्थिक और रणनीतिक भागीदार बनकर उभर रहे हैं और वैश्विक और क्षेत्रीय चुनौतियों का मिलकर सामना कर रहे हैं. बेशक हिंदू धर्म की मौजूदगी जापान में ज्‍यादा नहीं है लेकिन जापानी संस्‍कृति के विकास में इसकी अहम भूमिका है. इसका कारण बौद्ध धर्म के विश्‍वास और परंपराएं हैं जिनका मूल स्‍त्रोत हिंदू धर्म में ही है. 

शायद यही वजह है कि हमारे बहुत से हिंदू देवी-देवताओं के जापानी अवतार हमें जापान में देखने को मिलते हैं, दोनों देशों के लोक-साहित्‍य में बहुत सी समानताएं बेवजह नहीं हैं. भारत और जापान के बीच सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान तो छठी शताब्‍दी में भारतीय बौद्ध सन्‍यासी बोधिसत्‍व के जापान पहुंचने से ही शुरू हो चुका था. वे 736 ई. में जापान पहुंचे और 760 र्ई. तक जापान में रहे. बोधिसत्‍व का जापानी संस्‍कृति पर जो गहरा प्रभाव पड़ा उसे आज भी महसूस किया जा सकता है. भारत के स्‍वतंत्रता संग्राम के दौरान आज़ाद हिंद फौज़ के गठन से लेकर आज भारत की आज़ादी के 70 वर्षों बाद भी हमारा यह मित्र देश हमेशा हमारे साथ खड़ा रहता है. कुल मिलाकर भारत और जापान के बीच संबंधों और संपर्कों के सैकड़ों कारण हैंं. 


Tanabata in Japan
विकास की राह पर आज का जापान

जापान के प्रधानमंत्री श्री शिंजो आबे और
भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी
(तस्‍वीर: विकीमीडिया कॉमन्‍स)
हाल के समय में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और श्री शिंजो आबे के दौर में भी भारत और जापान संबंध निरंतर प्रगाढ़ हो रहे हैं. ये मजबूत संबंधों की एक नई इबारत है. लेकिन इस सबके बावजूद, ये एक दिलचस्‍प बात है कि एक आम भारतीय जितना अमेरिका, चीन और रूस के विषय में सामान्‍य जानकारी रखता है उतना जापान के बारे में नहीं. 

ब्‍लॉगिंग की दुनिया में भी अंग्रेजी भाषा में फिर भी थोड़ा-बहुत लिखा-पढ़ा जा रहा है मगर हिंदी भाषा में जापान से परिचय कराने वाली सामग्री बहुत कम नज़र आती है. हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों के लिए इसी अभाव को थोड़ा कम करने की एक नई कोशिश जापान की चिठ्ठी के ज़रिए की जा रही है. ब्‍लॉगर मित्र रुचिरा शुक्‍ला जी जापान से पिछले 10 से अधिक वर्षों से जुड़ी हुई हैं और इस लंबे अरसे में उन्‍होंने जापान को बखूबी देखा और समझा है. वे पिछले काफी वक्‍़त से जापान में रह रही हैं और नियमित रूप से जापान पर लिख रही हैं. उन्‍होंने जापान के किस्‍से-कहानियों को हमसे साझा करने की सहर्ष सहमति दी है. 

वे समय-समय पर जापान से चिठ्ठियां भेजती रहेंगी जिसे मैं हिंदी में अनुवाद कर आप सभी के साथ साझा करता रहूंगा. इन चिठ्ठियों में जापान की संस्‍कृति के विभिन्‍न पहलुओं, वहां के उत्‍सवों, खान-पान, सामाजिक हलचलों, जापान के इतिहास की झलक देखने को मिलती रहेगी. अनुवाद के माध्‍यम से ये प्रयास न केवल हिंदीभाषी पाठकों को जापान के थोड़ा और क़रीब लेकर आएगा बल्कि हम सभी को जापान की संस्‍कृति को जानने और समझने में मदद भी करेगा, ऐसा हम दोनों का विश्‍वास है.


आज उनकी पहली चिठ्ठी जापान की एक लोककथा और इसी लोककथा से जुड़े एक अनूठे उत्‍सव तानाबाता पर केंद्रित है. आइये शुरू करते हैं जापान की यात्रा...
tanabata in Japan, tanabata in Zojoji temple
ज़़ाेेजोजी मंदिर में सादगी के साथ तानाबाता (तस्‍वीर: रुचिरा शुक्‍ला)


तानाबाता और ओरिहिमे की लोककथा

यहां आसमान के राजा की बेटी ओरिहिमेे (The Weaver Star) की एक अद्भुत लोक कथा प्रचलित है. ओरिहिमेे आमा-नो-गावा (स्‍वर्ग की नदी) के किनारे बैठकर गाती थी और एक खूबसूरत कपड़ा बुनती थी. इस नदी को हम लोग आकाशगंगा के नाम से जानते हैं. ओरिहिमेे के गीत उदासी से भरे थे क्‍योंकि इन्‍हें साझा करने के लिए उसकी जिंदगी में कोई नहीं था. 

एक दिन उसे हिकोबोशी (Cow herder Star) नाम का एक जवान ग्‍वाला नज़र आया और धीरे-धीरे उन्‍हें एक दूसरे से गहरा प्‍यार हो गया. वे अपना सारा वक्‍़त आकाश गंगा में घूमते हुए बिताते और धीरे-धीरे ओरिहिमेे ने अपनी बुनाई के काम को नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया और हिकोबोशी ने भी अपनी गायों को खूब दूर तक चरने जाने दिया. अपने काम में लापरवाही बरतने से नाराज़ राजा ने उन दोनों को नदी के दोनों सिरों पर रहने की सज़ा सुनाई. 

Tanabata in Japan
आकाश गंगा में एक दूसरे से मिलते 
ओरिहिमेे और हिकोबाशी
PC: nippon.com

अब वे साल में केवल एक ही दिन मिल सकते थे. सातवें महीने के सातवें दिन. इसलिए जापान में हर साल 7 जुलाई को तानाबाता उत्‍सव (Star Festival) मनाया जाता है. असल में यह उत्‍सव चीन से जापान में आया है और यह चीनी लूनर कैलेंडर पर आधारित है. यूं तो पूरे जापान में ये उत्‍सव मनाया जाता है मगर मियागी प्रीफेक्‍चर का सेन्‍दाई शहर ऐसे आयोजनों के लिए लोकप्रिय हो चुका है.


इस दिन जापान में बड़े पैमाने पर रंगीन झंडियों और कागजों की लालटेनों से रौशनियां की जाती हैं. लोग रंगीन कागज की पट्टियों (Tanzaku) पर अपनी इच्‍छाओं को लिखते हैं और उन्‍हें पत्‍तेदार बांस की शाखाओं (Bamboo Stalks) पर टांग देते हैं. टोकियो में ज़ोजोजी मंदिर के पूरे परिसर में हर तरफ मौमबत्तियां नज़र आती हैं जो एक तरह से आकाश गंगा का आभास देती हैं. इस दृश्‍य की पृष्‍ठभूमि में मंदिर और टोकियो टावर चमकता हुआ नज़र आता है और हज़ारों मौमबत्तियां एक साथ टिमटिमाती नज़र आती हैं. ये एक मंत्रमुग्‍ध कर देने वाला दृश्‍य होता है. 

कोविड के कारण, इस साल सभी उत्‍सव रद्द कर दिए गए थे. फिर भी, मं‍दिर की ओर से बांस की कुछ शाखाएं रखी गई थीं ताकि लोग उन पर अपनी इच्‍छाएं टांक सकें. मैं वहां तक गई और मैंने भी ठीक ऐसा ही किया. ये एक उदास माहौल में डूबा हुआ तानाबाता था जिसमें कोई जगमगाहट नहीं, कोई सजावट नहीं और उस वक्‍़त मैंने दिल से यही चाहा कि हम सभी के लिए खुशियों से भरा वक्‍़त बस जल्‍दी से लौट आए.

Tanabata in Japan, Tanabata in Zojoji
तानाबाता की ख्‍़वाहिशें (तस्‍वीर: रुचिरा शुक्‍ला)

Tanabata in Japan
ज़ोजोजी मंदिर में अपनी इच्‍छाओं को टांगते श्रद्धालु (तस्‍वीर: रुचिरा शुक्‍ला)

Tanabata in Japan
कोविड से पहले कुछ ऐसे धूमधाम से मनाया जाता था तानाबाता 
(PC : nippon.co)

आपको कैसी लगी ये पहली चिट्ठी, हमें ज़रूर बताइएगा. यदि आप जापान के बारे में कुछ और जानना चाहते हैं तो कमेंट बॉक्‍स में लिख दीजिए...

© इस लेख को अथवा इसके किसी अंश को बिना अनुमति प्रयोग करना कॉपीराइट का उल्‍लंघन होगा।

रुचिरा शुक्‍ला
रुचिरा शुक्‍ला
रुचिरा शुक्‍ला जापानी भाषा और जापानी संस्‍कृति की विशेषज्ञ हैं. वे इन दिनों टोकियो में रह रही हैं और आईटी क्षेत्र में काम कर रही हैं. रुचिरा अपना समय यात्राओं, जापान के विभिन्‍न पहलुओं को देखने-समझने और उनके बारे में लिखने में बिता रही हैं. वे जापान के बारे में अपने ब्‍लॉग Tall Girl in Japan और अपने फेसबुक पेेज  और इंस्‍टाग्राम पर लिख रही हैं.






#japan #tanabata #starfestival #indiajapan #lettersfromjapan 

शुक्रवार, 5 जून 2020

संक्रमण के तूफ़ान के बीच क्‍या यात्राओं और पर्यटन के लिए तैयार हैं हम ? Is It Right Time for Travel & Trips ?

संक्रमण के तूफ़ान के बीच क्‍या यात्राओं और पर्यटन के लिए तैयार हैं हम ?

 Is It Right Time for Travel & Trips ?

अनलॉक -1 के साथ ही देश अनलॉक होना शुरू हो गया है. पिछले दो ढ़ाई महीनों से लगी तमाम तरह की बंदिशों में बेहिसाब रियायतों का ऐलान कर दिया गया है. काम-धंधे पटरी पर लौटना शुरू हो रहे हैं और अर्थव्‍यवस्‍था का पहिया एक बार फिर सरकना शुरू हो रहा है. यही नहीं किसी-किसी राज्‍य ने पर्यटन के लिए भी अपने दरवाजे खोल दिए हैं. होटल, रेस्‍तरां, मंदिर, स्‍मारक, म्‍युजियम सब खुल जाएंगे जल्‍दी ही. 

इस सबका मतलब क्‍या है? क्‍या ये समझा जा सकता है कि सरकार ने इतनी छूट दे दी हैं तो कोरोना नाम की वैश्विक महामारी का ख़तरा अब टल गया है? बंदिशें कम हो गई हैं तो क्‍या अब सैर-सपाटे के लिए बाहर निकलने का मुनासिब वक्‍़त हो गया है? 

सही वक्‍़त के इंतज़ार में थम गए कदम
मैं पिछले कुछ दिनों से घुमक्‍कड़ों और ट्रैवल ब्‍लागर्स में बाहर निकलने की छटपटाहट और ट्रैवल के लिए बाहर निकलने की वकालत के किस्‍से देख-सुन रहा हूँ. जबकि कुछ लोग अभी धैर्य रखकर यात्राओं से तौबा करने की सलाह दे रहे हैं. यात्रा से जुड़े लोगों की ये दुनिया इन दिनों दो सिरों पर खड़ी नज़र आ रही है. क्‍या कोई बीच का रास्‍ता भी है?
दरअसल लॉकडाउन खत्‍म हुआ है, कोरोना नहीं. ये यक़ीनन एक नाजुक मोड़ है जहांं हमारा एक ग़लत फैसला हमारे और हमारे परिवार के भविष्‍य की दिशा और दशा बदल कर रख सकता है. 

कोरोना नाम का शत्रु ठीक हमारे दरवाजे के बाहर खड़ा है. ऐसे में हमें क्‍या करना चाहिए और क्‍या नहीं ये हमें ठंडे दिमाग से तय करना होगा. ऐसे निर्णय जोश या भावनात्‍मक आधार पर नहीं बल्कि जानकारियों और तथ्‍यों का विश्‍लेषण करके ही लिए जा सकते हैं. आइए एक छोटी सी कोशिश करके ये जानने की कोशिश करते हैं कि कोरोना के खिलाफ़ चल रहे विश्‍वव्‍यापी युद्ध के बीच इन दिनों यात्राएं करना सुरक्षित है या नहीं? अगर अभी नहीं तो कब तक सुरक्षित हो सकती स्थिति? जब दूर की यात्राएं संभव न हो तो क्‍या कर सकते हैं यात्राओं के दीवाने?

ख़तरे का सटीक आकलन है सबसे ज़रूरी

किसी भी युद्ध का पहला नियम है शत्रु की ताक़त का सही अंदाज़ा लगाना. तभी हम भविष्‍य की रणनीति बना सकते हैं. तो ताज़ा स्थिति पर एक नज़र डालते हैं:

अब तक संक्रमण के कुल मामलों की संख्‍या सवा 2 लाख के पार हो चुकी है और ये एक दिलचस्‍प और डरावना तथ्‍य है कि इनमें से पहले 1 लाख मामलों को 110 दिन लगे जबकि 1 लाख से 2 लाख होने में मात्र 15 दिन लगे. 

5 जून , 2020 की स्थिति के अनुसार भारत में अब तक संक्रमित लोगों की कुल संख्‍या 2,26,639 है जिसमें 9,304 मामले केवल पिछले एक दिन में सामने आए हैं और अब तक कोरोना से कुल 6,275 मौत हो चुकी हैं. उधर पूरी दुनिया में अब तक संक्रमित हो चुके लोगों की संख्‍या 66,35,347 है और अब तक कुल 3,89,699 मृत्‍यु हो चुकी हैं. इस गति से अगलेे 15 दिनों में भारत में कुल 5 लाख लोग संक्रमित हो चुके होंगे और जुलाई के पहले सप्‍ताह तक 10 से 12 लाख. दिल्‍ली और मुंबई जैसे महानगरों की स्थिति हमारे सामने ही है.

संक्रमण की रफ़्तार की ये स्थिति तब है जब देश में प्रतिदिन तकरीबन 1 लाख टेस्‍ट ही हो पा रहे हैं. जैसे-जैसे टेस्‍ट की संख्‍या बढ़ रही है, संक्रमण के ज्‍यादा मामले सामने आ रहे हैं. एम्‍स के निदेशक, श्री रणदीप गुलेरिया बार-बार आगाह कर रहे हैं कि जून और जुलाई में मामलों में बहुत तेजी आएगी...कोरोना के मामलों की पीक अभी देखनी बाकी है. 

इधर दुनिया में सबसे संक्रमित देशों की सूची में अब भारत टॉप 10 में बड़ी तेजी से ऊपर के पायदान चढ़ रहा है. इस वक्‍त़ यूएसए, ब्राजील, यूके, स्‍पेन और इटली के बाद अगले पायदान पर भारत ही है और यूके, स्‍पेन और इटली को भारत इसी सप्‍ताह पीछे छोड़ सकता है. अभी पीक दूर हैै लेकिन अस्‍पतालों पर बोझ बढ़ने लगा है और हमारे हैल्‍थ केयर सिस्‍टम की सांसें उखड़ने लगी हैं. आगे क्‍या होगा?

क्‍या हो चुका है सामुदायिक प्रसार ?

सामुदायिक प्रसार महामारी की तीसरी स्‍टेज है जिसमें ये पता लगा पाना मुश्किल होता है कि किसको किस से संक्रमण हुआ है? कॉन्‍टेक्‍ट ट्रेसिंग भी असंभव हो. सरकार ने आधिकारिक तौर पर कम्‍युनिटी स्‍प्रैड की घोषणा अभी नहीं की है लेकिन 1 जून को एम्‍स के डॉक्‍टरों और आईसीएमआर के विशेषज्ञों के एक 16 सदस्‍यीय दल ने देश में कोविड-19 के संक्रमण के सामुदायिक प्रसार शुरू होने के प्रति सरकार को आगाह किया है. 

इन विशेषज्ञों का दावा है कि देश के बड़े शहरों और खासकर घनी आबादी वाले क्षेत्रों में सामुदायिक प्रसार हो चुका है और उन्‍होंने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री जी को सौंप दी है. तो ऊपर की स्थिति को देखकर यह स्‍पष्‍ट है कि ख़तरा बहुत बड़ा है और अभी ये कितना और फैलेगा कुछ ठीक से कहा नहीं जा सकता. तो इससे बचें कैसे? बस एक थम्‍ब रूल याद रखिए कि हमारे घर के बाहर हर व्‍यक्ति संक्रमित हो चुका है, दुनिया में सिर्फ हम ही बचे हैं, अब हर व्‍यक्ति से खुद को बचाना है’. तभी हम सतर्क रहेंगे और खुद को और अपने परिवार को बचा पाएंगे.

टीवी बन्द कर देने से हम खुद को ख़बरों से दूर कर सकते हैं, संक्रमण के खतरे से नहीं. क्या हमें तभी खतरे का अहसास होगा जब हमारे मुहल्ले में कोई संक्रमित होगा या कोई अपनी जान गंवा देगा? ये कबूतर के आंख बंद करने पर बिल्ली के गायब हो जाने जैसी कहानी है. सकारात्मकता और अति सकारात्मकता  में कुछ तो अंतर होता होगा.

क्‍या आपको लग रहा है कि मैं आपको डरा रहा हूँ? दोस्‍तो, थोड़ा डर ही हमें बचाएगा. व्‍हाट्सएप यूनिवर्सिटी में इन दिनों जो कॉन्‍सपीरेसी थ्‍योरी और कोरोना के नजला-जुकाम जैसा मामूली होने के संदेश आप तक पहुंच रहे हैं उन पर आंख बंद कर भरोसा न करें. दुनिया के तमाम विकसित देश इस बीमारी के आगे धराशायी हो चुके हैं. लाखों लोग मर चुके हैं. कोरोना से ठीक होने वाले लोग भी कब तब सुरक्षित हैं, उन्‍हें भविष्‍य में कोई खतरा होगा या नहीं, इस बात का उत्‍तर दुनिया में अभी किसी के पास नहीं है. हां, ये बात भी सही है कि हमें इससे घबराना नहीं है लेकिन पूरी सतर्कता ज़रूरी है.

अपनी और अपनों की हिफाज़त के लिए एहतियात ज़रूरी है...वरना सफ़़र तो मजबूरी है

फिर कोरोना के साथ जीने का मतलब क्‍या है ?

हमारी सरकारें बार-बार कह रही हैं कि अब हमें लंबे समय तक कोरोना के साथ जीना होगा. लेकिन इस साथ जीने का मतलब क्‍या है? क्‍या इसका मतलब ये है कि कोरोना भी हमारे आस-पास रहे और हम हर तरह का ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी काम करते रहें? या फिर हमें गैर-ज़रूरी कामों को फिलहाल टालना चाहिए? यहांं सवाल उठना लाजमी है कि यदि हमें कोरोना के साथ ही जीना था तो फिर इतने दिन लॉकडाउन क्‍यों रखा गया और अब जब मामले बढ़ रहे हैं तो इसे क्‍यों खोला जा रहा है? 

इसका सीधा सा जवाब है कि लॉकडाउन से पहले सिस्‍टम इस संक्रामक महामारी से मुक़ाबला करने के लिए बिल्‍कुल तैयार नहीं था. हमारी सरकारों ने इन दो महीनों के समय का इस्‍तेमाल हैल्‍थकेयर सिस्‍टम को मजबूत बनाने मसलन अस्‍पतालों में बेड, वेंटिलेटर, पीपीई किट्स आदि का इंतजाम करने के लिए किया है. अब जब सिस्‍टम इस स्थिति में है कि हर शहर में कुछ हज़ार लोगों को अस्‍पतालों में भर्ती किया जा सकता है और उधर गिरती अर्थव्‍यवस्‍था को संभालने के लिए इसे तत्‍काल शुरू किया जाना ज़रूरी हो चुका है तो सरकारों ने कुछ अपवादों को छोड़कर तमाम प्रतिबंध हटा लिए हैं. 

सरल शब्‍दों में इसका अर्थ ये हुआ कि लोगों की जान के जोखिम के बावजूद अर्थव्‍यवस्‍था को चलाए रखना भी हमारी प्रा‍थमिकता है. पिछले दो महीने के वक्‍़त को हम अपने लिए कोरोना से लड़ने के लिए बेसिक ट्रेनिंग के रूप में समझ सकते हैं. इसलिए अब दायित्‍व सीधा हम लोगों पर है. सरकार अभी भी बार-बार कह रही है कि सोशल डिस्‍टेंसिंग करें, मास्‍क पहनें, फेसकवर लगाएं, हाथों को बार-बार सेनेटाइज़ करेंकिसलिए? इसीलिए न कि अभी ख़तरा बरकरार है

लेकिन पूरी सावधानी के साथ ये सब एहतियात रखते हुए भी हम आश्‍वस्‍त नहीं हो सकते कि हम संक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे. इस डर की एक वजह ये है कि पूरी एहतियात बरतने के बावजूद लोग संक्रमित हो रहे हैं. लोग मशीन या कंप्‍यूटर नहीं हो सकते कि कहीं गलती की गुंजाइश ही न रहे. बाहर निकलेंगे, टैक्‍सी, फ्लाईट या ऑटो में लोगों के साथ स्‍पेस शेयर करेंगे तो कहीं भी चूक हो सकती है. एक बार सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घटी.

ठहर गई है पर्यटन की दुनिया

ऐसे हालातों में क्‍या ख़तरे हैं पर्यटन के?

हम जानते हैं कि इस आपदा ने पर्यटन उद्योग की कमर तोड़ कर रख दी है. होटल, टैक्‍सी, रेस्‍तरां, एविएशन, गाइड, टूर ऑपरेटर्स सब संकट में हैं. हम समझ सकते हैं कि इस उद्योग का पटरी पर लौटना कितना ज़रूरी है. लेकिन किस कीमत पर? क्‍या इसके लिए अपनी या अपने प्रियजनों की जिंदगी को दांव पर लगाया जा सकता है? हममें से कई लोगों को लगता है कि कोरोना हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. ये दुनिया को हो सकता है मगर हमें नहीं. ऐसी खुशफ़हम दुनिया की कमी नहीं. हममें से कई लोगों को अपनी अच्‍छी इम्‍युनिटी पर गुमान है. शायद इसीलिए हम इन दिनों बहुत बेफिक्र होकर बसों, ट्रेनों, हवाई जहाजों की उड़ान भरने की योजना बना रहे हैं या हममें से कुछ इन दिनों ये यात्राएं कर भी रहे हैं. इन दिनों जो लोग बिना मास्‍क और गमछे के नज़र आ रहे हैं वे ऐसे ही बेफिक्र लोग हैं. लेकिन यहांं हम लोग एक चीज भूल रहे हैं. 

कोराना भले ही हमें ज्‍यादा प्रभावित न करे मगर हम लोग कोराना वायरस के कैरियर बन कर उन दूसरे लोगों की जिंदगी ख़तरे में डाल सकते हैं जिनकी इम्‍युनिटी कमज़ोर है. ये कोई भी हो सकते हैं. हमारे घर में बुजुर्ग, बच्‍चे, हमारी डोमेस्टिक हेल्‍प, या फिर हमारे संपर्क में आने वाला कोई भी शख्‍़स. यदि इनमें से किसी एक की भी जिंदगी हमारी वजह से ख़तरे में पड़ती है तो क्‍या हम खुद को माफ़ कर पाएंगे? मैं, आप या हमारा परिवार सिस्‍टम के लिए सिर्फ एक नंबर हैं, मगर हम एक दूसरे के लिए पूरी दुनिया.

मुझे वाकई बड़ी हैरानी होती है उन लोगोंं को देखकर जो खुद तो लापरवाही कर ही रहे हैैं और साथ ही बाकी लोगों को भी ऐसी मूर्खताएं करने के लिए उकसा रहे हैं. अपने आस-पास ऐसे लोगों को देखिए जो मास्‍क, फेस कवर या सैनिटाइज़़र का प्रयोग करने पर आपका मज़ाक उड़ाते हैं या यात्राओं पर चलने के लिए आपसे आग्रह कर रहे हैं. कोई कुछ भी कहे, आप अपने विवेक से निर्णय लीजिए. जब आप मुसीबत में होंगेे तो ये लोग आपकी कोई मदद नहीं कर पाएंगे. 

क्‍या कुछ दिन और इंतजार नहीं कर सकते हम ?

क्‍यों नहीं? किसी वैश्विक महामारी के बीच यात्राएं हमारी प्राथमिकता में शायद आखिरी पायदान पर होनी चाहिएं. अभी इस आपदा को देश में दस्‍तक दिए जुम्‍मा-जुम्‍मा तीन महीने बीते हैं और हम अभी से बेचैन हो उठे दुनिया देखने के लिए. दुनिया कहीं नहीं जा रही. यहीं रहेगी. ये नदी, ये पहाड़, ये समंदर सब यहीं रहेंगे....बशर्ते इन्‍हें देखने के लिए हम और हमारा परिवार सुरक्षित रहें. युद्ध में विपरीत परिस्थितियों में यदि एक कदम पीछे भी हटना पड़े तो बुद्धिमानी होती है. ये वक्‍़त भी कुछ ऐसा ही है. कोरोना से आ बैल मुझे मार कह कर भिड़ने या उससे टकराने के लिए पर्यटन के नाम पर तमाम ख़तरे उठाने की ऐसी कौन सी आफ़त आन पड़ी है कि हमें इन्‍हीं दिनों बाहर निकलना है, अभी कोई जगह देखकर अपना रिकॉर्ड बनाना है. खुद को तीसमारखां साबित करना है. ये सब तो हम छह महीने बाद भी कर सकते हैं. यकीनन उस वक्‍़त भी हो सकता है कि कोरोना पूरी तरह ख़त्‍म न हो लेकिन उस वक्‍़त मामले बहुत कम और ढ़लान पर होंगे. 

इस वक़्त जब डोमेस्टिक ट्रेवल के लिए हमें हज़ार बार सोचना पड़ रहा है तो देश के बाहर की घुमक्कड़ी के बारे में सोचना दूर की कौड़ी ही है. दुनिया के किसी भी देश को सुरक्षित नहीं माना जा सकता इस वक़्त, मामले कहीं कम तो कहीं ज़्यादा. WHO भी कोरोना की दूसरी लहर आने की बात कह चुका है. इसके मुताबिक इस वक़्त हम पहली लहर के बीच में हैं. आप स्वयं अंदाज़ा लगा सकते हैं कि स्थिति क्या है. हो सकता है अगले दो-तीन महीने में इंटरनेशनल फ्लाइट्स शुरू हो जाएं, ज़रूरतमंदों और मज़बूरी के मामलों में ऐसा ट्रेवल ज़रूरी भी होगा लेकिन सैर सपाटे के लिए ? मुझे बिल्कुल नहीं लगता. 

क्‍या दूर-दराज इलाकों और होम स्‍टे के भरोसे सुरक्षित है ट्रैवल?

बात फिर वहीं आ जाती है. इस वक्‍़त देश का कौन सा ऐसा गांंव या शहर है जहां कोई मामला न पहुंचा हो? या अगर है तो क्‍या हम गारंटी से कह सकते हैं कि अगले कुछ दिनों में वहांं नहीं पहुंचेगाबेशक ये जगहें कोरोना से सुरक्षा की दृष्टि से शहरों की तुलना में कुछ बेहतर हैं. लेकिन इनकी खूबी ही इनकी कमजोरी है. इन दूर-दराज के इलाकों में यदि संक्रमण फैलता है तो पर्यटकों को समय पर स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं मिलना भी मुश्किल हो सकता है. 

दूसरे आज भी हम इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हो सकते कि देश के कौन से इलाके में कब सीमाएं सील कर दी जाएं. हिमाचल या उत्‍तराखंड जैसे राज्‍यों में ऊंचे पहाड़ों पर स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की सीमाओं से हम सभी परिचित हैं. इन इलाकों तक पर्यटन के साथ भी संक्रमण के पहुुंचने का ख़तरा है. इस बात में कोई शक नहीं कि आने वाले समय में ऐसे दूर-दराज के इलाकों में पर्यटन करना बेहतर होगा. लेकिन मेरे हिसाब से अभी मुनासिब वक्‍़त नहीं. 

हिमाचल का एक दूर-दराज का गांव

क्‍या होटल और हवाई यात्राएं हैं सुरक्षित?

थम्‍ब रूल चैक कीजिए. बाहर हर शख्‍़स संक्रमित है...... तो साहब, पूरी तरह सुरक्षित कुछ नहीं है. आजकल आप लोगों के इनबॉक्‍स में तमाम होटलों से ई-मेल भी आ रहे होंगे कि फलां-फलां होटल में क्‍या-क्‍या एहतियात बरती जा रही हैं. किसी होटल में किसी विशेष कैमिकल से होटल का सेनेटाइजेशन किया जा रहा है तो किसी में माइक्रोबायोलॉजिस्‍ट को ऑन बोर्ड लिया गया है. लेकिन ये सब सुरक्षा की एक कवायद है....गारंटी नहीं. इस बात में कोई शक नहीं कि लोगों को बिजनेस आदि के लिए बाहर निकलना होगा, यात्राएं करने की मजबूरी होगी सो दूसरे शहरों में होटलों में ठहरना भी होगा. 

मजबूरी और शौकिया ट्रैवल के फर्क को हमें समझना होगा. यही बात हवाई सफ़र पर भी लागू होती है. इकॉनोमी क्‍लास में चिपक कर बैठने वालेे तीन यात्रियों के बीच कैसे होगी सोशल डिस्‍टेंसिंग? माना कि थर्मल स्‍कैनर से सभी चेक करके बोर्ड किए गए हैं. लेकिन एसिम्‍पटोमैटिक पेशेंट्स का क्‍या कीजिएगा...किसी के चेहरे पर तो नहीं लिखा न. संभव है खुद ऐसे व्‍यक्ति को भी न मालूम हो. इसके अलावा, इस समय हवाई जहाजों से पहुंचने वाले यात्रियों को 7 से 14 दिन तक क्‍वारंटीन रहने की तमाम राज्‍यों द्वारा लागू की गई शर्तें भी जारी हैं. ऐसे में क्‍या ख़ाक मज़ा आएगा पर्यटन का?

तो कब होगा सुरक्षित बाहर निकलना

इस बारे में तो निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता इस वक्‍़त. लेकिन एक बार ज़रा कोरोना का उफान थम जाए....ज़रा मामलों की रफ्तार में कमी होनी शुरू हो, कोई दवा या वैक्‍सीन नज़र आने लगे, हमारा हैल्‍थकेयर सिस्‍टम ज़रा दम भर ले. तब निकलेंगे न बाहर. ख़तरा होगा मगर अब से कम होगा. और ये स्थिति बहुत ज्‍यादा दूर नहीं है. दुनिया के तमाम देशों में कोरोना के रुझान देखकर लगता है कि अगले तीन से चार महीनों में स्थिति काफी बेहतर होगी. 

मैं भी उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा हूँ जब अपना बैग पैक कर हवाई अड्डे की ओर निकलूंगा किसी लंबे सफ़र पर. जब बगल वाले यात्री को ख़तरा नहीं समझूंगा, जब किसी शहर में थोड़ा बेफिक्र होकर टहल सकूंगा, जब हर शख्‍़स को ख़तरा नहीं समझूंगा, हर चीज पर शक नहीं करूँगा. तभी तो आनंद आएगा यात्रा और पर्यटन में. अपने बेटे और पत्‍नी को तो शायद उसी दिन ले जा पाऊंगा जब दुनिया से कोरोना का डिब्‍बा पूरी तरह गोल हो चुका होगा. क्‍योंकि उनके लिए मैं ही उनकी दुनिया हूँ और मेरे लिए वही मेरा जहान हैं. 

तब तक क्‍या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें?

सुंंदर नर्सरी
नहीं. तब तक यात्राओं पर पुस्‍तकें पढ़ें, अगर ब्‍लॉगर या लेखक हैं तो जो अब तक नहीं लिख पाए, उसे लिख डालें, ऐसा वक्‍़त फिर कहाँ मिलेगा. वीडियो बनाने का शौक रखते हैं तो पुरानी यात्राओं के वीडियो एडिट कर तैयार करें. हां, तफरी की बहुत ही ज्‍यादा तलब उठे तो पैदल, साइकिल, स्‍कूटर-बाइक उठाकर अपने ही शहर की किसी ऐसी जगह को देख आएं जहांं सोशल डिस्‍टेंसिंग हो सकती हो. 








ये जगहें दिल्‍ली के लोधी गार्डन, सफदरजंग का मक़बरा, सुंदर नर्सरी, कुतुब कॉम्‍पलेक्‍स, लोधी कॉलोनी की स्‍ट्रीट आर्ट जैसी हो सकती हैं जहांं आप थोड़ी ही सावधानी के साथ बेफिक्र होकर घूम सकते हैं. 

बंद एयरकंडीशंड बसों, टैक्सियों, हवाई जहाजों की यात्राओं से बचें. लोकल हो जाएं कुछ दिनों के लिए, ग्‍लोबल होने के लिए उम्र पड़ी है. हमारे आस-पास इतना कुछ बिखरा हुआ जो अक्‍सर नज़रअंदाज होता रहा है. तो जब तक दुनिया थोड़ा होश में नहीं आती है तब तक लोकल चीजों का सावधानी से आनंद लिया जाए. बैकयार्ड टूरिज्‍़म :)

बड़ी जिम्‍मेदारी है ट्रैवल इन्‍फ्लुएंसर्स पर

ये वक्‍़त ब्‍लॉगर्स और ट्रैवल इन्‍फ्लुएंसर्स के लिए वाकई जिम्‍मेदारी भरा है. लोग आपकी ओर इस आशा और विश्‍वास से देखते हैं कि आप उन्‍हें सही मार्गदर्शन देंगे. जल्‍द ही तमाम ट्रैवल कंपनियां, टूरिज्‍म बोर्ड, होटल या रिसॉर्ट ब्‍लॉगर्स और इन्‍फ्लुएंसर्स को आमंत्रित करना शुरू करेंगे कि आइये हमारे यहांं, ठहरिए, आनंद लीजिए और फिर दुनिया को बता दीजिए कि सब सुरक्षित है. ताकि उनका बिजनेस रफ़्तार पकड़ सके. 

यहां सोच-समझकर आगे बढ़ना होगा. हमें घूमता-फिरता देख हज़ारों लोग भी अपना मन बनाएंगे. सो इस वक्‍़त पूरी ईमानदारी से सच को सामने रखने की ज़रूरत होगी. खुशी की बात है कि इन दिनों तमाम ट्रैवल राइटर्स इस जिम्‍मेदारी को बखूबी निभा भी रहे हैैं. ऐसी ही एक ट्रैवल राइटर मंजुलिका प्रमोद इन दिनों अपने आर्ट वर्क से लोगों को धैर्य रखने का संदेश दे रही हैं. 

 यात्राओं के लिए सही समय के इंतजार में मंजुलिका प्रमोद

मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं कि ये बुरा वक्‍़त जल्‍दी ही ख़त्‍म हो जाएगा. हमारी और आपकी यात्राओं, मेले-ठेलों की दुनिया फिर से गुलज़ार होगी. ऐसा ख़ूबसूरत वक़्त बहुत जल्द आएगा. हम फिर पहले की तरह आज़ाद घूम सकेंगे. तब तक धैर्य रखिए, इम्‍युनिटी को बढ़ाते रहिए, जिम्‍मेदारी से आगे बढि़ए, अपनी और अपने परिवार की जिंदगी का ख्‍़याल कीजिए क्‍योंकि जान है तभी जहान है! हम और हमारा परिवार सुरक्षित रहेगा तो खूब घूमेंगे, खूब सैर करेंगे.....बस कुछ वक्‍़त और.

नीचे कमेंट सेक्शन में अपनी राय भी ज़रूर बताएं. आप सभी स्‍वस्‍थ और प्रसन्‍न रहें, इस आपदा के गुज़रने के बाद खूब दुनिया देखें. अशेष शुभकामनाओं सहित !

- सौरभ आर्य


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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


© इस लेख को अथवा इसके किसी भी अंश का बिना अनुमति के पुन: प्रकाशन कॉपीराइट का उल्‍लंघन होगा। 

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मंगलवार, 28 जनवरी 2020

जब नाथु-ला पास (Nathu-La Pass) बना जी का जंजाल और सेना ने किया रेस्‍क्‍यू


जब नाथु-ला पास (Nathu-La Pass) बना जी का जंजाल और सेना ने किया रेस्‍क्‍यू 


अक्सर पहाड़ों पर यात्रियों के बर्फबारी में फंसने और रेस्क्यू ऑपरेशन द्वारा निकाले जाने की ख़बरें अखबारों और टीवी में पढ़ता-सुनता आया हूँ. लेकिन ये सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी हम भी ऐसे ही फंस जाएंगे. दार्जिलिंग-गंगटोक यात्रा के तीसरे दिन यानि 27 दिसम्बर, 2019 की शाम भारत-चीन सीमा यानि नाथू ला दर्रे की यात्रा से लौटते वक़्त हमारे साथ कुछ ऐसा ही हुआ. ये दर्रा 1967 में हुए भारत-चीन युद्ध के कारण बहुत महत्‍वपूर्ण है. ये जानना और भी दिलचस्‍प है कि चीन के हाथों में जाने से कैसे बचा था नाथु-ला पास? ये 1967 की एक भुुुुला दी गई कहानी है.

खैैैर, उस रोज़ दिन की शुरुआत अच्छी खासी खिली हुई धूप के साथ हुई तो खराब मौसम की एक प्रतिशत भी संभावना नज़र नहीं आ रही थी. हम लोग दिन में 12 बजे के आस-पास 14140 फीट की ऊंचाई पर नाथू ला दर्रे तक पहुंच गए. 

बेशक अब तापमान माइनस 10 डिग्री था, दर्रे के रास्ते में छांगू या कहिए सोगमो झील पूरी तरह जम चुकी थी, बॉर्डर पर ऑक्सीजन की कमी से सांस लेने में ज़ोर लग रहा था, लेकिन चमकती धूप बराबर हौसला बनाए हुए थी. हम जैसे-तैसे नाथू ला दर्र के शिखर तक पहुंचे, भारत और चीन के बॉर्डर पर कुछ वक़्त बिताया और फिर धीरे-धीरे नीचे लौट आए. परिवार के लिए तो यही माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई हो गई थी. सूरज अभी भी उन बर्फीली हवाओं से संघर्ष करते हुए हमारा हौसला बनाए हुए था. लेकिन पहाड़ तो पहाड़ ठहरे, पल भर में मिजाज़ बदल जाता है इनका. 

Nathu la Pass, China Border, नाथु-ला दर्रा, चीन सीमा
Nathu la Pass at China Border
लेकिन जैसे ही गाड़ी में सवार हुए हल्की-हल्की बर्फ गिरनी शुरू हो गई. ड्राइवर ने शोर मचाना शुरू कर दिया. नाथू ला से वापसी में इस गिरती बर्फ के बीच कुछ वक़्त छांगू लेक (Tsogmo Lake) पर बिताया. अब उस जमी हुई झील को निहारने के सुख को कैसे छोड़ते भला. हज़ारों लोगों की तरह हमें भी लगा कि ये बर्फबारी थोड़ी देर में रुक जाएगी. लेकिन ये लगातार बढ़ती रही. अब ड्राइवर ने हमें डराने वाली ख़बर दी कि छांगू से कुछ किलोमीटर नीचे और ज्यादा बर्फ गिर रही है. हम फुर्ती से गाड़ी में सवार हो गए और अब गैंगटोक की तरफ़ गाड़ी की रफ़्तार बढ़ गई. हम जल्द से जल्द उस इलाके को पार कर लेना चाहते थे. सड़क पर गिरती बर्फ ऐसी लगी जैसे ऊपर से रुई की गोलियां बरस रही हों. इधर ड्राइवर ने बताया कि पिछले साल 28 दिसम्बर को भी इसी तरह भारी बर्फ गिरी थी और हज़ारों लोग यहां 2 दिन तक फंस गए थे. बात करते-करते बर्फ गिरने की रफ्तार और बढ़ी. मैंने इतना खूबसूरत मंज़र पहले कभी नहीं देखा था. चंद मिनटों में हर चीज सफेद हुई जा रही थी. मन इस दृश्य को देख बेहद खुश भी था मग़र दिल की धड़कनें लगातार बढ़ रही थीं.

Nathu la Pass, China Border, नाथु-ला, चीन बॉर्डर
नाथु-ला के रास्‍ते में बिगड़ना शुरू हुआ मौसम का मिजाज 

Nathu la Pass, China Border, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
नाथु-ला की ओर जाने वाले जंगली रास्‍ते


इसी स्‍नो-फॉल के बीच हम धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ते रहे. लेकिन जल्‍द ही वो क्षण भी आ गया जब गाड़ी का चलना मुश्किल हो गया और ड्राइवर को मजबूरन गाड़ी रोकनी पड़ी. हमारी दाईं तरफ एक छोटा सा ढ़ाबा नज़र आ रहा था जहां पहले से ही 50-60 लोग खड़े थे. मैंने गाड़ी के अंदर से अंदाजा लिया तो तकरीबन 15 से 20 गाडि़यां आस-पास खड़ी थीं. आगे न बढ़ने का सबसे बड़ा कारण कोई 200 मीटर बाद एक तीखी ढ़लान पर सड़क के मोड़ का होना था. ऐसे में गाड़ी आगे लेकर जाने का मतलब मौत से पंजा लड़ाना था. हमारे पास इंतज़ार के अलावा कोई विकल्‍प नहीं था. अब तक भूख भी लग चुकी थी. ढ़ाबा सामने था और दूर से मैगी बनती दिख रही थी. गाड़ी के बाहर भीषण ठंड भी हिम्‍मत तोड़ रही थी और डर था कि अगर गाड़ी से उतर कर मैगी खाने गए और इधर गाडियां चल पड़ीं तो हमारी गाड़ी के पास आगे बढ़ने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं होगा. सो बैठे रहे. पूरी उम्‍मीद थी कि अभी बर्फ गिरना बंद होगी और हम आगे बढ़ जाएंगे. लेकिन अगले दस-पंद्रह मिनट तक गाड़ी एक इंच भी नहीं सरकी. सो मैगी का आदेश दे दिया. ढ़ाबे को कुछ महिलाएं चला रही थीं. अचानक इतने सैलानियों को अपने ढ़ाबे में देख उनके चेहरे पर अजीब सी चमक और हाथों में ग़ज़ब की फुर्ती आ गई थी.


5-7 मिनट बाद गरमागरम मैगी का बाउल हाथों में आया ही था कि बाहर गाडियों में हलचल शुरू हो गई. किसी ने कहा कि रास्‍ता खुल गया है. बस फिर क्‍या था...भागते भागते वो गरम-गरम मैगी जल्‍दी–जल्‍दी खाई. जिंदगी में इतनी बेरहमी से मैगी कभी नहीं खाई. 2 मिनट में सभी आकर गाड़ी में बैठ गए. गाड़ी कोई 10 कदम चली होगी कि फिर रुक गई. अब तक बर्फ गिरनी बंद हो चुकी थी. इसलिए ये यकीन और पुख्‍़ता हो गया था कि अब तो रास्‍ता खुल ही जाएगा. लेकिन गाडियां थीं कि अब भी आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं. लोग बता रहे थे कि फौज रास्‍ता खोलने की कोशिश कर रही है. हम इधर उधर टहलते हुए बस इंतजार ही करते रहे. इस इंतज़ार में आधा घंटा और निकल गया.
भूखे मुसाफिरों के लिए राहत की सांस बना ये ढ़ाबा 

इधर धीरे-धीरे शाम गहराने लगी और कुछ ही देर में ड्राइवर ने वो कहा 
Nathu la Pass, snow-fall at nathu-la, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
13 माइल पर फंसे वाहन
जिसे सुनकर हमारे पैरों के नीचे से पूरा पहाड़ ही निकल गया था. ड्राइवर ने कहा कि
‘’अब गाड़ी आगे नहीं जा पाएगी. बर्फ अगले 5 किलोमीटर तक गिरी है. आपको या तो 4-5 किलोमीटर पैदल नीचे जाकर गैंगटोक से कोई गाड़ी बुलानी पड़ेगी या फिर रात यहीं गुज़ारनी होगी’’. हम एक बार फिर गाड़ी से उतर कर कुछ दूर आगे जाकर जायजा लेकर आए. सब कुछ जैसे एक ही जगह ठहर गया था. दूर तक चांदी सी बिखरी बर्फ और गाडियों की मद्धम हैड या टेल लाइटों के अलावा कुछ नज़र नहीं आ रहा था. हमारे पास दो ही विकल्‍प थे. या तो ड्राइवर की बात मान कर इस फिसलन भरे रास्‍ते पर 5 किलोमीटर तक पैदल चलें या फिर पूरी रात गाड़ी में गुज़ारें. हम इस इमरजेंसी के लिए भी तैयार थे. मैगी हम खा ही चुके थे और पूरा बैग भर कर गज़क, ड्राई फ्रूट, चॉकलेट, लड्डू आदि साथ थे. कम से कम भूखे मरने की नौबत नहीं आने वाली थी. लेकिन तभी आस-पास के लोगों ने कहा कि यहां रात को और बर्फ गिरेगी. ढ़ाबे को चला रही महिलाएं भी ढ़ाबा बंद कर अपने घर के लिए निकल लीं. मतलब साफ था कि इस बर्फीले बियाबान में रात को रुकना भी खतरे से खाली नहीं था. एक पल को दिमाग सुन्‍न हो गया. क्‍या सही होगा और क्‍या ग़लत....कुछ समझ नहीं आ रहा था.
Nathu la Pass, Snow-fall at Nath-La, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
जब तक मुसीबत का अहसास नहीं हुआ तब तक खूब हुई मस्‍ती (Snow-fall at Nathu-La)

मैंने गंगटोक में ट्रैवल एजेंसी को फोन लगाने की कोशिश की. मगर वोडाफोन और जियो दोनों के नेटवर्क गायब थे. ड्राइवर के पास बीएसएनएल का फोन था, बड़ी मुश्किल से ट्रैवल एजेंसी में फोन लगा मगर उधर बैठे आदमी ने भी कोई गाड़ी भेजने में असमर्थता जताई और सारी गाड़ियों के यहीं फंसे होने या ट्रिप के बीच में होने की बात कही. इधर ड्राइवर ने गाड़ी साइड लगा उसे तिरपाल से ढक दिया और कहा कि वह पैदल नीचे जा रहा है. उधर बहुत से लोग अभी भी गाड़ियों में थे. अब तक बर्फ गिरनी बन्द हो चुकी थी, कुछ ही देर में हमें कुछ फौजी नज़र आए जो रास्ते पर जमी बर्फ को काट रहे थे और गाड़ियों को निकालने में मदद कर रहे थे. लेकिन ड्राइवर अभी भी गाड़ी लेकर आगे बढ़ने के पक्ष में नहीं था. 


Nathu la Pass, Snow-Fall at Nathu-La, नाथुुुुु-ला बॉर्डर, सिक्क्मि
स्‍नो फॉल के दौरान नज़़ारा

उस वक्‍़त जेहन में किस-किस तरह के ख्‍याल आ रहे थे...मैं बता नहीं सकता. हमारे साथ जो अच्‍छी बात थी, वही सबसे खराब बात थी. अच्‍छी बात थी कि हम अकेले नहीं थे. तीन परिवार साथ होने के कारण 6 बड़े और एक बच्‍चा यानि कुल 7 लोग एक साथ थे और खराब बात भी यही थी इन 7 लोगों में तीन महिलाएं और एक बच्‍चा भी था. हमारा एक गलत फ़ैसला हम सबकी जि़ंदगी पर भारी हो सकता था. आप सोच रहे होंगे कि इस वक्‍़त वहां फंसे बाकी लोग क्‍या कर रहे थे. तो साहब बाकी में से अधिकांश लोग भाग्‍यशाली थे कि उनके ड्राइवर धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रहे थे. उन्‍होंने अपने यात्रियों को हमारी तरह बीच रास्‍ते में नहीं छोड़ा था. लेकिन कुछ और लोग हमारी तरह बदकिस्‍मत थे. वे अब तक पैदल निकल चुके थे. हालांकि बात तो ड्राइवर की भी सही थी. उस फिसलन भरे रास्ते पर कुछ भी हो सकता था. ब्रेक न लगने पर गाड़ी फिसलते हुए सीधे खाई में जा सकती थी. कुछ देर पहले एक गाड़ी ढलान से कुछ नीचे सरक भी चुकी थी. इसका मतलब था कि जो गाड़ियां चल रही थीं वो लोग रिस्क ही ले रहे थे. वो मोड़ वाकई ख़तरनाक था. लेकिन ड्राइवर चाहता तो हमें वहां से उतार कर खाली गाड़ी को निकाल सकता था. लेकिन अब वो भी जिद पर आ चुका था कि गाड़ी नहीं चलानी तो नहीं चलानी. 

उस वक्‍़त हम सभी ने सामूहिक रूप से यही विचार किया कि ड्राइवर को साथ लेकर पैदल ही आगे बढ़ते हैं. कम से कम वो उस रास्ते से अच्छी तरह वाकिफ़ तो था. यही करने की कोशिश भी की. लेकिन हम लोग बमुश्किल 100 मीटर आगे बढ़े होंगे कि सेना के एक जवान ने पैदल चलते देख हमें टोक लिया. पूछताछ करने पर हमने सारा वाकया बता दिया. उस फौजी ने बताया कि फौज के जवान आगे पूरे रास्‍ते पर मुस्‍तैदी से काम कर रहे हैं और रास्‍ता एसयूवी के चलने लायक हो चुका है. फौजी ने हमारे ड्राइवर को भी हडकाया और उसे गाड़ी लेकर आने के लिए कहा. ड्राइवर फौजी से ही उलझ गया कि अगर कोई रिस्‍क हुआ तो क्‍या आप लिख कर देंगे कि जिम्‍मेदारी आपकी है. अब लिखित जिम्‍मेदारी कौन लेता है? 

हम लोगों ने एक बार फिर आगे बढ़ना शुरू किया. थोड़ा आगे बढ़ने पर फिर कुछ जवान मिले जिन्‍होंने ड्राइवर को थोड़ा हौसला दिया तो थोड़ी घुड़की. उन्‍होंने उसे समझाया कि रास्‍ता खोला जा रहा है सो वो वापिस जाकर गाड़ी लेकर आए. ड्राइवर गाड़ी लेने के लिए वापिस लौट गया और हमने आगे बढ़ना जारी रखा. सड़क की फिसलन लगातार बढ़ती जा रही थी. एकदम चिकनी हो चुकी बर्फ पर आखिर चलें तो कैसे चलें? इस बार भी फौजी भाईयों ने हमारी मदद की. सड़के के साइड में गिरी बर्फ अभी भी कुछ नर्म थी और पूरी तरह जमी नहीं थी. इसलिए किनारों पर चलना शुरू किया. गिरते-पड़ते हम लोगों के हाथ थाम कर उन्‍होंने जैसे-तैसे हमें कोई 200 मीटर आगे कैंप तक पहुंचाया. रास्‍ते में उन्‍होंने हमें तसल्‍ली दी कि

    ‘आप लोग बिल्‍कुल निश्चिंत रहें, ये ड्राइवर लोग जान-बूझकर लोगों को यहां छोड़ देते हैं क्‍योंकि ये जानते हैं कि आखिर में फौज मदद ज़रूर करेगी. एक फौजी रास्‍ते भर बड़बड़ाता रहा कि ये लोग नाथू ला की ट्रिप के लिए लोगों से 6000 से 8000 रु. तक लेते हैं और जब मुसीबत आती है तो सबसे पहले भाग खड़े होते हैं.

कैंप के गेट पर आठ-दस फौजी और तैनात थे. हमारा मामला सुन उन्‍होंने हमें वहीं इंतज़ार करने के लिए कहा. रात गहरा चुकी थी और बर्फ की ठंडक की चुभन छह-छह गरम कपड़ों की तह में भी हड्डियों में महसूस हो रही थी ऊपर से इस संकट से निकल पाने की अनिश्चितता. अब तक बेटे ने रोना शुरू कर दिया था, शायद हालात की नज़ाकत को वो भी भांप चुका था. हमारा कोई दिलासा, कोई गोदी, कोई बात उसे चुप नहीं कर पा रही थी. बच्चा तो बच्चा ही होता है आखिर. मैं सोच रहा था कि जो लोग और छोटे बच्चों के साथ हमसे कई किलोमीटर फंसे हैं उनका क्या हाल हो रहा होगा? बच्चे को रोता देख एक फौजी भाई न जाने कहाँ से एक स्टील के गिलास में गर्म पानी ले आए. बोले कि बच्चे को राहत मिलेगी. लेकिन एक घूँट से ज्यादा रचित ने पानी भी नहीं पिया. हम सुरक्षित खड़े थे लेकिन आगे क्या होगा...हमें कोई अंदाज़ा नहीं था. हर गुज़रता लम्‍हा बहुत धीरे-धीरे गुज़र रहा था.


Rescue Operation at Nathu-La pass
नाथुुुुु-ला पास पर राहत और बचाव अभियान
बीस-पच्‍चीस मिनट गुज़र गए मगर ड्राइवर नहीं लौटा. हमें भी अब उसके लौटने की उम्‍मीद नहीं रही. लेकिन फौजी तो फौजी थे. ड्राइवर का भरोसा उठते ही उन्‍होंने हमसे हमारी गाड़ी का नंबर और ड्राइवर की डिटेल लीं. वायरलैस पर कहीं संपर्क कर हमारी गाड़ी और ड्राइवर को खोजने के निदेश जारी किए गए. फिर 5 से 7 मिनट बाद वायरलैस पर रिपोर्ट आई कि गाड़ी हमारी बताई जगह पर खड़ी है मगर ड्राइवर नदारद है. ये फौजियों के लिए भी हैरानी भरी ख़बर थी, चूं‍कि जहां गाड़ी खड़ी थी वहां से वापिस नाथू ला की तरफ और यहां चैक पोस्‍ट की तरफ आने वाले दो रास्‍तों के अलावा और कोई रास्‍ता था ही नहीं. 

तो क्‍या ये समझा जाए कि ड्राइवर गाड़ी को वहीं छोड़ ऊपर नाथू ला की ओर निकल गया? उस वक्‍़त कुछ भी नहीं कहा जा सकता था. ये मामला शायद फौज के बड़े अधिकारियों तक पहुंचा होगा कि तभी अचानक एक जिप्‍सी हमारे पास आकर रुकी. मौके पर खड़े जवानों ने जिप्‍सी की आगे वाली सीट पर बैठे अफसर को सेल्‍यूट किया. स्‍पष्‍ट था कि कोई फौज का वरिष्‍ठ अधिकारी था. हम सभी को उस जिप्‍सी में बैठाया गया. हमें कहा गया कि जिप्‍सी आपको नीचे शहर तक छोड़ेगी. जिप्‍सी में आगे की सीट पर बैठा फौजी अफसर लगातार अपने मोबाइल से अपने किसी बड़े अधिकारी को लगातार रिपोर्ट दे रहा था कि 


'रास्‍ते में बर्फ पर नमक का छिड़काव किया गया है, रास्‍ते में गांव के लोगों की भी मदद ली जा रही है, सभी गाडियों को धीमी रफ्तार में निकाला जा रहा है, लगभग 30 से 35 वाहन 3 माइल से पीछे हैं'.  

बाद में मुझे पता चला कि ये 60 इंजीनियर्स के कैप्‍टन विशाल थे जो 13 माइल से नीचे 3 माइल तक के एरिया के इंचार्ज थे और उन्‍हें इस स्‍ट्रैच में फंसे यात्रियों को बाहर निकालने के ऑर्डर्स ऊपर से मिले थे. ऐसी स्थिति में सेना किस तरह से रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन करती है, हम बहुत करीब से देख रहे थे. इधर कैप्‍टन विशाल के मोबाइल पर बीच-बीच में हमारे ड्राइवर को खोजे जाने के बारे में रिपोर्ट आ रही थीं. जिप्‍सी में ब्‍लोअर चल रहा था जिसकी गरमी हमें तो राहत दे ही रही थी मगर सबसे ज्‍यादा सुकून बेटे को मिला कि वो चैन से सो गया.

हम जिप्‍सी से बाहर देख रहे थे कि सड़क पर दर्जनों गाडियां सड़क की साइड में खड़ी हैं. मैंने देखा कि हर दस-बीस कदम पर सेना के जवान हाथ में कुदाल और फावड़ा लिए सड़क पर जमी बर्फ को काटने की कोशिश में जुटे हुए हैं. कहीं-कहीं कुछ गांव वाले भी उनकी मदद करते नज़र आए. बाहर का नज़ारा डराने वाला था. इस सड़क पर 5 किलोमीटर चल कर जाना न केवल बेवकूफाना फैसला होता बल्कि जान पूरी तरह जोखिम में होती. 

कोई 20 मिनट बाद हम थर्ड माइल के चैक पोस्‍ट पर थे. इधर कैप्‍टन विशाल को ख़बर मिली कि हमारी गाड़ी और ड्राइवर को लोकेट कर लिया गया है. कैप्‍टन ने जवानों को फोन पर निदेश दिया कि ड्राइवर का थर्ड माइल पहुंचना सुनिश्चित किया जाए. कैप्‍टन विशाल को अब एक बार फिर 13 माइल तक के स्‍ट्रैच को चेक करके आना था सो उन्‍होंने हमें वहीं उतारा और गेट पर खड़े जवानों को निदेश दिया कि बच्‍चे और महिलाओं को चेकपोस्‍ट के अंदर बिठाया जाए. उस छोटी सी गुमटी नुमा चेक पोस्‍ट के भीतर हीटर जल रहा था जिससे महिलाओं और बच्‍चे को फिर से सुकून का अहसास हुआ. मैंने कैप्‍टन विशाल का शुक्रिया अदा किया तो वे मुस्‍कुराते हुए पलट कर बोले कि कोई बात नहीं. लेकिन ये एडवेंचर आपको याद रहेगा. 

फिर हम तीनों मित्र जवानों के साथ चेक-पोस्‍ट पर अपनी गाड़ी का इंतज़ार करने लगे. हम जानते थे कि अब ड्राइवर के पास कोई विकल्‍प नहीं बचा है और उसे इसी रास्‍ते से आना होगा. अगले 10 से 12 मिनट तक इस चेक पोस्‍ट से गुजरने वाली हर गाड़ी को रोक कर चेक किया गया. इस इंतजार के दौरान वहां खड़े जवानों से हल्‍की–फुल्‍की बातें होती रहीं.


जवानों ने हमें बताया कि पिछले साल यहां लगभग 3000 लोग फंस गए थे और हमने उन्‍हें अपने कैंपों में ठहराया था. ये हमारे लिए हैरानी भरा था कि क्‍या वाकई सेना के पास वहां इतने इंतजाम हैं कि वे अचानक आए 3000 लोगों को रात में ठहरा सकें. एक जवान ने बताया कि 

सर, यहां पूरा इंतजाम हैं. हम लोग चीन बॉर्डर पर हैं. जाने कब हालात बदल जाएं और अतिरिक्‍त फौज को यहां तैनात करना पड़ जाए. इसलिए पूरा इंतजाम रखते हैं.

आखिर में हमें हमारी गाड़ी नज़र आई. हम सभी को गाड़ी में बैठाया गया. गाड़ी पहले गियर में धीमे-धीमे आगे बढ़ती रही. अभी भी आगे तकरीबन पांच किलोमीटर पर सड़क पर फिसलन थी. लेकिन सभी गाडियां धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहीं. गंगटोक की तरफ पहले चेकपोस्‍ट पर जहां बर्फ और फिसलन ने हमारा पीछा छोड़ा...हमारी सांस में सांस आई. गंगटोक पहुंचते-पहुंचते हमें रात के 9 बज गए. दिमाग सुन्‍न था... और दिन भर में जो कुछ गुज़रा हमें किसी फिल्‍म या सपने जैसा ही लग रहा था.

अगली सुबह तक ये घटना दिल्‍ली के अखबारों तक भी पहुंच चुकी थी. एक करीबी मित्र जानते थे कि हम लोग पिछले दिन नाथुला गए थे सो अखबार की ख़बर देख उन्‍होंने अखबार की ख़बर का वाट्सएप्‍प भेजा. ख़बर के मुताबिक पिछली रात 300 गाडियां और 1700 लोग वहां फंसे थे. बात सही थी. क्‍योंकि हमारे होटल के ही बहुत से गेस्‍ट पूरी रात नहीं लौटे थे. 

दरअसल 17 माइल से पीछे फंसे लोगों को रात में नहीं निकाला जा सका. इन सभी 1700 लोगों को रात आर्मी कैंप में ही गुज़ारनी पड़ी और अगले दिन सुबह 10 बजे तक ही निकाला जा सका. कुछ न्‍यूज़ पोर्टल पर आई ख़बरों में कैंपों की तस्‍वीरें नुमाया थीं. चेहरे खुश नज़र आ रहे थे. 

यकीनन फौज ने हर संभव मदद की होगी. फौज का जितना भी शुक्रिया अदा किया जाए वो कम ही होगा. फौजी भाई उस वक्‍़त हम सबके लिए देवदूत बनकर आए थे. ईश्‍वर उन सभी को उन कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए और शक्ति प्रदान करें और उनके परिवारों को हर संभव खुशियां अता करें. जवान सीमा पर खड़ा है, इसलिए न केवल हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं बल्कि सीमाओं के भीतर हम और हमारे परिवार भी सुरक्षित हैं. जय जवान, जय हिंद !

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सौरभ आर्य
सौरभ आर्यको यात्राएं बहुत प्रिय हैं क्‍योंकि यात्राएं ईश्‍वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्‍य और इस खूबसूरत क़ायनात को समझने का सबसे बेहतर अवसर उपलब्‍ध कराती हैं. अंग्रेजी साहित्‍य में एम. ए. और एम. फिल. की शिक्षा के साथ-साथ कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दिनों से पत्रकारिता और लेखन का शौक रखने वाले सौरभ देश के अधिकांश हिस्‍सों की यात्राएं कर चुके हैं. इन दिनों अपने ब्‍लॉग www.yayavaree.com के अलावा विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल के लिए नियमित रूप से लिख रहे हैं. 


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#nathula #rescueoperation #indianarmy #sikkim 
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